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पूतना वध

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श्रीकृष्ण द्वारा पूतना वध

योगमाया द्वारा दी गई चेतावनी और उनकी बातों को सुनकर कंस को अति आश्चर्य हुआ और उसने देवकी तथा वसुदेव को कारागार से मुक्त कर दिया। तत्पश्चात् कंस ने अपने मन्त्रियों को बुलाया तथा योगमाया द्वारा कही गयी बातों पर मन्त्रणा करने लगा। कंस के मूर्ख मन्त्रियों ने कहा- “हे राजन्! देवताओं ने यह धोखा दिया है इसलिये देवताओं का ही नाश करना चाहिये। ब्राह्मणों के यज्ञादि को बन्द करवा देना चाहिये। इन्द्र को तो आप कई बार परास्त कर ही चुके हैं, इस बार आपके डर से छिपे हुये विष्णु को भी ढूंढ कर उससे युद्ध करना चाहिये और पिछले दस दिनों के भीतर उत्पन्न हुये सभी बालकों को भी मार डालना चाहिये।”

इधर गोकुल में नन्दबाबा ने पुत्र का जन्मोत्सव बड़े धूम-धाम से मनाया। ब्राह्मणों और याचकों को यथोचित गौओं तथा स्वर्ण, रत्न, धनादि का दान किया। कर्मकाण्डी ब्राह्मणों को बुलाकर बालक का जाति कर्म संस्कार करवाया। पितरों और देवताओं की अनेक भाँति से पूजा-अर्चना की। पूरे गोकुल में उत्सव मनाया गया। कुछ दिनों पश्चात् कंस ढूंढ-ढूंढ कर नवजात शिशुओं का वध करवाने लगा। उसने पूतना नाम की एक क्रूर राक्षसी को ब्रज में भेजा। पूतना ने राक्षसी वेष तज कर अति मनोहर नारी का रूप धारण किया और आकाश मार्ग से गोकुल पहुँच गई। गोकुल में पहुँच कर वह सीधे नन्दबाबा के महल में गई और शिशु के रूप में सोते हुये श्रीकृष्ण को गोद में उठाकर अपना दूध पिलाने लगी। उसकी मनोहरता और सुन्दरता ने यशोदा और रोहिणी को भी मोहित कर लिया, इसलिये उन्होंने बालक को उठाने और दूध पिलाने से नहीं रोका।

पूतना के स्तनों में हलाहल विष लगा हुआ था। अन्तर्यामी श्रीकृष्ण सब जान गये और वे क्रोध करके अपने दोनों हाथों से उसका कुच थाम कर उसके प्राण सहित दुग्धपान करने लगे। उनके दुग्धपान से पूतना के मर्म स्थलों में अति पीड़ा होने लगी और उसके प्राण निकलने लगे। वह चीख-चीख कर कहने लगी- “अरे छोड़ दे! छोड़ दे! बस कर! बस कर!” वह बार-बार अपने हाथ पैर पटकने लगी और उसकी आँखें फट गईं। उसका सारा शरीर पसीने में लथपथ होकर व्याकुल हो गया। वह बड़े भयंकर स्वर में चिल्लाने लगी। उसकी भयंकर गर्जना से पृथ्वी, आकाश तथा अन्तरिक्ष गूँज उठे। बहुत से लोग बज्रपात समझ कर पृथ्वी पर गिर पड़े। पूतना अपने राक्षसी स्वरूप को प्रकट कर धड़ाम से भूमि पर बज्र के समान गिरी, उसका सिर फट गया और उसके प्राण निकल गये। जब यशोदा, रोहिणी और गोपियों ने उसके गिरने की भयंकर आवाज को सुना, तब वे दौड़ी-दौड़ी उसके पास गईं। उन्होंने देखा कि बालक कृष्ण पूतना की छाती पर लेटा हुआ स्तनपान कर रहा है तथा एक भयंकर राक्षसी मरी हुई पड़ी है। उन्होंने बालक को तत्काल उठा लिया और पुचकार कर छाती से लगा लिया। वे कहने लगीं- “भगवान चक्रधर ने तेरी रक्षा की। भगवान गदाधर तेरी आगे भी रक्षा करें।” इसके पश्चात् गोप ग्वालों ने पूतना के अंगों को काट-काट कर गोकुल से बाहर ला कर लकड़ियों में रख कर जला दिया।

हरिवंश के अनुसार पूतना कंस की धात्री (दाई मां) थी और 'शकुनी' चिड़िया का रूप बनाकर गोकुल गई थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार वह कंस की बहन थी ओर मथुरा से ब्राह्मणी बनकर कृष्ण को देखने के बहाने गई। इस पुराण में आया है कि वह पहले बलि की पुत्री रत्नमाला थी और वामन के प्रति मातृभावना से प्रेरित थी। इसीलिए वामन के रूप कृष्ण ने स्तन-पान करते समय उसके प्राण खींच लिये। ब्रजभाषा तथा गुजराती के कुछ कवियों ने पूतना को 'बकी' लिखा है। सूरदास तथा गुजराती कवि नरसी मेहता, परमानंद दास आदि ने अन्य कई छोटी कथाओं का पूतना वध के बाद उल्लेख किया है, जो पुराणों में नहीं मिलतीं।

श्रीमद्भागवत महापुराण का उल्लेख

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित ! नन्दबाबा जब मथुरा से चले, तब रास्ते में विचार करने लगे कि वसुदेवजी का कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मन में उत्पात होने की आशंका हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान की शरण है, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा निश्चय किया।

पूतना नाम की एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी। उसका एक ही काम था- बच्चों को मारना। कंस की आज्ञा से वह नगर, ग्राम और अहीरों की बस्तियों में बच्चों को मारने के लिए घूमा करती थी। जहाँ के लोग अपने प्रतिदिन के कामों में राक्षसों के भय को दूर भगाने वाले भक्तवत्सल भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करते, वहीं ऐसी राक्षसियों का बल चलता है।

पूतना बाल कृष्ण को दूध पिलाते हुए

वह पूतना आकाशमार्ग से चल सकती थी और अपनी इच्छा के अनुसार रूप भी बना लेती थी। एक दिन नन्दबाबा के गोकुल के पास आकर उसने माया से अपने को एक सुन्दर युवती बना लिया और गोकुल के भीतर घुस गयी। उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था। उसकी चोटियों में बेले के फूल गुँथे हुए थे। सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी। जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमक से मुख की ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं। उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी। वह अपनी मधुर मुस्कान और कटाक्षपूर्ण चितवन से ब्रजवासियों का चित्त चुरा रही थी। उस रूपवती रमणी को हाथ में कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मीजी अपने पति का दर्शन करने के लिए आ रही हैं। पूतना बालकों के लिए ग्रह के समान थी। वह इधर-उधर बालकों को ढूंढती हुई अनायास ही नन्दबाबा के घर में घुस गयी। वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण दुष्टों के काल हैं। परन्तु जैसे आग राख की ढेरी में अपने को छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेज को छिपा रखा था।

भगवान श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियों की आत्मा हैं। इसलिए उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चों को मार डालने वाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये।[2] जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँप को रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान श्रीकृष्ण को पूतना ने अपनी गोद में उठा लिया। मखमली म्यान के भीतर छिपी हुई तीखी धार वाली तलवार के समान पूतना का हृदय तो बड़ा कुटिल था, किन्तु ऊपर से वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी। देखने में वह एक भद्र महिला के समान जान पड़ती थी। इसलिए रोहिणी और यशोदा ने उसे घर के भीतर आयी देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभा से हतप्रभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी-खड़ी देखतीं रहीं। इधर भयानक राक्षसी पूतना ने बालक श्रीकृष्ण को अपनी गोद में लेकर उनके मुँह में अपना स्तन दे दिया, जिसमें बड़ा भयंकर और किसी प्रकार भी पच न सकने वाला विष लगा हुआ था। भगवान ने क्रोध को अपना साथी बनाया और दोनों हाथों से उसके स्तनों को जोर से दबाकर उसके प्राणों के साथ उसका दूध पीने लगे।[3] अब तो पूतना के प्राणों के आश्रयभूत सभी मर्मस्थान फटने लगे। वह पुकारने लगी- ‘अरे छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर।’ वह बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटक कर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये। उसका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया। उसकी चिल्लाहट का वेग बड़ा भयंकर था। उसके प्रभाव से पहाड़ों के साथ पृथ्वी और ग्रहों के साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों पाताल और दिशाएँ गूँज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपात की आशंका से पृथ्वी पर गिर पड़े। परीक्षित ! इस प्रकार निशाचरी पूतना के स्तनों में इतनी पीड़ा हुई कि वह अपने को छिपा न सकी, राक्षसी रूप में प्रकट हो गयी। उसके शरीर से प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर गये और हाथ-पाँव फ़ैल गये। जैसे इन्द्र के वज्र से घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था, वैसे ही वह बाहर गोष्ठ में आकर गिर पड़ी।

राजेन्द्र! पूतना के शरीर ने गिरते-गिरते भी छः कोस के भीतर के वृक्षों को कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना हुई। पूतना का शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हल के समान तीखी और भयंकर दाढ़ों से युक्त था। उसके नथुने पहाड़ की गुफ़ा के समान गहरे थे और स्तन पहाड़ से गिरी हुई चट्टानों की तरह बड़े-बड़े थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे। आँखें अंधे कुऐं के समान गहरी, नितम्ब नदी के करार की तरह भयंकर; भुजाऐं, जाँघें और पैर नदी के पुल के समान तथा पेट सूखे हुए सरोवर की भाँति जान पड़ता था। पूतना के उस शरीर को देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयंकर चिल्लाहट सुनकर उनके हृदय, कान और सर तो पहले ही फट से रहे थे। जब गोपियों ने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं[4], तब वे बड़ी घबराहट और उतावली के साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्ण को उठा लिया।

इसके बाद यशोदा और रोहिणी के साथ गोपियों ने गाय की पूँछ घुमाने आदि उपायों से बालक श्रीकृष्ण के अंगों की सब प्रकार से रक्षा की। उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्ण को गोमूत्र से स्नान कराया, फिर सब अंगों में गो-रज लगायी और फिर बारहों अंगों में गोबर लगाकर भगवान के केशव आदि नामों से रक्षा की। इसके बाद गोपियों ने आचमन करके ‘अज’ आदि ग्यारह बीज-मन्त्रों से अपने शरीर में अलग-अलग अंगन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालक के अंगों में बीजन्यास किया। वे कहने लगीं- ‘अजन्मा भगवान तेरे पैरों की रक्षा करें, मणिमान घुटनों की, यज्ञपुरुष जाँघों की, अच्युत कमर की, हयग्रीव पेट की, केशव हृदय की, ईश वक्षःस्थल की, सूर्य कन्ठ की, विष्णु बाँहों की, उरुक्रम मुख की और ईश्वर सिर की रक्षा करें। चक्रधर भगवान रक्षा के लिए तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमशः धनुष और खड्ग धारण करने वाले भगवान मधुसूदन और अजन दोनों बगल में, शंखधारी उरुगाय चारों कोनों में, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वी पर और भगवान परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षा के लिये रहें। हृशीकेश भगवान इन्द्रियों की और नारायण प्राणों की रक्षा करें। श्वेतद्वीप के अधिपति चित्त की और योगेश्वर मन की रक्षा करें। पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की और परमात्मा भगवान तेरे अहंकार की रक्षा करें। खेलते समय गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें। चलते समय श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजन के समय समस्त ग्रहों को भयभीत करने वाले यज्ञभोक्ता भगवान तेरी रक्षा करें। डाकिनी, राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका आदि; शरीर, प्राण तथा इन्द्रियों का नाश करने वाले उन्माद[5] एवं अपस्मार[6] आदि रोग; स्वप्न में देखे हुए महान् उत्पात, वृद्धग्रह और बालग्रह आदि, ये सभी अनिष्ट विष्णु का नामोच्चारण करने से भयभीत होकर नष्ट हो जायँ।[7]

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! इस प्रकार गोपियों ने प्रेमपाश में बँधकर भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा की। माता यशोदा ने अपने पुत्र को स्तन पिलाया और फिर पालने पर सुला दिया। इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरा से गोकुल में पहुँचे। जब उन्होंने पूतना का भयंकर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये। वे कहने लगे- "यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, अवश्य ही वसुदेव के रूप में किसी ऋषि ने जन्म ग्रहण किया है अथवा सम्भव है वसुदेवजी पूर्वजन्म में कोई योगेश्वर रहे हों; क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखने में आ रहा है। तब तक ब्रजवासियों ने कुल्हाड़ी से पूतना के शरीर को टुकड़ें-टुकड़े कर डाला और गोकुल से दूर ले जाकर लकड़ियों पर रखकर जला दिया। जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमें से ऐसा धुँआ निकला, जिसमें से अगरकी-सी सुगन्ध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान ने जो उसका दूध पी लिया था, जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे। पूतना एक राक्षसी थी। लोगों के बच्चों को मार डालना और उनका खून पी जाना, यही उसका काम था। भगवान को भी उसने मार डालने की इच्छा से ही स्तन पिलाया था। फिर भी उसे वह परम गति मिली, जो सत्पुरुषों को मिलती है।

ऐसी स्थिति में जो परब्रह्मा परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण को श्रद्धा और भक्ति से माता के समान अनुराग पूर्वक अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगने वाली वस्तु समर्पित करते हैं। उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या। भगवान के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा, शंकर आदि देवताओं के द्वारा भी वन्दित हैं। वे भक्तों के हृदय की पूँजी हैं। उन्हीं चरणों से भगवान ने पूतना का शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था। माना कि वह राक्षसी थी, परंतु उसे उत्तम-से-उत्तम गति जो माता को मिलनी चाहिए, प्राप्त हुई। फिर जिनके स्तन का दूध भगवान ने बड़े प्रेम से पिया, उन गौओं और माताओं[8] की बात ही क्या है।

परीक्षित! देवकीनन्दन भगवान कैवल्य आदि सब प्रकार की मुक्ति और सब कुछ देने वाले हैं। उन्होंने ब्रज की गोपियों और गौओं का वह दूध, जो भगवान के प्रति पुत्र-भाव होने से वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण स्वयं ही झरता रहता था, भरपेट पान किया। राजन! वे गौएँ और गोपियाँ, जो नित्य-निरन्तर भगवान श्रीकृष्ण को अपने पुत्र के ही रूप में देखतीं थीं, फिर जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में कभी नहीं पड़ सकतीं, क्योंकि यह संसार तो अज्ञान के कारण ही है।

नन्दबाबा के साथ आने वाले ब्रजवासियों की नाक में जब चिता के धुएँ की सुगन्ध पहुँची, तब ‘यह क्या है? कहाँ से ऐसी सुगन्ध आ रही है?’ इस प्रकार कहते हुए वे ब्रज में पहुँचे। वहाँ गोपों ने उन्हें पूतना के आने से लेकर, मरने तक का सारा वृत्तांत कह सुनाया। वे लोग पूतना की मृत्यु और श्रीकृष्ण के कुशलपूर्वक बच जाने की बात सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुए। परीक्षित! उदारशिरोमणि नन्दबाबा ने मृत्यु के मुख से बचे हुए अपने लाला को गोद में उठा लिया और बार-बार उसका सर सूँघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध, अध्याय 6, श्लोक 1-43
  2. पूतना को देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने नेत्र बंद कर लिये, इस पर भक्त कवियों और टीकाकारों ने अनेकों प्रकार की उत्प्रेक्षाएं की हैं, जिनमें कुछ ये हैं- 1. श्रीमद्वल्ल्भाचार्य ने सुबोधिनी में कहा है- "अविद्या ही पूतना है। भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि मेरी दृष्टि के सामने अविद्या टिक नहीं सकती, फिर लीला कैसे होगी, इसलिये नेत्र बन्द कर लिये। 2. यह पूतना बाल-घातिनी है- ‘पूतानपि नयति’। यह पवित्र बालकों को भी ले जाती है। ऐसा जघन्य कृत्य करने वाली का मुँह नहीं देखना चाहिये, इसलिये नेत्र बंद कर लिये। 3. इस जन्म में तो इसने कुछ साधन किया नहीं है। संभव है मुझसे मिलने के लिये पूर्व जन्म में कुछ किया हो। मानो पूतना के पूर्व-पूर्व जन्मों के साधन देखने के लिये ही श्रीकृष्ण ने नेत्र बंद कर लिये। 4. भगवान ने अपने मन में विचार किया कि मैंने पापिनी का दूध कभी नहीं पिया है। अब जैसे लोग आँख बंद करके चिरायते का काढ़ा पी जाते हैं, वैसे ही इसका दूध भी पी जाऊँ। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। 5. भगवान के उदर में निवास करने वाले असंख्य कोटि ब्रह्माण्ड के जीव यह जानकर घबरा गये कि श्यामसुन्दर पूतना के स्तन में लगा हलाहल विष पीने जा रहे हैं। अतः उन्हें समझाने के लिये ही श्रीकृष्ण ने नेत्र बंद कर लिये। 6. श्रीकृष्ण शिशु ने विचार किया कि मैं गोकुल में यह सोचकर आया था कि माखन-मिश्री खाऊँगा। सो छठी के दिन ही विष पीने का अवसर आ गया। इसलिये आँख बंद करके मानो शंकरजी का ध्यान किया कि आप आकर अपना अभ्यस्त विष-पान कीजिये, मैं दूध पीऊँगा। 7. श्रीकृष्ण के नेत्रों ने विचार किया कि परम स्वतन्त्र ईश्वर इस दुष्टा को अच्छी-बुरी चाहे जो गति दे दें, परन्तु हम दोनों इसे चन्द्र मार्ग अथवा सूर्य मार्ग दोनों में से एक भी नहीं देंगे। इसलिये उन्होंने अपने द्वार बंद कर लिये। 8. नेत्रों ने सोचा पूतना के नेत्र हैं तो हमारी जाति के; परन्तु ये क्रूर राक्षसी की शोभा बढ़ा रहे हैं। इसलिये अपने होने पर भी ये दर्शन के योग्य नहीं हैं। इसलिये उन्होंने अपने को पलकों से ढक लिया। 9. श्रीकृष्ण के नेत्रों में स्थित धर्मात्मा निमि ने उस दुष्टा को देखना उचित न समझकर नेत्र बंद कर लिये। 10. श्रीकृष्ण के नेत्र राज-हंस हैं। उन्हें बकी पूतना के दर्शन करने की कोई उत्कण्ठा नहीं थी। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। 11. श्रीकृष्ण ने विचार किया कि बाहर से तो इसने माता-सा रूप धारण कर रखा है, परन्तु हृदय में अत्यन्त क्रूरता भरे हुए है। ऐसी स्त्री का मुँह न देखना ही उचित है। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। 12. उन्होंने सोचा कि मुझे निडर देखकर कहीं यह ऐसा न समझ जाय कि इसके ऊपर मेरा प्रभाव नहीं चला और कहीं लौट न जाय। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। 13. बाल-लीला के प्रारम्भ में पहले-पहल स्त्री से ही मुठभेड़ हो गयी, इस विचार से विरक्तिपूर्वक नेत्र बंद कर लिये। 14. श्रीकृष्ण के मन में यह बात आयी कि करुणा-दृष्टि से देखूँगा तो इसे मारूँगा कैसे और उग्र दृष्टि से देखूँगा तो यह अभी भस्म हो जायगी। लीला की सिद्धि के लिये नेत्र बंद कर लेना ही उत्तम है। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। 15. यह धात्री का वेष धारण करके आयी है, मारना उचित नहीं है। परन्तु यह और ग्वालबालों को मारेगी। इसलिये इसका यह वेष देखे बिना ही मार डालना चाहिये। इसलिये नेत्र बंद कर लिये। 16. बड़े-से-बड़ा अनिष्ट योग से निवृत्त हो जाता है। उन्होंने नेत्र बंद करके मानो योगदृष्टि सम्पादित की। 17. पूतना यह निश्चय करके आयी थी कि मैं व्रज के सारे शिशुओं को मार डालूँगी, परन्तु भक्त रक्षा परायण भगवान की कृपा से व्रज का एक भी शिशु उसे दिखायी नहीं दिया और बालकों को खोजती हुई वह लीला शक्ति की प्रेरणा से सीधी नन्दालय में आ पहुँची, तब भगवान ने सोचा कि मेरे भक्त का बुरा करने की बात तो दूर रही, जो मेरे भक्त का बुरा सोचता है, उस दुष्ट का मैं मुँह नहीं देखता; व्रज-बालक सभी श्रीकृष्ण के सखा हैं, परम भक्त हैं, पूतना उनको मारने का संकल्प करके आयी है, इसलिये उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। 18. पूतना अपनी भीषण आकृति को छिपाकर राक्षसी माया से दिव्य रमणी रूप बनाकर आयी है। भगवान की दृष्टि पड़ने पर माया रहेगी नहीं और इसका असली भयानक रूप प्रकट हो जायगा। उसे सामने देखकर यशोदा मैया डर जायँ और पुत्र की अनिष्टाशंका से कहीं उनके हठात् प्राण निकल जायँ, इस आशंका से उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। 19. पूतना हिंसा पूर्ण हृदय से आयी है, परन्तु भगवान उसकी हिंसा के लिये उपयुक्त दण्ड न देकर उसका प्राण-वधमात्र करके परम कल्याण करना चाहते हैं। भगवान समस्त सद्गुणों के भण्डार हैं। उनमें धृष्टता आदि दोषों का लेश भी नहीं है, इसीलिये पूतना के कल्याणार्थ भी उसका प्राण-वध करने में उन्हें लज्जा आती है। इस लज्जा से ही उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। 20. भगवान जगत्पिता हैं, असुर-राक्षसादि भी उनकी सन्तान ही हैं। पर वे सर्वथा उच्छ्रंखल और उदण्ड हो गये हैं, इसलिये उन्हें दण्ड देना आवश्यक है। स्नेहमय माता-पिता जब अपने उच्छ्रंखल पुत्र को दण्ड देते हैं, तब उनके में दुःख होता है। परन्तु वे उसे भय दिखलाने के लिये उसे बाहर प्रकट नहीं करते। इसी प्रकार भगवान भी जब असुरों को मारते हैं, तब पिता के नाते उनको भी दुःख होता है; पर दूसरे असुरों को भय दिखलाने के लिये वे उसे प्रकट नहीं करते। भगवान अब पूतना को मारने वाले हैं, परन्तु उसकी मृत्युकालीन पीड़ा को अपनी आँखों देखना नहीं चाहते, इसी से उन्होंने नेत्र बंद कर लिये। 21. छोटे बालकों का स्वभाव है कि वे अपनी माँ के सामने खूब खेलते हैं, पर किसी अपरिचित को देखकर डर जाते हैं और नेत्र मूँद लेते हैं। अपरिचित पूतना को देखकर इसीलिये बाल-लीला-विहारी भगवान ने नेत्र बंद कर लिये। यह उनकी बाल लीला का माधुर्य है।
  3. वे उसका दूध पीने लगे और उनका साथी क्रोध प्राण पीने लगा। भगवान रोष के साथ पूतना के प्राणों के सहित स्तन-पान करने लगे, इसका यह अर्थ प्रतीत होता है कि रोष (रोषाधिष्ठातृ-देवता रूद्र) ने प्राणों का पान किया और श्रीकृष्ण ने स्तन का।
  4. पूतना के वक्षःस्थल पर क्रीड़ा करते हुए मानो मन-ही-मन कह रह थे- ‘मैं दुधमुँहाँ शिशु हूँ, स्तन पान ही मेरी जीविका है। तुमने स्वयं अपना स्तन मेरे मुँह में दे दिया और मैंने पिया। इससे यदि तुम मर जाती हो तो स्वयं तुम्हीं बताओ इसमें मेरा क्या अपराध है।’ राजा बलि की कन्या थी रत्नमाला। यज्ञशाला में वामन भगवान को देखकर उसके हृदय में पुत्र स्नेह का भाव उदय हो आया। वह मन-ही-मन अभिलाषा करने लगी कि यदि मुझे ऐसा बालक हो और मैं उसे स्तन पिलाऊँ तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। वामन भगवान ने अपने भक्त बलि की पुत्री के इस मनोरथ का मन-ही-मन अनुमोदन किया। वही द्वापर में पूतना हुई और श्रीकृष्ण के स्पर्श से उसकी लालसा पूर्ण हुई।
  5. पागलपन
  6. मृगी
  7. इस प्रसंग को पढ़कर भावुक भक्त भगवान से कहता है- "भगवन! जान पड़ता है, आपकी अपेक्षा भी आपके नाम में शक्ति अधिक है; क्योंकि आप त्रिलोकी की रक्षा करते हैं और नाम आपकी रक्षा कर रहा है॥
  8. जब ब्रह्माजी ग्वालबाल और बछड़ों को हर ले गये, तब भगवान स्वयं ही बछड़े और ग्वालबाल बन गये, उस समय अपने विभिन्न रूपों से उन्होंने अपनी साथी अनेकों गोप और वत्सो की माताओं का स्तन पान किया। इसीलिये यहाँ बहुवचन का प्रयोग किया गया है।

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