सावित्री धर्मराज के प्रश्नोत्तर

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सावित्री को वरदान

(ब्रह्म वैवर्त पुराण)
भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! सावित्री के वचन सुनकर यमराज के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हँसकर प्राणियों के कर्मविपाक कहने के लिये उद्यत हो गये।

धर्मराज ने कहा- प्यारी बेटी! अभी तुम हो तो अल्प वय की बालिका, किंतु तुम्हें पूर्ण विद्वानों, ज्ञानियों और योगियों से भी बढ़कर ज्ञान प्राप्त है। पुत्री! भगवती सावित्री के वरदान से तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम उन देवी की कला हो। राजा ने तपस्या के प्रभाव से सावित्री-जैसी कन्यारत्न को प्राप्त किया है। जिस प्रकार लक्ष्मी भगवान् विष्णु के, भवानी शंकर के, राधा श्रीकृष्ण के, सावित्री ब्रह्मा के, मूर्ति धर्म के, शतरूपा मनु के, देवहूति कर्दम के, अरून्धती वसिष्ठ के, अदिति कश्यप के, अहिल्या गौतम के, शची इन्द्र के, रोहिणी चन्द्रमा के, रति कामदेव के, स्वाहा अग्नि के, स्वधा पितरों के, संज्ञा सूर्य के, वरुणानी वरुण के, दक्षिण यज्ञ के, पृथ्वी वराह के और देवसेना कार्तिकेय के पास सौभाग्यवती प्रिया बनकर शोभा पाती हैं, तुम भी वैसी ही सत्यवान् की प्रिया बनो। मैंने यह तुम्हें वर दे दिया। महाभागे! इसके अतिरिक्त भी जो तुम्हें अभीष्ट हो, वह वर माँगो। मैं तुम्हें सभी अभिलाषित वर देने को तैयार हूँ।

सावित्री बोली- महाभाग! सत्यवान् के औरस अंश से मुझे सौ पुत्र प्राप्त हों- यही मेरा अभिलषित वर है। साथ ही, मेरे पिता भी सौ पुत्रों के जनक हों। मेरे श्वशुर को नेत्र-लाभ हों और उन्हें पुन: राज्यश्री प्राप्त हो जाय, यह भी मैं चाहती हूँ। जगत्प्रभो! सत्यवान् के साथ मैं बहुत लंबे समय तक रहकर अन्त में भगवान् श्रीहरि के धाम में चली जाऊँ, यह वर भी देने की आप कृपा करें।

प्रभो! मुझे जीव के कर्मका विपाक तथा विश्वसे तर जाने का उपाय भी सुनने के लिये मनमें महान् कौतूहल हो रहा है; अत: आप यह भी बतावें।

धर्मराज ने कहा- महासाध्वि! तुम्हारे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे। अब में प्राणियों का कर्म-विपाक कहता हूँ, सुनो। भारतवर्ष में ही शुभ-अशुभ कर्मों का जन्म होता है- यहीं के कर्मों को 'शुभ' या 'अशुभ' की संज्ञा दी गयी है। यहाँ सर्वत्र पुण्यक्षेत्र है, अन्यत्र नहीं; अन्यत्र प्राणी केवल कर्मों का फल भोगते हैं। पतिव्रते! देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा मनुष्य- ये सभी कर्म के फल भोगते हैं। परंतु सबका जीवन समान नहीं है। उनमें से मानव ही कर्म का जनक होता है अर्थात् मनुष्ययोनिमें ही शुभाशुभ कर्म किये जाते हैं; जिनका फल सर्वत्र सभी योनियों में भोगना पड़ता है। विशिष्ट जीवधारी- विशेषत: मानव ही सब योनियों में कर्मों का फल भोगते हैं और सभी योनियों में भटकते हैं। वे पूर्व-जन्म का किया हुआ शुभाशुभ कर्म भोगते हैं। शुभ कर्म के प्रभाव से वे स्वर्गलोक में जाते हैं और अशुभ कर्म से उन्हें नरक में भटकना पड़ता है। कर्म का निर्मूलन हो जाने पर मुक्ति होती है। साध्वि! मुक्ति दो प्रकार की बतलायी गयी है- एक निर्वाणस्वरूपा और दूसरी परमात्मा श्रीकृष्ण की सेवारूपा। बुरे कर्म से प्राणी रोगी होता है और शुभ कर्म से आरोग्यवान्। वह अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार दीर्घजीवी, अल्पायु, सुखी एवं दु:खी होता है। कुत्सित कर्म से ही प्राणी अंगहीन, अंधे-बहरे आदि होते हैं। उत्तम कर्म के फलस्वरूप सिद्धि आदि की प्राप्ति होती है।

देवि! सामान्य बातें बतायी गयीं; अब विशेष बातें सुनो। सुन्दरि! यह अतिशय दुर्लभ विषय शास्त्रों और पुराणों में वर्णित है। इसे सबके सामने नहीं कहना चाहिये। सभी जातियों के लिये भारतवर्ष में मनुष्य का जन्म पाना परम दुर्लभ है। साध्वि! उन सब जातियों में ब्राह्मण श्रेष्ठ माना जाता है। वह समस्त कर्मों में प्रशस्त होता है। भारतवर्ष में विष्णुभक्त ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ है। पतिव्रते! वैष्णव के भी दो भेद हैं- सकाम और निष्काम। सकाम वैष्णव कर्म प्रधान होता है और निष्काम वैष्णव केवल भक्त। सकाम वैष्णव कर्मों का फल भोगता है और निष्काम वैष्णव शुभाशुभ भोग के उपद्रव से दूर रहता है।

धर्म का पालन

साध्वि! ऐसा निष्काम वैष्णव शरीर त्यागकर भगवान् विष्णु के निरामय पद को प्राप्त कर लेता है। ऐसे निष्काम वैष्णवों का संसार में पुनरागमन नहीं होता। द्विभुज भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णब्रह्म परमेश्वर हैं। उनकी उपासना करने वाले भक्तपुरुष अन्त में दिव्य शरीर धारण करके गोलोक में जाते हैं। सकाम वैष्णव पुरुष उच्च वैष्णव लोकों में जाकर समयानुसार पुन: भारतवर्ष में लौट आते हैं। द्विजातियों के कुल में उनका जन्म होता है। वे भी कालक्रम से निष्काम भक्त बन जाते और भगवान् उन्हें निर्मल भक्ति भी अवश्य देते हैं। वैष्णव ब्राह्मण से भिन्न जो सकाम मनुष्य हैं, वे विष्णुभक्ति से रहित होने के कारण किसी भी जन्म में विशुद्ध बुद्धि नहीं पा सकते। साध्वि! जो तीर्थस्थान में रहकर सदा तपस्या करते हैं, वे द्विज ब्रह्मा के लोक में जाते हैं और पुण्यभोग के पश्चात् पुन: भारतवर्ष में आ जाते हैं। भारत में रहकर अपने कर्तव्य-कर्मों में संलग्न रहने वाले ब्राह्मण तथा सूर्यभक्त शरीर त्यागने पर सूर्यलोक में जाते हैं और पुण्यभोग के पश्चात् पुन: भारतवर्ष में जन्म पाते हैं। अपने धर्म में निरत रहकर शिव, शक्ति तथा गणपति की उपासना करने वाले ब्राह्मण शिवलोक में जाते हैं; फिर उन्हें लौटकर भारतवर्ष में आना पड़ता है। जो धर्मरहित होने पर भी निष्कामभाव से श्रीहरि का भजन करते हैं, वे भी भक्ति के बल से श्रीहरि के धाम में चले जाते हैं।

साध्वि! जो अपने धर्म का पालन नहीं करते, वे आचारहीन, कामलोलुप लोग अवश्य ही नरक में जाते हैं। चारों ही वर्ण अपने धर्म में कटिबद्ध रहने पर ही शुभकर्म का फल भोगने के अधिकारी होते हैं। जो अपना कर्तव्य-कर्म नहीं करते, वे अवश्य ही नरक में जाते हैं। कर्म का फल भोगने के लिये वे भारतवर्ष में नहीं आ सकते। अतएव चारों वर्णों के लिये अपने धर्म का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है।

निष्कामभाव

अपने धर्म में संलग्न रहनेवाले ब्राह्मण, स्वधर्मनिरत विप्र को अपनी कन्या देने के फलस्वरूप चन्द्रलोक को जाते हैं और वहाँ चौदह मन्वन्तर काल तक रहते हैं। साध्वि! यदि कन्या को अलंकृत करके दान में दिया तू उससे दुगुना फल प्राप्त होता है। उन साधु पुरुषों में यदि कामना हो तब तो वे चन्द्रमा के लोक में जाते हैं। निष्कामभाव से दान करें तो वे भगवान् विष्णु के परम धाम में पहुँच जाते हैं। गव्य (दूध), चाँदी, सुवर्ण, वस्त्र, घृत, फल और जल ब्राह्मणों को देने वाले पुण्यात्मा पुरुष चन्द्रलोक में जाते हैं। साध्वि! एक मन्वन्तरतक वे वहाँ सुविधापूर्वक निवास करते हैं। उस दान के प्रभाव से उन्हें वहाँ सुदीर्घ काल तक निवास प्राप्त होता है। पतिव्रते! पवित्र ब्राह्मण को सुवर्ण, गौ और ताम्र आदि द्रव्य का दान करने वाले सत्पुरुष सूर्यलोक में जाते हैं। वे भय-बाधा से शून्य हो, उस विस्तृत लोक में सुदीर्घ काल तक वास करते हैं। जो ब्राह्मणों को पृथ्वी अथवा प्रचुर धान्य दान करता है, वह भगवान् विष्णु के परम सुन्दर श्वेतद्वीप में जाता है और दीर्घकाल तक वहाँ वास करता है। भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को गृह-दान करने वाले पुरुष स्वर्गलोक में जाते और वहाँ दीर्घकाल तक निवास करते हैं; वे उस लोक में उतने वर्षों तक रहते हैं, जितनी संख्या में उस दान-गृह के रज:कण हैं। मनुष्य जिस-जिस देवता के उद्देश्य से गृह-दान करता है, अन्त में उसी देवता के लोक में जाता है और घर में जितने धूलिकण हैं, उतने वर्षों तक वहाँ रहता है। अपने घर पर दान करने की अपेक्षा देव मन्दिर में दान करने से चौगुना, पूर्तकर्म (वापी, कूप, तड़ाग आदि के निर्माण)- के अवसर पर करने से सौगुना तथा किसी श्रेष्ठ तीर्थस्थान में करने से आठ गुना फल होता है- यह ब्रह्माजी का वचन है।

दान, शुभ और अशुभ कर्मों का फल

समस्त प्राणियों के उपकार के लिये तड़ाग का दान करने वाला दस हज़ार वर्षों की अवधि लेकर जनलोक में जाता है। बावली का दान करने से मनुष्य को सदा सौगुना फल मिलता है। वह सेतु (पुल)- का दान करने पर तड़ाग के दान का भी पुण्यफल प्राप्त कर लेता है। तड़ाग का प्रमाण चार हज़ार धनुष चौड़ा और उतना ही लंबा निश्चित किया गया है। इससे जो लघु प्रमाण में है, वह वापी कही जाती है। सत्पात्र को दी हुई कन्या दस वापी के समान पुण्यप्रदा होती है। यदि उस कन्या को अलंकृत करके दान किया जाय तो दुगुना फल मिलता है। तड़ाग के दान से जो पुण्यफल प्राप्त होता है, वही उसके भीतर से कीचड़ और मिट्टी निकालने से सुलभ हो जाता है। वापी के कीचड़ को दूर कराने से उसके निर्माण कराने-जितना फल होता है। पतिव्रते! जो पुरुष पीपल का वृक्षा लगाकर उसकी प्रतिष्ठा करता है, वह हज़ारों वर्षों के लिये भगवान् विष्णु के तपोलोक में जाता है।

सावित्री! जो सबकी भलाई के लिये पुष्पोद्यान लगाता है, वह दस हज़ार वर्षों तक ध्रुवलोक में स्थान पाता है। पतिव्रते! विष्णु के उद्देश्य से विमान का दान करने वाला मानव एक मन्वन्तरतक विष्णुलोक में वास करता है। यदि वह विमान विशाल और चित्रों से सुसज्जित किया गया हो तो उसके दान से चौगुना फल प्राप्त होता है। शिविका-दान में उससे आधा फल होना निश्चित है। जो पुरुष भक्तिपूर्वक भगवान् श्रीहरि के उद्देश्य से मन्दिराकार झूला दान करता है, वह अति दीर्घकाल तक भगवान् विष्णु के लोक में वास करता है। पतिव्रते! जो सड़क बनवाता और उसके किनारे लोगों के ठहरने के लिये महल (धर्मशाला) बनवा देता है, वह सत्पुरुष हज़ारों वर्षों तक इन्द्र के लोक में प्रतिष्ठित होता है। ब्राह्मणों अथवा देवताओं को दिया हुआ दान समान फल प्रदान करता है। जो पूर्वजन्म में दिया गया है, वही जन्मान्तर में प्राप्त होता है। जो नहीं दिया गया है, वह कैसे प्राप्त हो सकता है? पुण्यवान् पुरुष स्वर्गीय सुख भोगकर भारतवर्ष में जन्म पाता है। उसे क्रमश: उत्तम-से-उत्तम ब्राह्मण-कुल में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त होता है। पुण्यवान् ब्राह्मण स्वर्गसुख भोगने के अनन्तर पुन: ब्राह्मण ही होता है। यही नियम क्षत्रिय आदि के लिये भी है। क्षत्रिय अथवा वैश्य तपस्या के प्रभाव से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेता है- ऐसी बात श्रुति में सुनी जाती है। धर्मरहित ब्राह्मण नाना योनियों में भटकते हैं और कर्मभोग के पश्चात् फिर ब्राह्मणकुल में ही जन्म पाते हैं। कितना ही काल क्यों न बीत जाय, बिना भोग किये कर्म क्षीण नहीं हो सकते। अपने किये हुए शुभ और अशुभ कर्मों का फल प्राणियों को अवश्य भोगना पड़ता है। देवता और तीर्थ की सहायता तथा कायव्यूह से प्राणी शुद्ध हो जाता है।

साध्वि! ये कुछ बातें तो तुम्हें बतला दीं, अब आगे और क्या सुनना चाहती हो? (अध्याय 26)

धर्मराज की व्याख्या तथा सावित्री द्वारा धर्मराज को प्रणाम-निवेदन

सावित्री ने कहा- धर्मराज! जिस कर्म के प्रभाव से पुण्यात्मा मनुष्य स्वर्ग अथवा अन्य लोक में जाते हैं, वह मुझे बताने की कृपा करें।

दान

धर्मराज बोले- पतिव्रते! ब्राह्मण को अन्न दान करने वाला पुरुष इन्द्रलोक में जाता है और दान किये हुए अन्न में जितने दाने होते हैं उतने वर्षों तक वह वहाँ निवास पाता है। अन्नदान से बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ है और न होगा। इसमें न कभी पात्र की परीक्षा की आवश्यकता होती है और न समय की[1]। साध्वि! यदि ब्राह्मणों अथवा देवताओं को आसन दान किया जाय तो हज़ारों वर्षों तक अग्निदेव के लोक में रहने की सुविधा प्राप्त हो जाती है। जो पुरुष ब्राह्मण को दूध देने वाली गौ दान करता है, वह गौके शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षों तक वैकुण्ठलोक में प्रतिष्ठित रहता है। यह गोदान साधारण दिनों की अपेक्षा पर्व के समय चौगुना, तीर्थ में सौगुना और नारायण क्षेत्र में कोटिगुना फल देने वाला होता है। जो मानव भारतवर्ष में रहकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को गौ प्रदान करता है, वह हज़ारों वर्षों तक चन्द्रलोक में रहने का अधिकारी बन जाता है। दुग्धवती गौ ब्राह्मण को देने वाला पुरुष उसके रोम पर्यन्त वर्षों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो ब्राह्मण को वस्त्रसहित शालिग्राम-शिला का दान करता है, वह चन्द्रमा और सूर्य के स्थितिकाल तक वैकुण्ठ में सम्मान पूर्वक रहता है। ब्राह्मण को सुन्दर स्वच्छ छत्र दान करने वाला व्यक्ति हज़ारों वर्षों तक वरुण के लोक में आनन्द करता है। साध्वि! जो ब्राह्मण को दो पादुकाएँ प्रदान करता है, उसे दस हज़ार वर्ष तक वायुलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। मनोहर दिव्य शय्या ब्राह्मण को देने से दीर्घ काल तक चन्द्रलोक में प्रतिष्ठा होती है। जो देवताओं अथवा ब्राह्मणों को दीप-दान करता है, वह ब्रह्मलोक में वास करता है। उस पुण्य से उसके नेत्रों में ज्योति बनी रहती है तथा वह यमलोक में नहीं जाता। भारतवर्ष में जो मनुष्य ब्राह्मण को हाथी दान करता है, वह इन्द्र की आयुपर्यन्त उनके आधे आसन पर विराजमान होता है। ब्राह्मण को घोड़ा देने वाला भारतवासी मनुष्य वरुणलोक में आनन्द करता है। ब्राह्मण को उत्तम शिविका- पालकी प्रदान करने वाला विष्णुलोक में जाता है। जो ब्राह्मण को पंखा तथा सफ़ेद चँवर अर्पण करता है, वह वायुलोक में सम्मान पाता है। जो भारतवर्ष में ब्राह्मण को धान का पर्वत देता है, वह धान के दानों के बराबर वर्षों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। दाता और प्रतिगृहीता दोनों ही वैकुण्ठलोक में चले जाते हैं।

जो भारतवर्ष में निरन्तर भगवान् श्रीहरि के नाम का कीर्तन करता है, उस चिरञ्चीवी मनुष्य को देखते ही मृत्यु भाग जाती है। भारतवर्ष में जो विद्वान् मनुष्य पूर्णिमा को रातभर दोलोत्सव मनाने का प्रबन्ध करता है, वह जीवन्मुक्त है। इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह भगवान् विष्णु के धाम को प्राप्त होता है। उत्तराफाल्गुनी में उत्सव मनाने से इससे दुगुना फल मिलता है। जो भारतवर्ष में ब्राह्मण को तिलदान करता है, वह तिल के बराबर वर्षों तक विष्णुधाम में सम्मान पाता है। उसके बाद उत्तम योनि में जन्म पाकर चिरजीवी हो सुख भोगता है। ताँबे के पात्र में तिल रखकर दान करने से दूना फल मिलता है। जो मनुष्य ब्राह्मण को फलयुक्त वृक्ष प्रदान करता है, वह फल के बराबर वर्षों तक इन्द्रलोक में सम्मान पाता है। फिर उत्तम योनि में जन्म पाकर वह सुयोग्य पुत्र प्राप्त करता है। फल वाले वृक्षों के दान की महिमा इससे हज़ार गुना अधिक बतायी गयी है। अथवा ब्राह्मण को केवल फल का भी दान करने वाला पुरुष दीर्घकाल तक स्वर्ग में वास करके पुन: भारतवर्ष में जन्म पाता है।


भारतवर्ष में रहनेवाला जो पुरुष अनेक द्रव्यों से सम्पन्न तथा भाँति-भाँति के धान्यों से भरे-पूरे विशाल भवन ब्राह्मण को दान करता है, वह उसके फलस्वरूप दीर्घकाल तक कुबेर के लोक में वास पाता है। तत्पश्चात् उत्तम योनि में जन्म पाकर वह महान् धनवान् होता है। साध्वि! हरी-भरी खेती से युक्त सुन्दर भूमि भक्तिपूर्वक ब्राह्मण को अर्पण करने वाला पुरुष निश्चयपूर्वक वैकुण्ठधाम में प्रतिष्ठित होता है। फिर, जहाँ की उत्तम प्रजाएँ हों, जहाँ की भूमि पकी हुई खेतियों से लहलहा रही हो, अनेक प्रकार की पुष्करिणियों से संयुक्त हो तथा फल वाले वृक्ष और लताएँ जिसकी शोभा बढ़ा रही हों, ऐसा श्रेष्ठ नगर जो पुरुष भारतवर्ष में ब्राह्मण को दान करता है, वह बहुत लंबे समय पर्यन्त वैकुण्ठधाम में सुप्रतिष्ठित होता है। फिर भारतवर्ष में उत्तम जन्म पाकर राजेश्वर होता है। उसे लाखों नगरों का प्रभुत्व प्राप्त होता है। इसमें संशय नहीं है। निश्चितरूप से सम्पूर्ण ऐश्वर्य भूमण्डल पर उसके पास विराजमान रहते हैं।

अत्यन्त उत्तम अथवा मध्यम श्रेणी का भी नगर प्रजाओं से सम्पन्न हो, वापी, तड़ाग तथा भाँति-भाँति के वृक्ष जिसकी शोभा बढ़ाते हों, ऐसे सौ नगर ब्राह्मण को दान करने वाला पुण्यात्मा वैकुण्ठलोक में सुप्रतिष्ठित होता है। जैसे इन्द्र सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न होकर स्वर्गलोक में शोभा पाते हैं, वैसे ही भूमण्डल पर उस पुरुष की शोभा होती है। दीर्घ काल तक पृथ्वी उसका साथ नहीं छोड़ती। वह महान् सम्राट् होता है। अपना सम्पूर्ण अधिकार ब्राह्मण को देने वाला पुरुष चौगुने फल का भागी होता है; इसमें संशय नहीं है। पतिव्रते! जो पुरुष ब्राह्मण को जम्बूद्वीप का दान करता है, उसे निश्चितरूप से सौगुने फल प्राप्त होते हैं। जो सातों द्वीपों की पृथ्वी का दान करने वाले, सम्पूर्ण तीर्थों में निवास करने वाले, समस्त तपस्याओं में संलग्न, सम्पूर्ण उपवास-व्रत के पालक, सर्वस्व दान करने वाले तथा सम्पूर्ण सिद्धियों के पारगंत तथा श्रीहरि के भक्त हैं, उन्हें पुन: जगत् में जन्म धारण करना नहीं पड़ता। उनके सामने असंख्य ब्रह्माओं का पतन हो जाता है, परंतु वे श्रीहरि के गोलोक या वैकुण्ठधाम में निवास करते रहते हैं। विष्णु-मन्त्र की उपासना करने वाले पुरुष अपने मानव शरीर का त्याग करने के पश्चात् जन्म, मृत्यु एवं जरा से रहित दिव्य रूप धारण करे श्रीहरि का सारूप्य पाकर उनकी सेवा में संलग्न हो जाते हैं। देवता, सिद्ध तथा अखिल विश्व- ये सब-के-सब समयानुसार नष्ट हो जाते हैं, किंतु श्रीकृष्णभक्तों का कभी नाश नहीं होता। जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था उनके निकट नहीं आ सकती।

जो पुरुष कार्तिक मास में श्रीहरि को तुलसी अर्पण करता है, वह पत्र-संख्याके बराबर युगों तक भगवान् के धाम में विराजमान होता है। फिर उत्तम कुल में उसका जन्म होता और निश्चितरूप से भगवान् के प्रति उसके मन में भक्ति उत्पन्न होती है, वह भारत मं सुखी एवं चिरञ्चीवी होता है। जो कार्तिक में श्रीहरि को घीका दीप देता है, वह जितने पल दीपक जलता है, उतने वर्षों तक हरिधाम में आनन्द भोगता है। फिर अपनी योनि में आकर विष्णुभक्ति पाता है; महाधनवान् नेत्र की ज्योति से युक्त तथा दीप्तिमान् होता है। जो पुरुष माघ में अरुणोदय के समय प्रयाग की गंगा में स्नान करता है, उसे दीर्घकाल तक भगवान् श्रीहरि के मन्दिर में आनन्द लाभ करने का सुअवसर मिलता है। फिर वह उत्तम योनि में आकर भगवान् श्रीहरि की भक्ति एवं मन्त्र पाता है; भारत में जितेन्द्रियशिरोमणि होता है। पुन: यथा समय मानव-शरीर को त्यागकर 'भगवद्धाम' में जाता है। वहाँ से पुन: पृथ्वीतल पर आने की स्थिति उसके सामने नहीं आती। भगवान् का सारूप्य प्राप्त कर वह उन्हीं की सेवा में सदा लगा रहता है। गंगा में सर्वदा स्नान करने वाला पुरुष सूर्य की भाँति भूमण्डल पर पवित्र माना जाता है। उसे पद-पदपर अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है, यह निश्चित है। उसकी चरण-रज से पृथ्वी तत्काल पवित्र हो जाती है। वह वैकुण्ठलोक में सुखपूर्वक निवास करता है। उस तेजस्वी पुरुष को जीवन्मुक्त कहना चाहिये। सम्पूर्ण तपस्वी उसका आदर करते हैं। जो पुरुष मीन और कर्क के मध्यवर्तीकाल में भारतवर्ष में सुवासित जल का दान करता है, वह वैकुण्ठ में आनन्द भोगता रहता है। फिर उत्तम योनि में जन्म पाकर रूपवान्, सुखी, शिवभक्त, तेजस्वी तथा वेद और वेदांग का पारगामी विद्वान् होता है। वैशाख मास में ब्राह्मण को सत्तू दान करने वाला पुरुष सत्तूकण के बराबर वर्षों तक विष्णु मन्दिर में प्रतिष्ठित होता है।

व्रत

भारतवर्ष में रहने वाला जो प्राणी श्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह सौ जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें संशय नहीं है। वह दीर्घकाल तक वैकुण्ठलोक में आनन्द भोगता है। फिर उत्तम योनि में जन्म लेने पर उसे भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति उत्पन्न हो जाती है- यह निश्चित है। इस भारतवर्ष में ही शिवरात्रि का व्रत करने वाला पुरुष दीर्घकाल तक शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो शिवरात्रि के दिन भगवान् शंकर को बिल्वपत्र चढ़ाता है, वह पत्र-संख्या के बराबर युगों तक कैलास में सुखपूर्वक वास करता है। पुन: श्रेष्ठ योनि में जन्म लेकर भगवान् शिव का परम भक्त होता है। विद्या, पुत्र, सम्पत्ति, प्रजा और भूमि- ये सभी उसके लिये सुलभ रहते हैं। जो व्रती पुरुष जैत्र अथवा माघ मास में शंकर की पूजा करता है तथा बेंत लेकर उनके सम्मुख रात-दिन भक्ति पूर्वक नृत्य करने में तत्पर रहता है, वह चाहे एक मास, आधा मास, दस दिन, सात दिन अथवा दो ही दिन या एक ही दिन ऐसा क्यों न करे, उसे दिन की संख्या के बराबर युगों तक भगवान् शिव के लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाती है।

साध्वि! जो मनुष्य भारत में रामनवमी का व्रत करता है, वह सात मन्वन्तरों तक विष्णुधाम में आनन्द का अनुभव करता है, फिर अपनी योनि में आकर रामभक्ति पाता और जितेन्द्रियशिरोमणि होता है। जो पुरुष भगवती की शरत्कालीन महापूजा करता है; साथ ही नृत्य, गीत तथा वाद्य आदि के द्वारा नाना प्रकार के उत्सव मनाता है, वह पुरुष भगवान् शिव के लोक में प्रतिष्ठित होता है। फिर श्रेष्ठ योनि में जन्म पाकर वह निर्मल बुद्धि पाता है। अतुल सम्पत्ति, पुत्र-पौत्रों की अभिवृद्धि, महान् प्रभाव तथा हाथी-घोड़े आदि वाहन- ये सभी उसे प्राप्त हो जाते हैं। वह राजराजेश्वर भी होता है। इसमें कोई संशय नहीं है। जो पुरुष पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में रहकर भाद्रपद मास की शुक्लाष्टमी के अवसर पर एक पक्ष तक नित्य भक्ति-भाव से महालक्ष्मी जी की उपासना करता है, सोलह प्रकार के उत्तम उपचारों से भलीभाँति पूजा करने में संलग्र रहता है, वह वैकुण्ठधाम में रहने का अधिकारी होता है।

भारतवर्ष में कार्तिक की पूर्णिमा के अवसर पर सैकड़ों गोप एवं गोपियों को साथ लेकर रासमण्डल सम्बन्धी उत्सव मनाने की बड़ी महिमा है। उस दिन पाषाणमयी प्रतिमा में सोलह प्रकार के उपचारों द्वारा श्रीराधा-कृष्ण की पूजा करे। इस पुण्यमय कार्य को सम्पन्न करने वाला पुरुष गोलोक में वास करता है और भगवान् श्रीकृष्ण का परम भक्त बनता है। उसकी भक्ति क्रमश: वृद्धि को प्राप्त होती है। वह सदा भगवान् श्रीहरि का मन्त्र जपता है। वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के समान रूप प्राप्त करके उनका प्रमुख पार्षद होता है। जरा और मृत्यु को जीतने वाले उस पुरुष का पुन: वहाँ से पतन नहीं होता।

जो पुरुष शुक्ल अथवा कृष्ण-पक्ष की एकादशी का व्रत करता है, उसे वैकुण्ठ से रहने की सुविधा प्राप्त होती है। फिर भारतवर्ष में आकर वह भगवान् श्रीकृष्ण का अनन्य उपासक होता है। क्रमश: भगवान् श्रीहरि के प्रति उसकी भक्ति सुदृढ़ होती जाती है। शरीर त्यागने के बाद पुन: गोलोक में जाकर वह भगवान् श्रीकृष्ण का सारूप्य प्राप्त करके उनका पार्षद बन जाता है। पुन: उसका संसार में आना नहीं होता। जो पुरुष भाद्रपदमास की शुक्ल द्वादशी तिथि के दिन इन्द्र की पूजा करता है, वह सम्मानित होता है। जो प्राणी भारतवर्ष में रहकर रविवार, संक्रान्ति अथवा शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को भगवान् सूर्य की पूजा करके हविष्यान्न भोजन करता है, वह सूर्यलोक में विराजमान होता है। फिर भारतवर्ष में जन्म पाकर आरोग्यवान् और धनाढय पुरुष होता है। ज्येष्ठ महीने की कृष्ण-चतुर्दशी के दिन जो व्यक्ति भगवती सावित्री की पूजा करता है, वह ब्रह्मा के लोक में प्रतिष्ठित होता है। फिर वह पृथ्वी पर आकर श्रीमान् एवं अतुल पराक्रमी पुरुष होता है। साथ ही वह चिरंजीवी, ज्ञानी और वैभव सम्पन्न होता है। जो मानव माघमास के शुक्लपक्ष की पञ्चमी तिथि के दिन संयमपूर्वक उत्तम भक्ति के साथ षोडशोपचार से भगवती सरस्वती की अर्चना करता है, वह वैकुण्ठधाम में स्थान पाता है। जो भारतवासी व्यक्ति जीवनभर भक्ति के साथ नित्यप्रति ब्राह्मण को गौ और सुवर्ण आदि प्रदान करता है, वह वैकुण्ठ में सुख भोगता है। भारतवर्ष में जो प्राणी ब्राह्मणों को मिष्टान्न भोजन कराता है, वह ब्राह्मण की रोम संख्या के बराबर वर्षों तक विष्णुलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। जो भारतवासी व्यक्ति भगवान् श्रीहरि के नामका स्वयं कीर्तन करता है अथवा दूसरे को कीर्तन करने के लिये उत्साहित करता है, वह नाम-संख्या के बराबर युगों तक वैकुण्ठ में विराजमान होता हैं यदि नारायण क्षेत्र में नामोच्चारण किया जाय तो करोड़ों गुना अधिक फल मिलता है। जो पुरुष नारायण क्षेत्र में भगवान् श्रीहरि के नाम का एक करोड़ जप करता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूटकर जीवन्मुक्त हो जाता है- यह ध्रुव सत्य है। वह पुन: जन्म न पाकर विष्णुलोक में विराजमान होता है[2]। उसे भगवान् सारूप्य प्राप्त हो जाता है। वहाँ से फिर गिर नहीं सकता।

जो पुरुष प्रतिदिन पार्थिव मूर्ति बनाकर शिवलिंग की अर्चना करता है और जीवन भर इस नियम का पालन करता है, वह भगवान शिव के धाम में जाता है और लंबे समय तक शिवलोक में प्रतिष्ठित रहता है; तत्पश्चात् भारतवर्ष में आकर राजेन्द्रपद को सुशोभित करता है। निरन्तर शालिग्राम की पूजा करके उनका चरणोदक पान करने वाला पुण्यात्मा पुरुष अति दीर्घकाल पर्यन्त वैकुण्ठ में विराजमान होता है। उसे दुर्लभ भक्ति सुलभ हो जाती है। संसार में उसका पुन: आना नहीं होता। जिसके द्वारा सम्पूर्ण तप और व्रत का पालन होता है, वह पुरुष इन सत्कर्मों के फलस्वरूप वैकुण्ठ में रहने का अधिकार पाता हैं पुन: उसे जन्म नहीं लेना पड़ता। जो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करके पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता है, उसे निर्वाणपद मिल जाता है। पुन: संसार में उसकी उत्पत्ति नहीं होती।

यज्ञ

भारत-जैसे पुण्यक्षेत्र में जो अश्वमेधयज्ञ करता है, वह दीर्घकाल तक इन्द्र के आधे आसन पर विराजमान रहता है। राजसूय यज्ञ करने से मनुष्य को इससे चौगुना फल मिलता है। सुन्दरि! सम्पूर्ण यज्ञों से भगवान् विष्णु का यज्ञ श्रेष्ठ कहा गया है। ब्रह्मा ने पूर्वकाल में बड़े समारोह के साथ इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। पतिव्रते! उसी यज्ञ में दक्ष प्रजापति और शंकर में कलह मच गया था। ब्राह्मणों ने क्रोध में आकर नन्दी को शाप दिया था और नन्दी ने ब्राह्मणों को। यही कारण है कि भगवान् शंकर ने दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर डाला। पूर्वकाल में दक्ष, धर्म, कश्यप, शेषनाग, कर्दममुनि, स्वायम्भुवमनु, उनके पुत्र प्रियव्रत, शिव, सनत्कुमार, कपिल तथा ध्रुव ने विष्णुयज्ञ किया था। उसके अनुष्ठान से हज़ारों राजसूय यज्ञों का फल निश्चितरूप से मिल जाता है। वह पुरुष अवश्य ही अनेक कल्पों तक जीवन धारण करने वाला तथा जीवन्मुक्त होता है।

भामिनि! जिस प्रकार देवताओं में विष्णु, वैष्णवपुरुषों में शिव, शास्त्रों में वेद, वर्णों में ब्राह्मण, तीर्थों में गंगा, पुण्यात्मा पुरुषों में वैष्णव, व्रतों में एकादशी, पुष्पों में तुलसी, नक्षत्रों में चन्द्रमा, पक्षियों में गरुड़, स्त्रियों में भगवती मूलप्रकृति राधा, आधारों में वसुन्धरा, चंचल स्वभाववाली इन्दियों में मन, प्रजापतियों में ब्रह्मा, प्रजेश्वरों में प्रजापति, वनों में वृन्दावन, वर्षों में भारतवर्ष, श्रीमानों में लक्ष्मी, विद्वानों में सरस्वती देवी, पतिव्रताओं में भगवती दुर्गा और सौभाग्यवती श्रीकृष्ण पत्नियों में श्रीराधा सर्वोपरि मानी जाती हैं; उसी प्रकार सम्पूर्ण यज्ञों में विष्णुयज्ञ श्रेष्ठ माना जाता है। सम्पूर्ण तीर्थों का स्नान, अखिल यज्ञों की दीक्षा तथा व्रतों एवं तपस्याओं और चारों वेदों के पाठ का तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा का फल अन्त में यही है कि भगवान् श्रीकृष्ण की मुक्तिदायिनी सेवा सुलभ हो। पुराणों, वेदों और इतिहास में सर्वत्र श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की अर्चना को ही सारभूत माना गया है। भगवान् के स्वरूप का वर्णन, उनका ध्यान, उनके नाम और गुणों का कीर्तन, स्तोत्रों का पाठ, नमस्कार, जप, उनका चरणोदक और नैवेद्य ग्रहण करना- यह नित्यका परम कर्तव्य है। साध्वि! इसे सभी चाहते हैं और सर्वसम्मति से यही सिद्ध भी है।

वत्से! अब तुम प्रकृति से परे तथा प्राकृत गुणों से रहित परब्रह्म श्रीकृष्ण की निरन्तर उपासना करो। मैं तुम्हारे पतिदेव को लौटा देता हूँ। इन्हें लो और सुखपूर्वक अपने घर को जाओ। मनुष्यों का यह मगंलमय कर्म-विपाक मैंने तुमको सुना दिया। यह प्रसंग सर्वेप्सित, सर्वसम्मत तथा तत्त्वज्ञान प्रदान करने वाला है।

भगवान् नारायण कहते हैं- नारद! धर्मराज के मुख से उपर्युक्त वर्णन सुनकर सावित्री की आँखों में आनन्द के आँसू छलक पड़े। उसका शरीर पुलकायमान हो गया। उसने पुन: धर्मराज से कहा।

सावित्री बोली- धर्मराज! वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ प्रभो! मैं किस विधि से प्रकृति से भी पर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करूँ, यह बताइये। भगवन्! मैं आपके द्वारा मनुष्यों के मनोहर शुभकर्म का विपाक सुन चुकी। अब आप मुझे अशुभकर्म विपाक की व्याख्या सुनाने की कृपा करें।

धर्मराज की स्तुति

ब्रह्मन्! सती सावित्री इस प्रकार कहकर फिर भक्ति से अत्यन्त नम्र हो वेदोक्त स्तुति का पाठ करके धर्मराज की स्तुति करने लगी।

सावित्री ने कहा- प्राचीनकाल की बात है, महाभाग सूर्य ने पुष्कर में तपस्या के द्वारा धर्म की आराधना की। तब धर्म के अंशभूत जिन्हें पुत्ररूप में प्राप्त किया, उन भगवान् धर्मराज को मैं प्रमाण करती हूँ। जो सबके साक्षी हैं, जिनकी सम्पूर्ण भूतों में समता है, अतएव जिनका नाम शमन है, उन भगवान् शमन को मैं प्रणाम करती हूँ। जो कर्मानुरूप काल के सहयोग से विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का अन्त करते हैं, उन भगवान् कृतान्त को मैं प्रणाम करती हूँ। जो पापीजनों को शुद्ध करने के निमित्त दण्डनीय के लिये ही हाथ में दण्ड धारण करते हैं तथा जो समस्त कर्मों के उपदेशक हैं, उन भगवान् दण्डधर को मेरा प्रणाम है। जो विश्व के सम्पूर्ण प्राणियों का तथा उनकी समूची आयु का निरन्तर परिगणन करते रहते हैं, जिनकी गति को रोक देना अत्यन्त कठिन है, उन भगवान् काल को मैं प्रणाम करती हूँ। जो तपस्वी, वैष्णव, धर्मात्मा, देने को उद्यत हैं, उन भगवान् यम को मैं प्रणाम करती हूँ। जो अपनी आत्मा में रमण करने वाले, सर्वज्ञ, पुण्यात्मा पुरुषों के मित्र तथा पापियों के लिये कष्टप्रद हैं, उन 'पुण्यमित्र' नाम से प्रसिद्ध भगवान् धर्मराज को मैं प्रणाम करती हूँ। जिनका जन्म ब्रह्माजी के वंश में हुआ है तथा जो ब्रह्मतेज से सदा प्रज्वलित रहते हैं एवं जिनके द्वारा परब्रह्म का सतत ध्यान होता रहता है, उन ब्रह्मवंशी भगवान् धर्मराज को मेरा प्रणाम है।[3]

मुने! इस प्रकार प्रार्थना करके सावित्री ने धर्मराज को प्रणाम किया। तब धर्मराज ने सावित्री को विष्णु-भजन तथा कर्म के विपाक का प्रसंग सुनाया। जो मनुष्य प्रात: उठकर निरन्तर इस 'यमाष्टक' का पाठ करता है, उसे यमराज से भय नहीं होता और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। यदि महान् पापी व्यक्ति भी भक्ति से सम्पन्न होकर निरन्तर इसका पाठ करता है तो यमराज अपने कायव्यूह से निश्चित ही उसकी शुद्धि कर देते हैं। (अध्याय 27-28)


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्नदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति। नात्र पात्रपरीक्षा स्यान्न कालनियम: व्कचित्॥ (प्रकृतिखण्ड 27।3
  2. नाम्रां कोटिं हरेर्यो हि क्षेत्रे नारायणे जपेत्॥ सर्वपापविनिर्मुक्तो जीवन्मुक्तो भवेद्ध्रुवम्। लभते न पुनर्जन्म वैकुण्ठे स महीयते॥ (प्रकृतिखण्ड 27। 110-111
  3. तपसा धर्ममाराध्य पुष्करे भास्कर: पुरा । धर्माशं यं सुतं प्राप धर्मराजं नमाम्यहम्॥ समता सर्वभूतेषु यस्य सर्वस्य साक्षिण: । अतो यन्नाम शमन इति तं प्रणमाम्यहम्॥ येनान्तश्च कृतो विश्वे सर्वेषां जीविनां परम्। कर्मानुरूपकालेन तं कृतान्तं नमाम्यहम्॥ बिभर्ति दण्डं दण्डाय पापिनां शुद्धिहेतवे । नमामि तं दण्डधरं य: शास्ता सर्वकर्मणाम्॥ विश्वं य: कलयत्येव सर्वायुश्चापि सन्ततम्। अतीव दुर्निवार्यं च तं कालं प्रणमाम्यहम्॥ तपस्वी वैष्णवो धर्मी संयमी संजितेन्द्रिय:। जीविनां कर्मफलदं तं यमं प्रणमाम्यहम्॥ स्वात्मारामश्च सर्वज्ञो मित्रं पुण्यकृतां भवेत्। पापिनां क्लेशदो यश्च पुण्यमित्रं नमाम्यहम्॥ यज्जन्म ब्रह्मणो वंशे ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा । यो ध्यायति परं ब्रह्म ब्रह्मवंशं नमाम्यहम्॥(प्रकृतिखण्ड 28 । 8-15