साम्प्रदायिक निर्णय

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साम्प्रदायिक निर्णय 4 अगस्त, 1932 ई. को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मेकडोनाल्ड के द्वारा दिया गया था। इसी निर्णय के आधार पर नया भारतीय शासन-विधान बनने वाला था, जिस पर उस समय लन्दन में गोलमेज सम्मेलन में विचार-विमर्श चल रहा था और जो बाद में 1935 ई. में पास हुआ। साम्प्रदायिक निर्णय 1909 ई. के भारतीय शासन-विधान में निहित साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त पर आधारित था। 1906 ई. में जब यह स्पष्ट हो गया कि देश के प्रशासन में भारतीयों को अधिक प्रतिनिधित्व देने के लिए प्रचलित शासन-विधान में शीघ्र संशोधन किया जाएगा, तब भारत स्थित कुछ अंग्रेज़ अधिकारियों ने वाइसराय लार्ड मिण्टो द्वितीय की साठ-गाँठ से मुसलमानों को प्रेरित किया कि वे 'हिज हाईनेस' सर आगा ख़ाँ के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमण्डल वाइसराय के पास ले जाएँ।

लार्ड मिण्टो द्वितीय की चाल

इस प्रतिनिधिमण्डल ने वाइसराय से अनुरोध किया कि मुसलमानों के हितों की रक्षा और उनके समुचित प्रतिनिधित्व के लिए उनके वास्ते ख़ासतौर से अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाये जाएँ। इन लोगों ने अपनी माँग का कारण यह बताया कि भारत में अधिकतर मुसलमान बहुत ज़्यादा ग़रीब हैं, जिसकी वजह से वे सम्पत्ति सम्बन्धी अर्हताओं के आधार पर तैयार की गई मतदाता सूची में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं पा सकेंगे। वाइसराय मिण्टो भारत में, ख़ासकर बंगाल में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की लहर को दबाने के लिए कोई न कोई उपाय खोज रहा था। उसने सोचा हिन्दू और मुसलमानों में फूट पैदा कर देना सरकार के लिए लाभदायक होगा। इसी नीयत से लार्ड मिण्टो द्वितीय की सरकार ने मुसलमानों की माँग फौरन माल ली और 1909 ई. के भारतीय शासन-विधान में 'इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल' के निर्वाचन के लिए छह विशेष मुस्लिम ज़मींदार निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की। प्रान्तों के लिए भी इसी तरह अलग निर्वाचन क्षेत्र बनाये गए।

साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग

अंग्रेज़ों का यह क़दम षड्यंत्र से भरा हुआ था और इसे ठीक ही 'पाकिस्तान का बीजारोपड़' कहा गया है। अंग्रेज़ों का गुप्त समर्थन पाकर मुसलमानों की पृथक् साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की माँग आने वाले वर्षों में ज़ोर पकड़ती गई और इसे स्वीकार कर लिया गया। तीसरे दशक में भारतीय शासन-विधान में जब संशोधन किये जाने वाले थे, साम्प्रदायिकता के आधार पर विशेष प्रतिनिधित्व देने की माँग न केवल मुसलमानों वरन् सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी और जनजातियों की तरफ़ से भी उठाई गई। भारतीयों की एकता को नष्ट करने वाली यह फूट उस समय सामने आ गई थी, लेकिन भारतीय आपस में कोई समझौता न कर सके।

रैमजे मैकडोनाल्ड का निर्णय

लन्दन में इस प्रश्न पर विचार करने के लिए लगातार तीन गोलमेज सम्मेलन हुए, जिनका कोई नतीजा नहीं निकला। ऐसी स्थिति में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड को 'फूट डालो और शासन करो' के सिद्धान्त को कार्यरूप में परिणत करने का उत्तम अवसर प्राप्त हो गया। उसने 4 अगस्त, 1932 ई. को 'साम्प्रदायिक निर्णय' घोषित किया। यह पंच-फ़ैसला नहीं, भारतीय जनता पर थोपा गया आदेश था, क्योंकि कांग्रेस ने इसके लिए कभी माँग नहीं की थी। इस निर्णय में भारतीयों में न केवल धर्म, वरन् जाति के आधार पर भी विभाजन को मान्यता दी गई और हिन्दुओं के दलित वर्गों को भी पृथक् प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। यह व्यवस्था अत्यन्त शरारतपूर्ण थी, क्योंकि इसका उद्देश्य हिन्दुओं को हमेशा के लिए दो टुकड़ों में बाँट देना था।

प्रमुख प्रावधान

साम्प्रदायिक निर्णय के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार थे-

  1. प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं की सदस्य संख्या को दो गुना करने की योजना।
  2. मुसलमान, सिक्खों एवं भारतीय ईसाइयों के साथ हरिजनों के लिए भी हिन्दुओं से अलग निर्वाचन तथा प्रतिनिधित्व की व्यवस्था।

भारत का विभाजन

महात्मा गांधी ने इस निर्णय के विरुद्ध जब आमरण अनशन किया, तब 24 सितम्बर, 1932 ई. को पूना पैक्ट (समझौता) के द्वारा उसमें संशोधन किया गया। इसके अनुसार दलित वर्गों को हिन्दुओं का अभिन्न अंग माना गया, लेकिन फिर भी देश के विधानमण्डलों में उन्हें सामान्य तथा विशिष्ट दोनों प्रकार का प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। साम्प्रदायिक निर्णय ने जहाँ विभिन्न राज्य विधानमण्डलों में दलित वर्गों के लिए 73 सीटें आवंटित की, वहीं पूना में पैक्ट ने उन्हें केन्द्रीय विधानमण्डल में 148 विशिष्ट सीटें और 18 प्रतिशत सामान्य सीटें आवंटित कीं। मुसलमानों की सीटें अपरिवर्तित रहीं। इस प्रकार भारतीय निश्चित रूप से दो समुदायों में बँट गये और उसका परिणाम अंतत: यह निकला कि 1947 ई. में भारत का विभाजन करना पड़ा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 468।

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