सावित्री सत्यवान

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सावित्री सत्यवान

सावित्री सत्यवान (अंग्रेज़ी: Savitri and Satyavan) महाभारत में अनेकों पौराणिक, धार्मिक कथा-कहानियों का संग्रह है। ऐसी ही एक कहानी है सावित्री और सत्यवान की, जिसका सर्वप्रथम वर्णन महाभारत के वनपर्व में मिलता है।

मद्र देश के अश्वपति नाम का एक बड़ा ही धार्मिक राजा था। जिसकी पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गई। तब महाराज उसके विवाह के लिए बहुत चिंतित थे। उन्होंने सावित्री से कहा बेटी अब तू विवाह के योग्य हो गयी है। इसलिए स्वयं ही अपने लिये योग्य वर चुनकर उससे विवाह कर लें। तब सावित्री शीघ्र ही वर की खोज करने के लिए चल दी। वह राजर्षियों के रमणीय तपोवन में गई। कुछ दिन तक वह वर की तलाश में घूमती रही। एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि नारद से बातें कर रहे थे। उसी समय मंत्रियों के सहित सावित्री वापस लौटी। तब राजा की सभा में नारद जी भी उपस्थित थे। जब राजकुमारी दरबार पहुँची तो राजा ने उनसे वर के चुनाव के बारे में पूछा तो सावित्री ने बताया कि उसने शाल्व देश के राजा द्युमत्सेन के पुत्र जो जंगल में पले-बढ़े हैं उन्हें पति रूप में स्वीकार किया है। उनका नाम सत्यवान है। जब देवर्षि नारद ने उनसे कहा कि सत्यवान की आयु केवल एक वर्ष की ही शेष है, तो सावित्री ने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा- जो कुछ होना था सो हो चुका। उनके माता-पिता ने भी उन्हें बहुत समझाया, परन्तु सावित्री अपने धर्म से नहीं डिगी।[1]

सावित्री का सत्यवान के साथ विवाह हो गया। सत्यवान बड़े धर्मात्मा, माता-पिता के भक्त एवं सुशील थे। सावित्री राजमहल छोड़कर जंगल की कुटिया में रहने के लिये आ गयी। आते ही उन्होंने सारे वस्त्राभूषणों को त्यागकर सास-ससुर और पति जैसे वल्कल के वस्त्र पहनते थे वैसे ही पहन लिये और अपना सारा समय अपने अन्धे सास-ससुर की सेवा में बिताने लगी। सत्यवान व सावित्री के विवाह को बहुत समय बीत गया। जिस दिन सत्यवान मरने वाला था वह दिन करीब आने वाला थ। सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थीं। उसके दिल में नारद जी का वचन सदा ही बना रहता था। जब उसने देखा कि अब इन्हें चौथे दिन मरना है। उसने तीन दिन से व्रत धारण किया। जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने गये तो सावित्री ने उनसे कहा- कि मैं भी साथ चलूँगी। तब सत्यवान ने सावित्री से कहा- तुम व्रत के कारण कमजोर हो रही हो। जंगल का रास्ता बहुत कठिन और परेशानियों भरा है। इसलिए तुम यहीं रहों। लेकिन सावित्री नहीं मानी उसने जिद पकड़ ली और सत्यवान के साथ जंगल की ओर चल दी।

सत्यवान जब लकड़ी काटने लगा तो अचानक उसकी तबीयत बिगडऩे लगी। वह सावित्री से बोला मैं स्वस्थ महसूस नही कर रहा हूँ सावित्री मुझमें यहा बैठने की भी हिम्मत नहीं है। तब सावित्री ने सत्यवान का सिर अपनी गोद में रख लिया। फिर वह नारद जी की बात याद करके दिन व समय का विचार करने लगी। इतने में ही उसे वहाँ एक बहुत भयानक पुरुष दिखाई दिया। जिसके हाथ में पाश था। वे यमराज थे। उन्होंने सावित्री से कहा- तू पतिव्रता स्त्री है। इसलिए मैं तुझसे संभाषण कर लूँगा। सावित्री ने कहा- आप कौन है, तब यमराज ने कहा- 'मैं यमराज हूं।' इसके बाद यमराज सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। सावित्री बोली मेरे पतिदेव को जहाँ भी ले जायेगे, मैं भी वहाँ जाऊँगी।

तब यमराज ने उसे समझाते हुए कहा- मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता तू मनचाहा वर माँग ले। तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर की आँखे माँग ली। यमराज ने कहा तथास्तु, लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर माँगने को कहा उसने दूसरा वर माँगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए। उसके बाद तीसरा वर माँगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों। यमराज ने फिर कहा सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर माँग लो। तब सावित्री ने कहा मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों। यमराज ने कहा तथास्तु। यमराज फिर सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में जकड़े आगे बढऩे लगे। सावित्री ने फिर भी हार नहीं मानी तब यमराज ने कहा तुम वापस लौट जाओ तो सावित्री ने कहा मैं कैसे वापस लौट जाऊँ। आपने ही मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र उत्पन्न करने का आर्शीवाद दिया है। तब यमराज ने सत्यवान को पुन: जीवित कर दिया। उसके बाद सावित्री सत्यवान के शव के पास पहुँची और थोड़ी ही देर में सत्यवान के शव में चेतना आ गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सावित्री सत्यवान कथा (हिंदी) www.ajabgjab.com। अभिगमन तिथि: 15 जुलाई, 2017।

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