गोंड

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गोंड

गोंड मध्य प्रदेश की सबसे महत्त्वपूर्ण जनजाति है, जो प्राचीन काल के गोंड राजाओं को अपना वंशज मानती है। यह एक स्वतंत्र जनजाति थी, जिसका अपना राज्य था और जिसके 52 गढ़ थे। मध्य भारत में 14वीं से 18वीं शताब्दी तक इसका राज्य रहा था। मुग़ल शासकों और मराठा शासकों ने इन पर आक्रमण कर इनके क्षेत्र पर अधिकार कर लिया और इन्हें घने जंगलों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में शरण लेने को बाध्य किया।

आबादी

गोंडों की लगभग 60 प्रतिशत आबादी मध्य प्रदेश में निवास करती है। शेष आबादी का अधिकांश भाग 'संकलन', आन्ध्र प्रदेश एवं उड़ीसा में बसा हुआ है। गोंड जनजाति के वर्तमान निवास स्थान मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ राज्यों के पठारी भाग, जिसमें छिंदवाड़ा, बेतूल, सिवानी और माडंला के ज़िले सम्मिलित हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी दुर्गम क्षेत्र, जिसमें बस्तर ज़िला सम्मिलित है, आते हैं। इसके अतिरिक्त इनकी बिखरी हुई बस्तियाँ छत्तीसगढ़ राज्य, गोदावरी एवं बैनगंगा नदियों तथा पूर्वी घाट के बीच के पर्वतीय क्षेत्रों में एवं बालाघाट, बिलासपुर, दुर्ग, रायगढ़, रायसेन और खरगोन ज़िलों में भी हैं। उड़ीसा के दक्षिण-पश्चिमी भाग तथा आन्ध्र प्रदेश के पठारी भागों में भी यह जनजाति रहती है।

निवास

गोंड जनजाति का निवास क्षेत्र 17.46 डिग्री से 23.22 डिग्री उत्तरी अक्षांश और 80 डिग्री तथा 83 डिग्री पूर्वी देशांतरों के बीच है।

शारीरिक गठन

गोंड जनजाति के लोग काले तथा गहरे भूरे रंग के होते हैं। उनका शरीर सुडौल होता है, किंतु अंग प्राय: बेडौल होते हैं। बाल मोटे, गहरे और घुंघराले, सिर गोल, चहरा अण्डाकर, आँखें काली, नाक चपटी, होंठ मोटे, मुँह चौड़ा, नथुने फैले हुए, दाढ़ी एवं मूछँ पर बाल कम एवं क़द 165 सेमी. होता है। गोंडों की स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में क़द में छोटी, शरीर सुगठित एवं सुन्दर, रंग पुरुषों की अपेक्षा कुछ कम काला, होंठ मोटे, आँखें काली और बाल लम्बे होते हैं।

भोजन

गोंड अपने वातावरण द्वारा प्रस्तुत भोजन सामाग्री एवं कृषि से प्राप्त वस्तुओं पर अधिक निर्भर रहते हैं। इनका मुख्य भोजन कोदों, ज्वार और कुटकी मोटे अनाज होते हैं, जिन्हें पानी में उबालकर 'झोल' या 'राबड़ी' अथवा 'दलिया' के रूप में दिन में तीन बार खाया जाता है। रात्रि में चावल अधिक पसन्द किये जाते हैं। कभी-कभी कोदों और कुटकी के साथ सब्जी एवं दाल का भी प्रयोग किया जाता है। कोदों के आटे से रोटी[1] भी बनाई जाती है। महुआ, टेंगू और चर के ताज़े फल भी खाये जाते हैं। आम, जामुन, सीताफल और आंवला, अनेक प्रकार के कन्द-मूल एवं दालें व कभी-कभी सब्जियाँ भी खाने के लिए काम में लाये जाते हैं।

वस्त्राभूषण

आरम्भ में गोंड जनजाति के लोग या तो पूर्णत: नंगे रहते थे अथवा पत्तियों से अपने शरीर को ढंक लेते थे। अब 3-4 दशकों से वे वस्त्रों का प्रयोग करने लगे हैं, किंतु वस्त्र कम ही होते हैं। अधिकांशत: पुरुष लंगोटी से अपने गुप्तांगों एवं जांघों को ढंक लेते हैं। कभी-कभी सिर में एक अंगोछे के प्रकार का कपड़ा भी बांध लेते हैं। कुछ लोग पेट और कमर ढंकने के लिए अलग से पिछौनी लपेट लेते हैं। स्त्रियाँ धोती पहनती हैं, जिससे शरीर के ऊपर और नीचे का भाग ढंक जाता है। ये चोली नहीं पहनतीं। छातियाँ खुली रहती हैं। सर्दियों में शरीर को ढंकने के लिए ऊनी कम्बल व मोटे टाट का कपड़ा काम में लाया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गोदाला

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