अकलंकदेव

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आचार्य अकलंकदेव
जैन दर्शन में एक युग निर्माता के रूप में जाने जाते हैं। शिलालेखों एवं ग्रन्थों में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर वे आठवीं शती (ई. 720-780) के आचार्य माने जाते हैं। ये जैन न्याय के प्रतिष्ठाता कहे जाते हैं। अनेकांत, स्याद्वाद आदि सिद्धान्तों पर जब तीक्ष्णता से बौद्ध और वैदिक विद्वानों द्वारा दोहरा प्रहार किया जा रहा था तब सूक्ष्मप्रज्ञ अकलंकदेव ने उन प्रहारों को अपने वाद-विद्याकवच से निरस्त करके अनेकांत, स्याद्वाद, सप्तभंगी आदि सिद्धान्तों को सुरक्षित किया था तथा प्रतिपक्षियों को सबल जवाब दिया था। इन्होंने सैकड़ों शास्त्रार्थ किये और जैनन्याय पर बड़े जटिल एवं दुरूह ग्रन्थों की रचना की है। उनके वे न्यायग्रन्थ निम्न हैं-

  1. न्याय-विनिश्चय,
  2. सिद्धि-विनिश्चय,
  3. प्रमाण-संग्रह,
  4. लघीयस्त्रय,
  5. देवागम-विवृति (अष्टशती),
  6. तत्त्वार्थवार्तिक व उसका भाष्य आदि।

परिचय

अकलंक के पिता का नाम पुरुषोत्तम था, जो मान्यखेट नगरी के राजा शुभतुंग के मंत्री थे। वे दो भाई थे-अकलंक और निष्कलंक। दोनों ही बहुत बड़े विद्याभ्यासी थे। उनके मन में बौद्धों के द्वारा जैन मत के विरुद्ध उठाये गये आक्षेपों को निर्मूल साबित करने की जिज्ञासा प्रबल रूप से जाग पड़ी थी और उसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु दोनों भाइयों ने बौद्ध मठ में गुप्त रूप से रहकर बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन किया। परन्तु एक दिन भेद खुल जाने के काररण उन दोनों के समक्ष मौत आ खड़ी हुई। किसी तरह अकलंक की जान तो बच गई, लेकिन निष्कलंक को प्राणदण्ड से मुक्ति न मिल सकी। अकलंक जैन न्याय के संस्थापक कहे जाते हैं। इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए कि जैन न्याय जैसी काई चीज़ थी ही नहीं। समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि आचार्यों ने जैन दर्शन का प्रतिपादन करते समय जैन न्याय को छोड़ नहीं दिया था। किन्तु जैन न्याय में जो सुव्यवस्था और सुदृढ़ता देखी जाती है, उसका श्रेय अकलंक को ही है। अकलंक के पहले के आचार्यों ने जो भूमिका तैयार की थी, उसके आधार पर उन्होंने जैन न्याय का एक भव्य प्रासाद खड़ा किया। इसी से कभी-कभी जैन न्याय को 'अकलंक न्याय' भी कहा जाता है।

रचनाएँ

अकलंक ने उमास्वाति के 'तत्वार्थसूत्र' तथा समन्तभद्र की 'आप्तमीमांसा' पर क्रमश: 'तत्वर्थराजवार्तिक' तथा 'अष्टशती' नामक टीका लिखी है। 'तत्वार्थराजवार्तिक' में जैन धर्म एवं दर्शन के विभिन्न पक्षों के विवेचन मिलते हैं तथा 'अष्टशती' में पिशेष रूप से अनेकान्तवाद का प्रतिपादन हुआ है। जैन न्याय को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए अकलंक ने 'लघीयस्त्रय, 'न्यायविनिश्चय', 'सिद्धिविनिश्चय' तथा 'प्रमाण संग्रह' की रचना की। लघीयस्त्रय में तीन करण हैं- प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश तथा प्रवचन प्रवेश। पहले ये तीन स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में थे, किन्तु बाद में इन्हें एक ही ग्रन्थ लघीस्त्रय के रूप में संकलित कर दिया गया। ऐसा माना जाता है कि जैन न्याय का यह पहला ग्रन्थ है, जिसमें प्रमाण, नेय और निक्षेप का तार्किक प्रणाली से निरूपण हुआ है। इतना ही नहीं बल्कि क्षणिकवाद का खंडन भी इसमें किया गया है। न्यायविनिश्चय में तीन प्रस्ताव हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन। इनकी तुलना सिद्धसेन विरचित 'न्यायवतार' के प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुत तथा बौद्धन्यायाचार्य धर्मकीर्ति द्वारा प्रतिपादित प्रत्यक्ष, स्वार्थनुमान एवं परार्थानुमान से की जाती है। 'सिद्धिविनिश्चय' में बारह प्रस्ताव हैं- इनमें प्रमाण, नय, निक्षेप आदि विश्लेषित हैं। 'प्रमाण संग्रह' में कुल 88 कारिकाएं हैं, जो 9 प्रस्तावों में बंटी हुई हैं। इनमें प्रत्यक्ष, अनुमान, हेतु और हेत्वाभास, वाद, प्रवचन, सप्तभंगी, नय, प्रमाण, निक्षेप आदि की प्रतिष्ठा बड़ी ही तार्किक कुशलता के साथ हुई है।

प्रमाण सिद्धान्त

जैन न्याय में प्रमाण को परिभाषित करते हुए सर्वप्रथम समन्तभद्र ने कहा है कि यह ज्ञान प्रमाण हो सकता है, जो स्व और पर का अवभासक हो। सिद्धसेन दिवाकर ने समन्तभद्र के द्वारा की गई परिभाषा का समर्थन तो किया है, किन्तु उसमें एक विशेषण बढ़ा दिया है। उनके अनुसार प्रमाण वही ज्ञान हो सकता है, जो स्व और पर का अवभासी होने के साथ ही 'बाधविवर्जित' भी हो। अकलंक ने प्रमाण प्रतिष्ठा करते हुए निम्नलिखित सिद्धान्त प्रस्तुत किया है- प्रमाण को अविसंवादी होना चाहिए। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से युक्त ज्ञान को विसंवादी कहते हैं। अत: प्रमाण वह ज्ञान है, जिसमें संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय न हो। परन्तु कोई भी ज्ञान न पूर्ण रूप में प्रमाण हो पाता है और न अप्रमाण ही। अविसंवाद के आधिक्य के कारण कोई ज्ञान प्रमाण हो जाता है और विसंवाद के आधिक्य के कारण अप्रमाण। इतना ही नहीं अपितु प्रमाण को 'व्यवसायात्मक' भी होना चाहिए। प्रमाण व्यवसायात्मक तभी होता है, जब वह सविकल्पक होता है। अत: निर्विकल्पक, कल्पनाप्रौढ़ एवं अव्यपदेश्य ज्ञान प्रमाण की कोटि में नहीं रखे जा सकते हैं। इस सिद्धान्त के आधार पर बौद्धदर्शन के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष तथा न्याय दर्शन के अव्यपदेश्य अर्थात अविकल्पक प्रत्यक्ष के सिद्धान्तों का खंडन होता है। प्रमाण के लक्षण को बताते हुए जहाँ पर समन्तभद्र ने 'स्व', 'पर' और 'अपभासक' शब्दों को रखा है, वहीं पर अकलंक ने क्रमश: 'आत्मा', अर्थ' और 'ग्राहक' शब्दों का प्रयोग किया है। प्रमाण के विषय का निरूपण करते हुए अकलंक ने कहा है कि द्रव्य पर्याय तथा सामान्य विशेष ही नहीं, बल्कि आत्मार्थ यानी 'स्व' और 'अर्थ' भी प्रमाण के विषय होते हैं। अकलंक के अनुसार प्रमाण के दो प्रधान भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष पुन: दो भागों में विभाजित होता है- मुख्य एवं सांव्यावहारिक। मुख्य प्रत्यक्ष के अंतर्गत तीन प्रकार के ज्ञान होते हैं- अवधि, मन:पर्यय और केवल। सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के रूप में मति-ज्ञान आता है। परोक्ष ज्ञान के पांच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान और आगम। प्रत्यक्ष की कोटि में वे ज्ञान आते हैं जो 'विशद' हैं। वैशद्य को परिभाषित करते हुए अकलंक ने कहा है जो अनुमान से अधिक (नियत देश, काल तथा आकार के रूप में) विशेषों की प्रतिभासना करता है, उसे विशद ज्ञान कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान की अस्पष्टता पर बल देने के लिए अकलंक ने 'साकार' और 'अञ्जासा' पदों का व्यवहार किया है।

ज्ञान की प्राप्ति

आगमों में आत्मा से प्राप्त होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा गया है क्योंकि उनमें 'अक्ष' का अर्थ आत्मा लिया गया है। शेष सभी ज्ञान परोक्ष की कोटि से रखे गए हैं। मन और इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले ज्ञानों को भी परोक्ष ज्ञान ही कहा गया है। किन्तु जैनेतर परम्पराओं तथा सामान्य व्यवहार में मन और इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है। अकलंक ने मन और इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है। यद्यपि परमार्थिक या या आध्यात्मिक दृष्टि से यह ज्ञान परोक्ष की कोटि में ही आते हैं, तथापि लोक व्यवहार तथा इतर दर्शनों में इन्हें प्रत्यक्ष माना जाता है। साथ ही वैशद्य भी आंशिक रूप से इनमें पाया जाता है। इसलिए इन्हें प्रत्यक्ष कह सकते हैं। परन्तु इनके लिए प्रत्यक्ष नाम ही उचित होगा। आत्मा से प्राप्त प्रत्यक्ष को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके तीन भेद हैं- अवधि, मन:पर्यय और केवल।

अवधि-ज्ञान

जो ज्ञान अवधिज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। इसका विषय केवल रूपी द्रव्य होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव के दृष्टिकोण से इसकी मार्यादाएं होती हैं। इसलिए इन्हें अवधि-ज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान दूसरे के मन की बातों की जानकारी कराता है, उसे मन:पर्यय ज्ञान कहते हैं। अवधि ज्ञान का अनन्तर्वाभाग इसका क्षत्र है।

केवल-ज्ञान

केवल-ज्ञान सर्वज्ञता की स्थिति है। इसमें सभी द्रव्यों और पर्यायों को जानने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। जब कभी ज्ञानावरण नष्ट हो जाते हैं, तब केवल-ज्ञान की उत्पत्ति होती है। यह पूर्णरूपेण निर्मल या विशद होता है। अन्य सभी ज्ञान इसी में विलीन हो जाते हैं। यह आत्मा की स्वाभाविक स्थिति होती है। आवरणों के हट जाने पर आत्मा सभी क्षेयों को जान लेता है। तत्वार्थसूत्र में मति और श्रुत को परोक्ष ज्ञान कहा गया है। किन्तु अकलंक ने कहा है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध शब्द रूप में आने से पूर्व मतिज्ञान की कोटि में रखे जाते हैं, परन्तु शब्द रूप में अभिव्यक्त होने पर श्रुतज्ञान हो जाते हैं। मति ज्ञान में आशिंक से वैशद्य होता है, अत: उसे प्रत्यक्ष ज्ञान समझा जा सकता है। लेकिन श्रुत ज्ञान अविशद होता है। इसलिए उसे परोक्ष कहते हैं।

मन:पर्यय

पूर्वानुभव के संस्कार की पुनरावृत्ति स्मृति कही जाती है। इसे 'गृहीतग्राही' कहकर अन्य दर्शनों में प्रमाण की कोटि में नहीं रखा गया है। यह उतनी ही चीजों को प्रस्तुत करती है जितनी पूर्वानुभव में आई हुई होती है। अत: यह पूर्वानुभव की सीमा के अन्दर होती है। अकलंक ने स्मृति को परोक्ष माना है, क्योंकि इसमें अविसंवाद देखा जाता है। यदि इसमें अविसंवाद न माना जाये तो अनुमान, शब्द व्यवहार आदि सभी निरर्थक हो जायेंगे। चूंकि स्मृति परतंत्र होता है, इसलिए इसे परोक्ष प्रमाण कहा जा सकता है, किन्तु अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। वर्तमान को देखकर उसके अतीत को ध्यान में लाना, फिर दोनों के मिलने के परिणामस्वरूप ज्ञान की प्राप्ति करना प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। इसे बौद्ध न्याय में प्रमाण नहीं माना गया है। नैयायिक इसे मानस विकल्प कहते हैं तथा मीमांसकों की दृष्टि में यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। अकलंक ने इसे स्वतंत्र प्रमाण घोषित किया है।

दार्शनिकों के अनुसार

अन्य दार्शनिकों ने तर्क को न तो प्रमाण की कोटि में रखा है और न ही अप्रमाण की कोटि में। किन्तु अकलंक ने कहा है कि तर्क को प्रमाण मानना ही होगा, क्योंकि यह व्याप्तिग्राही है। यदि इसे प्रमाण न माना जायेगा तो व्याप्ति का क्या होगा। इतना ही नहीं बल्कि अपने सम्बन्ध में तर्क अविसंवादी भी होता है। 'न्याय-विनिश्चय' में अकलंक ने कहा है कि साधन से साध्य के विषय में ज्ञान प्राप्त करना अनुमान है। लिंग और व्याप्ति के पीछे (अनु) होने वाला ज्ञान अनुमान कहा जाता है। उनके अनुसार अविनाभाव ही अनुमान का लक्षण है। अनुमान के कई अवयव माने गये हैं, किन्तु अकलंक ने केवल प्रतिज्ञा और हेतु को ही पर्याप्त माना है। उन्होंने कार्य स्वभाव और अनुपलब्धि के अलावा कारण हेतु, पूर्वचर हेतु, उत्तर हेतु और सहचर हेतु को पृथक मानने का समर्थन किया है। चूंकि अनुमान का एक ही लक्षण (अविनाभाव) माना गया है, इसलिए उसके अभाव में एक ही हेत्वाभास माना जाना चाहिए। परन्तु अविनाभाव का अभाव विभिन्न प्रकारों से होता है। इसलिए हेत्वाभास के चार प्रकार माने जा सकते हैं- विरुद्ध, असिद्ध, सन्दिग्ध तथा अकिंचित्कर। नैयायिकों ने छलादि का प्रयोग सही माना है, परन्तु अकलंक के अनुसार छल का प्रयोग उचित नहीं, क्योंकि छलादि से उत्पन्न जल्प, वितण्डा आदि के अस्तित्व में वे विश्वास नहीं करते। वे मिथ्या उत्तर को जात्युत्तर मानते हैं। साथ ही यह भी कहते हैं कि मिथ्या उत्तरों की गिनती नहीं हो सकती, क्योंकि ये अनन्त हैं। सप्तभंगी के प्रतिपादन में प्रमाणसप्तभंगी तथा नयसप्तभंगी के लिए क्रमश: सकलादेश और विकलादेश की योजना अकलंक के द्वारा ही बनाई गई है। नयनिरूपण तथा अनेकान्त-विवेचन भी उनके ग्रन्थों में व्यवस्थित ढंग से हुआ है। इस प्रकार अकलंक ने जैन न्याय को एक व्यवस्थित रूप प्रदान किया है, जिसके कारण हम उन्हें उसी कोटि में प्रतिष्ठित करते हैं, जिसमें धर्मकीर्ति, कुमारिल, प्रभाकर आदि आते हैं। विद्यानन्द ने सम्भवत: इसी कारण 'सिद्धेर्वात्राकलंकस्य महतो न्यायवेदिन:[1] वचनों द्वारा अकलंक को 'महान्यायवेत्ता' जस्टिक-न्यायधीश कहा है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. त0 श्लो0 पृ0 277

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