ब्रज का स्वतंत्रता संग्राम 1857

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ब्रज का स्वतंत्रता संग्राम 1857
ब्रज के विभिन्न दृश्य
विवरण भागवत में ‘ब्रज’ क्षेत्र विशेष को इंगित करते हुए ही प्रयुक्त हुआ है। वहाँ इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘ब्रज’ कहा गया है। 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेश के अर्थ में होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तब उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था।
ब्रज क्षेत्र आज जिसे हम ब्रज क्षेत्र मानते हैं उसकी दिशाऐं, उत्तर दिशा में पलवल (हरियाणा), दक्षिण में ग्वालियर (मध्य प्रदेश), पश्चिम में भरतपुर (राजस्थान) और पूर्व में एटा (उत्तर प्रदेश) को छूती हैं।
ब्रज के केंद्र मथुरा एवं वृन्दावन
ब्रज के वन कोटवन, काम्यवन, कुमुदवन, कोकिलावन, खदिरवन, तालवन, बहुलावन, बिहारवन, बेलवन, भद्रवन, भांडीरवन, मधुवन, महावन, लौहजंघवन एवं वृन्दावन
भाषा हिंदी और ब्रजभाषा
प्रमुख पर्व एवं त्योहार होली, कृष्ण जन्माष्टमी, यम द्वितीया, गुरु पूर्णिमा, राधाष्टमी, गोवर्धन पूजा, गोपाष्टमी, नन्दोत्सव एवं कंस मेला
प्रमुख दर्शनीय स्थल कृष्ण जन्मभूमि, द्वारिकाधीश मन्दिर, राजकीय संग्रहालय, बांके बिहारी मन्दिर, रंग नाथ जी मन्दिर, गोविन्द देव मन्दिर, इस्कॉन मन्दिर, मदन मोहन मन्दिर, दानघाटी मंदिर, मानसी गंगा, कुसुम सरोवर, जयगुरुदेव मन्दिर, राधा रानी मंदिर, नन्द जी मंदिर, विश्राम घाट , दाऊजी मंदिर
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अन्य जानकारी ब्रज के वन–उपवन, कुन्ज–निकुन्ज, श्री यमुना व गिरिराज अत्यन्त मोहक हैं। पक्षियों का मधुर स्वर एकांकी स्थली को मादक एवं मनोहर बनाता है। मोरों की बहुतायत तथा उनकी पिऊ–पिऊ की आवाज़ से वातावरण गुन्जायमान रहता है।

ब्रज का स्वतंत्रता संग्राम 1857


मथुरा ज़िले का योगदान

मथुरा 30 मई सन् 1857 ई. की गरमियों का दिन था। समय सन्ध्या के चार बजे थे। स्थान था मथुरा का कलक्ट्री-स्थित सरकारी कोषागार। कोषाधिकारी डैशमैंन थे और ज़िला मजिस्ट्रेट और कलक्टर मार्क थॉर्नहिल थे। लुटेरे 67 वीं और 44 वीं नेटिव इंनफैण्ट्री के सशस्त्र सैनिक थे। सेना के कमाण्डर लेफ्टीनेंट बर्ल्टन धराशायी हो गये थे। चार लाख साठ हज़ार, एक सौ चाँदी के रुपयों से भरी ग्यारह बैलगाड़ियों पर लदीं लोहे की सेफों का आगरा की जगह पर दिल्ली को प्रस्थान हो गया था। कोषागार में बचे हुए दो लाख रुपयों की मथुरा सदर के लोगों द्वारा लूट कर ली गई थी और प्रशासन स्तब्ध रह गया था।

मथुरा के शासन की लगाम भारतीय सैनिकों के हाथों में आ गयी थी। यूरोपियन बंगले और कलक्ट्री-भवन सब आग को समर्पित कर मथुरा जेल के बन्दी कारागार से मुक्त हो गये थे। विदेशी हुकूमत को मिटाकर स्वाधीनता का शंखनाद करने वाले, अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र के हाथ मज़बूत करने भारत माता के विप्लवी सपूत गर्वोन्मत भाव से मचल पड़े और चल पड़े कोसी की दिशा में शेरशाह सूरी राज मार्ग से, जहाँ अंग्रेज़ी सेना दिल्ली की ओर से मथुरा की ओर आने वाले भारतीय क्रान्तिवीरों के टिड्डी दलों को रोकने के उद्देश्य से जमा थी। थाँर्नहिल स्वयं पड़ाव डाले पड़ा था। यह सनसनीखेज कहानी किसी कल्पित उपन्यास का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो ख़ुद अंग्रेज़ कलक्टर की क़लम से पश्चिमोत्तर प्रान्त के आगरा स्थित तत्कालीन गवर्नमेंट सेक्रेटरी सी. बी. थॉर्नहिल के नाम 5 जून 1857 को लिखा गया था। इस ऐतिहासिक घटना का सार संक्षेप में इस तरह है।

पल्टनों का खुला विद्रोह

Blockquote-open.gif चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं, सम्राटों के शव पर,

है हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के शिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!

मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक ।

पुष्प की अभिलाषा।

कवि: माखनलाल चतुर्वेदी Blockquote-close.gif

विगत दो माह से 67वीं पल्टन मथुरा में सरकार की ओर से तैनात थी। उसके कार्य मुक्त होने का समय हो चुका था। उसके स्थान पर 44वीं नेटिव इंनफैण्ट्री को कार्यभार ग्रहण करना था। पश्चिमोत्तर प्रान्त के लेखाकार के आदेशानुसार कार्यमुक्त 67वीं पल्टन को दायित्व सौंपा गया कि वह मथुरा के अतिरिक्त ख़ज़ाने को आगरा पहुँचा दे। तदानुसार, नयी कम्पनी के आ जाने पर कोषाधिकारी डैशमैंन ने 4 लाख 60 हज़ार एक सौ तथा फ़र्रुख़ाबाद के ख़ज़ाने को दस बैलगाड़ियों में लदवा दिया। ग्यारहवीं और अन्तिम गाड़ी तैयार हो रही थीं और जैसे ही वह लाइन में पहुँची कि 67 वीं पल्टन के एक सैनिक ने कमांडर बर्ल्टन से पूछा -'कूँच कहाँ को होगा।' बर्ल्टन का कड़दार उत्तर आया-'आगरा की ओर और कहाँ ?' सैनिक का प्रश्न था- 'दिल्ली को क्यों नहीं' बर्ल्टन कड़का- 'बदमाश। बेईमान।' शब्द पूरा होते न होते सैनिक की बन्दूक गरज उठी- 'धाँय' । गोली बर्ल्टन की छाती को चीरती चली गई। वह धराशायी हो गया।


थॉर्नहिल लिखता है कि 44 वीं पल्टन भी तुरन्त विद्रोहियों से जा मिली। जमकर यूरोपियनों पर गोलिंयाँ दागी गई। कार्यालय में उस समय जितने यूरोपियन और ईसाई थे, जहाँ तहाँ जान बचाकर भागने और छिपने लगे। यह संयोग ही कहा जायगा कि 44 वीं पल्टन के कमांडर को छोड़कर सभी बच निकले। कमांडर गिबन्स की हथेली फट गई। विद्रोहियों ने कार्यालय में आग लगा दी और सरकारी अभिलेखागार को नष्ट कर डाला। आसपास जितने भी बंगले विदेशियों के थे, सब जलाकर तहस-नहस कर डाले गये। कोषागर में जो बची सम्पत्ति और धनराशि थी, वह भी सभी समीपवर्ती लोगों द्वारा, संभवत: लूट ली गई। कारागार में जितने भी बन्दी थे, जेल तोड़कर मुक्त कर दिये गये। बन्दियों को शहर लाया गया और लोहारों से उनकी हथकड़ियाँ-बेड़ियाँ कटवाई गई। कारागार के प्रहरी भी क्रान्तिकारियों के साथ हो लिये।


सी. एफ. हार्वे, कमिश्नर आगरा को अपने 10 अगस्त 1857 के एक और पत्र में थाँर्नहिल लिखता है कि यूरोपियन लोगों को विद्रोह की पहली सूचना कार्यालय में लगी आग की ऊँची लपटों से मिली। वे सब बचकर आगरा को भाग लिये। कारागार के प्रहरी भी क्रान्तिकारियों के साथ मिल गये और ख़ज़ाने के साथ दिल्ली की ओर चल दिये। सड़क के सहारे जो भी कार्यालय या बंगला, चुंगी चौकी, पुलिस चौकी या कोई भी सरकारी भवन मिला, सब फूँक दिये गये। रास्ते के सभी ज़मींदार विद्रोहियों के साथ हो गये। कोसी में प्रवेश कर गये। रघुनाथ सिंह के पास भारी संख्या में सैनिक थे, किन्तु उसने विद्रोहियों को नहीं छेड़ा और वे प्रवेश कर गये। रघुनाथ सिंह के अधिकार में मथुरा के सेठ की दी हुई दो तोप भी थीं और वह विद्रोहियों को रोकने के उद्देश्य से टुकड़ी के साथ कोसी भेजा गया था। परन्तु, उसने उन्हें न रोका। उल्टे उसने कोसी की लूट में विद्रोही सैनिकों की सहायता की। यही नहीं, कोसी में उसने थाँर्नहिल की निजी सम्पत्ति भी लूट ली।


सैनिक गाड़ियों पर लदे मात्र 5 लाख रुपये ले जा सके थे। सवा लाख के लगभग ख़ज़ाना अभी कोषागार में जमा था, जिसमें रुपये, पैसे और जवाहरात आदि थे, जो यूरोपियन लोगों ने सुरक्षा की दृष्टि से जमा कर रखे थे और बिना उन्हें निकाले वे आगरा को भाग गये थे। जैसे ही ज्ञात हुआ कि ख़ज़ाने में सम्पत्ति छूट गई है, पूरा शहर उसे लूटने को टूट पड़ा। इनका नेतृत्व शहर कोतवाल कर रहा था और भरतपुर पल्टन के सैनिक भी लुटेरों में सम्मिलित थे। जब तक आग की लपटें उन्हें झुलसाने न लगीं, वे लूटपाट करते रहे। लूट के बाद वे परस्पर लड़ने लगे और भयंकर विप्लव मच गया। सर्वाधिक 30 लोग इसमें काल का ग्रास बने। यह घटना 30 मई की है ।


थॉर्नहिल 29 मई को कोसी पहुँच चुका था। 30 मई की शाम डैशवुड, कालविन, गिबन, जॉयस नामक अंग्रेज़ अधिकारी और कलक्टर का हैडक्लर्क कोसी पहुँचे और उन्होंनें कलक्टर को कोषागार की पल्टनों तथा अन्य द्वारा लूट का वृत्तांत सुनाया। थॉर्नहिल तत्काल कैप्टेन निक्सन से मिलने चल पड़ा। रास्ते में उसने रघुनाथ सिंह को बुलवाया मगर उसने आने से इन्कार कर दिया। यही नहीं उसने कलक्टर को अपने तम्बू में घुसने भी नहीं दिया और सेठ की दोनों तोपें भी नहीं दीं। पक्की ख़बरें मिल रही थीं कि दिल्ली की ओर अकूत संख्या में क्रान्तिकारी कोसी पहुँचने वाले हैं। अत: निक्सन उनसे निबटने की तैयारी में तत्पर हुआ। किन्तु उसकी पल्टन ने उल्टे उसी पर बंदूक़ें तान दीं। अब भरतपुर पल्टन भी खुले विद्रोह पर उतर आई। निक्सन और थार्नहिल के सामने जान बचाकर भागने के अतिरिक्त अब और कोई विकल्प न था। फिरंगी सी. एफ. हार्वे के साथ सेना को और थॉर्नहिल जॉयस के साथ मथुरा की ओर चल पड़े ।


31 मई के प्रात: पूर्व 3 बजे थार्नहिल मथुरा आ सका। यहाँ उसने जलते हुए कार्यालय को देखा और सहायतार्थ आगरा को चल पड़ा। रास्ते में कई गाँवों से उस पर गोलियाँ दागी गईं। मगर येनकेन प्रकारेण वह बच निकला। अपने पत्र में थार्नहिल ने यह स्वीकार किया है कि सारा देश एक साथ एकजुट उठ खड़ा हुआ है। शासन का नाम नहीं रहा। अराजकता व्याप्त है। प्रशासन को लकवा मार गया है। आगामी शाम को वह मथुरा लौट आया। उसे आगरा से किसी प्रकार की सहायता न मिल सकी। वह सेठ गोविन्ददास की हवेली में पहुँचा, जहाँ उसे ससम्मान शरण दी गई। हैशमैन दम्पती पहले ही वहाँ मौजूद थे। 31 मई को लोगों ने सदर छावनी में भयंकर लूटपाट की। बंगले जला दिये गये। जो नहीं जलाये गये, उनका सामान यहाँ तक कि किवाड़ चौखटें तक उखाड़कर लोग ले गये। सहार, कोसी और नौहझील की तहसील भी लूटपाट और नाश की शिकार बनी। राया में अचरू के राजा देवीसिंह ने राया थाने पर अधिकार कर लिया। सादाबाद में देवकरन के नेतृत्व में क्रान्तिवीर सक्रिय हो उठे ।

मथुरा में 30 मई की घटना के कलक्ट्री कर्मचारियों के साक्ष्य वक्तव्यों का अनुवाद इस प्रकार है-

लाला ठाकुर प्रसाद स्याह नबीस का साक्ष्य

पिता का नाम- दुर्गा प्रसाद,

जाति-कायस्थ,

वर्त्तमान निवासी-मथुरा,

आयु-37 वर्ष,

व्यवसाय-नौकरी ।


प्रश्न- मई 30, 1857 ई. को 4 बजे के बाद तिलंगा विद्रोही मथुरा के ख़ज़ाने को दिल्ली ले गये। उन्होंनें कार्यालय में आग लगाई। तुम वहाँ थे। घटना का विस्तृत विवरण दो ।

उत्तर- 30 मई 1857 को कप्तान श्री डेविड और श्री कालविन ने 4 लाख 60 हज़ार की धनराशि बैलगाड़ियों पर लदवाई और आगरा ले जाने के लिये सूबेदारों और तिलंगों को सौंप दी। शेष 1 लाख 40 हज़ार की राशि ख़ज़ाने की तिज़ोरियों में ताले में बन्द छोड़ दी। इसी बीच तिलंगो ने कप्तान(बर्ल्टन)को गोली से भून दिया और अन्य अंग्रेज़ों पर भी गोलियाँ चलाई। किन्तु वे बच गये और एक ब्रह्राण मारा गया। इसके बाद अंग्रेज़ और ईसाई मथुरा की ओर भाग गये। कुंजीलाल भय के मारे अपनी जगह से न हिल सका और वह चारों ओर से घिर गया। तब तिलंगे कमरे में घुसे और उन्होंने कुंजोला, हरदयाल को और मुझे कमरे से बाहर निकाल दिया। हम मथुरा भाग गये। तिलंगा हमें जान से मारना चाहते थे किन्तु एक हवलदार ने हमें बचाकर एक किनारे से बचकर निकल जाने को कहा। मैं घबराया हुआ था। मैंनें किसी विशेष व्यक्ति को विद्रोहियों में नहीं देखा। जब हमने कोषागार छोड़ा था, तिलंगे और ख़ज़ाने से लदी गाड़ियाँ वही खड़ी थीं। हमारे चले जाने के बाद तिलंगे उन्हें ले गये। उन्होंने मथुरा छावनी में बंगलों को आग लगाई और दिल्ली मार्ग पर चले गये।

केशवसिंह चपरासी का साक्ष्य

पिता का नाम- राम वख्श ठाकुर

निवासी-इटावा

आयु-40 वर्ष

व्यवसाय-नौकरी

प्रश्न- 30 मई,1857 ई. को विद्रोही तिलंगों की पलटनें मथुरा ख़ज़ाने को दिल्ली ले गये और उन्होंनें कार्यालय-अभिलेखों को जलाया। क्या तुम वहाँ उपस्थित थे ? घटना का विवरण दो।

उत्तर- मुझे तिथि याद नहीं हैं। ख़ज़ाना बैलगाड़ियों पर आगरा के लिये लदा था। सारे चपरासी बैलगाड़ियों तक ख़ज़ाने से थैली को ले जा रहे थे। 11 गाड़ियों पर 4 लाख रुपये लादे गये थे। एक लाख रुपये तथा पैसों से भरे बक्स कोठी में छोड़ दिये गये थे। शेष ख़ज़ाने से भरी तिज़ोरी की चाबी छोटे साहब( ज्वॉइंट मजिस्ट्रेट) के पास थीं। लदी गाड़ियां नीम के पेड़ के तले खड़ी थीं। मुझे कप्तान साहब के नाम की जानकारी नहीं है। वह गाड़ियों को गिन रहे थे। तभी एक तिलंगे ने उन्हें गोली से मार दिया। तब तिलंगों ने छोटे साहब और दूसरे कप्तान पर गोलियाँ दागीं, जो ख़ज़ाने के बरामदे में खड़े थे। किन्तु वे चुटैल नहीं हुए। इससे सीता ब्राह्मण घायल हो गया और तत्काल मर गया। तब कप्तान और अन्य अंग्रेज़ मथुरा की ओर भाग गये । डिप्टी कलक्टर ग़ुलाम हुसैन, नायब नाजिर और कुछ चपरासी तब भी तहसील पर रहे आये। जब तिंलंगों ने तहसील की इमारत में आग लगा दी, तब वे तहसील छोड़कर सदर बजार चले गये। तिलंगों ने उनसे कहा- 'आप कहाँ जा रहे हैं ? हमारे साथ आइये ।' किन्तु वे रफूचक्कर हो गये। सूर्यास्त से पहले तिलंगों ने कार्यालय फूंक दिया और ख़ज़ाना ले गये। जाते समय उन्होंने हमसे भी अपने साथ चलने को कहा। इसे सुनकर नायब नाजिर मुहम्मद हुसैन, अल्ला वख्श, अहमद खाँ चपरासी, जिसका नाम अब मुझे याद नहीं, हौली पल्लेदार, आठ कुली-जो ख़ज़ाना लदवाने आये थे और मैं वहीं बने रहे। हम सदर बाज़ार जानअली दफ़्तरी के घर गये। नायब नाजिर और चपरासी उसके घर रूक गये। मैं सदर बाज़ार के द्वार के पास मन्दिर पर रूका रहा। रात के अंधेरे में लगभग 8 बजे मैंने सदर बाज़ार और मथुरा के दूसरे लोगों को राजकोषागार को समूहों में जाते देखा। जो कुछ ख़ज़ाने में बचा था, उन लोगों ने लूटा। दूसरे दिन सवेरे कुछ घुड़सवारों के सा मथुरा के कोतवाल, सदर बाज़ार के कोतवाल और नायब नाजिर मुहम्मद हुसैन कोठी पर आये, जबकि पूरी सात कोठी आग की लपटों में जलीं और खुलीं रहीं। नायब नाजिर ने एक लुटेरे से यह कहकर पैसों से भरा एक थैला जबरदस्ती छीन लिया कि यह वापिस ख़ज़ाने में जमा किया जायगा। यदि अधिकारियों में से किसी ने भी नियमितता बरती होती तो तिलंगों के ख़ज़ाना लूटने के बाद बचा हुआ धन सुरक्षित किया जा सकता था ।

प्रश्न- अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद डिप्टी कलक्टर ग़ुलाम हुसैन कोषागार परिसर में कितनी देर रुके रहे ?

उत्तर- डिप्टी साहब वहाँ चार घड़ी बने रहे। उस समय मैंने स्टाफ के अन्य किसी व्यक्ति को नहीं देखा ।

प्रश्न – तिलंगों ने किस समय उस स्थान से ख़ज़ाने को हटाया ? और बचे खुचे ख़ज़ाने की लूट कब आरम्भ हुई ?

उत्तर- 6 बजे तिलंगे कोठी से प्रस्थान कर गये और 8 बजे सामान्य जनों ने बचे खुचे ख़ज़ाने की लूट आरंभ की। मैंने यह सब स्वयं अपनी आँखों से देखा ।

प्रश्न- उन लुटेरों में से क्या तुम किसी को पहचानते हो ?

उत्तर- उस समय रात थी और उस समय सदर बाज़ार तथा शहर के हज़ारों आदमी थे ।

4 मार्च 1858 को ज़िला मथुरा के कार्यकारी मजिस्द्रेट आई. के 0 बैस्ट के न्यायालय में मृत्यु-दण्ड पाने वाले अख्तियार खाँ के विरुद्ध आरोप पत्र का उध्दरण-

साक्ष्य से यह बहुत स्पष्ट हो गया है कि प्रतिपक्षी गदरियों –अर्थात् 44 वीं नेटिव इन्फेंट्री रेजीमेंट और 67वीं पलटन के साथ कोसी आया था, जिसने उनके एक अधिकारी(बर्ल्टन) की हत्या की और दूसरे (गिबन) को घायल करके मथुरा कोषागार का 4 लाख रुपया लूटा था। प्रतिपक्षी एक घोड़े पर सवार था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वह अपनी इच्छा और स्वीकृति से कस्टम कार्यालय के असंख्य कर्मचारियों के साथ गदरियों के साथ सम्मिलित हुआ था। तत्पश्चात् वह दिल्ली गया। कैप्टेन बर्ल्टन जहाँ धराशायी हुआ था, वहाँ उसके नाम का पत्थर अभी भी लगा हुआ है, जो घनी जंगली झाड़ियों से ढका हुआ है। इस सादा पत्थर पर लिखा है-

Sacred to memory of P.H.S.Burlton.Sixty Seventh Infantry ,Who was shot by a detachement of his regiment and of the Eleventh native Infantry near this spot on 30th of May 1857.This tomb is erected by his brother officers.

किन्तु स्वाधीनता संग्राम 1857 में जिस अमर शहीद अख्तियार खाँ ने क्रान्ति की पहली मशाल हज़ारों हज़ार शूरवीरों का नेतृत्व करके प्रज्वलित कर अपना जीवन मातृभूमि की बलिदेवी पर भेंट चढ़ाया, क्या उसकी पावन स्मृति में आज स्वतंत्र भारत में भी कोई स्मारक पत्थर नहीं लगना चाहिये था ? यदि यह दलील भी मान ली जाय कि अख्तियार खाँ एक अनैतिहासिक नाम हैं और ऐसे अनेक अज्ञात नाम हैं, परन्तु हम नानाराव धुन्धूपन्त को तो अनैतिहासिक नाम नहीं कह सकते। नानाराव के मथुरा स्थित भवन और बाग़ को कलक्टर थॉर्नहिल ने नवम्बर 1857 में मथुरा के शहर कोतवाल को आदेश देकर ध्वस्त कराके शहर भर की गन्दगी भरवा दी थी। नानाराव सपरिवार भतीजे बालाराव के साथ जहाँ क्रान्तिकाल में भी ठहरे थे, उस स्थान की पवित्रता की रक्षा तो दूर, आज के पेंशनर स्वाधीनता संग्राम सेनानियों और लेखकों को इस तथ्य की जानकारी तक नहीं तो नानाराव के ही स्मारक की सुधि लेने को किसे आज इस स्वार्थी जगत् में अवकाश है ? प्रथम शहीद सीता ब्राह्मण, राजा देवीसिंह, श्रीराम, देवकरन आदि का नाम लेना भी शायद शेष न होगा, हाँ थॉर्नहिल के प्राणारक्षक जमादार दिलावर खाँ का नाम पुरस्कृतों की सूची में ग्राउस ने अवश्य लिखा था। क्या 1857 के शहीदों की देशभक्ति के प्रति हम कृतघ्न नहीं कहलायेगें ?

थार्नहिल का पत्र

मार्क थार्नहिल ने दि0 10-8-1858 को सी. एफ. हार्वे, कमिश्नर, आगरा के नाम लिखे पत्र में मथुरा में हुए संघर्ष का वर्णन इस प्रकार है- 14 मई सन् 1857 ई. को गुड़गाँव के कलक्टर से मुझे सूचना मिली है कि विद्रोही मथुरा ज़िले की ओर पहुँचे रहे हैं। सूचना पक्की नहीं थी किन्तु बाद में ज़िले की उत्तरी सीमाओं पर बसे हुए कस्टम्स और रेलवे विभाग के यूरोपियनों के पत्रों से यह सूचना पुष्ट हुई। यूरोपियन स्त्रियाँ तथा अन्य नागरिक तत्काल ही आगरा भेज दिये गये। दूसरे दिन और आगामी दिनों में कोई पक्की सूचना नहीं मिल सकी। गुड़गाँव के तथा मथुरा के उत्तरी भाग से आये हुए यूरोपियन लोग तथा दूसरे लोग सनसनी भरी सूचनायें लेकर आये कि विद्रोही सेना पहुँच चुकी है। इन सभी से यह सार निकला कि पूरी विद्रोही सेना आगरा पर आक्रमण करने के उद्देश्य से चल पड़ी है। 16 मई को कप्तान निक्सन भरतपुर सेना को लेकर मथुरा आ गया। दूसरे दिन ज्ञात हुआ कि विद्रोही सेना के आनेकी सूचना सत्य नहीं थी। कप्तान निक्सन ने तब दिल्ली की ओर कूँच करने का निश्चय किया। मेरे विचार से उसने दिल्ली आगरा मार्ग को खोलने तथा कमांडर इन चीफ से समायोजन करने की दृष्टि से ऐसा निश्चय लिया। इस समाचार से पूरी आबादी में अव्यवस्था फैल गई थी कि दिल्ली पर विद्रोहियों ने अधिकार जमा लिया है और दिल्ली के बादशाह ने घोषणा कर दी है। विशेषकर बनियों पर और पुराने जमींदारों द्वारा नयों से भूमि छीनने को हुए हमलों के कारण ये उपद्रव हो रहे थे।

ख़ज़ाना आगरा को

सवा छै लाख रुपया ख़ज़ाने में था, जो आगरा की किसी देशी पल्टन की चौकीदारी में था। व्यक्तियों के अनुसार और मुझे व्यक्तिगत प्राप्त हुई सूचनाओं के आधार पर मैंने आगरा को सबल संस्तुति के साथ लिखा कि ख़ज़ाना आगरा भेज दिया जाय। उसे भेजने के लिये बैलगाड़ियाँ कार्यालय पर तैयार खड़ी थीं। दुर्भाग्य से मेरी संस्तुति किसी ने न सुनी। 19 मई को कप्तान निक्सन दिल्ली की ओर कूंच कर गया। मैंने उसका साथ दिया और हम लम्बे पड़ाव डालते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़े। शहर की रक्षा के लिये एक टुकड़ी पीछे छोड़ दी गई। पर्याप्त संख्या में नयी पुलिस भर्ती कर ली गई थी। नये सवार भी बढ़ाने का प्रयास किया गया किन्तु इसमें सफलता कम मिली। शहर की बड़ी सुरक्षा सेठ गोविन्द दास और राधाकिशन के हाथों में थी। उन्होंने अपने व्यय पर आदमियों की एक बड़ी संख्या खड़ी की थी और अपने प्रभाव से शहरवासियों को शान्त रखा था। ज्वांइट मजिस्ट्रेट क्लिकोर्ड को शहर प्रभारी के रूप में पीछे छोड़ दिया था। किन्तु शीघ्र ही वह बीमारी के कारण चला गया और उनके स्थान पर डैशवुड को रखा गया। इलियट काल्बिन उसका सहायक बनाया गया। 23 मई को अन्य यूरोपियन नागरिकों के साथ आप स्वयं सेना में सम्मिलित हो गये थे। 25 मई को सेना कोसी पहुँच गई। दूसरे दिन होडल पहुँचकर उसने पड़ाव डाला। होडल गुड़गाँव ज़िले में होने के कारण मैं कोसी में हो रह गया। भरतपुर पैदल सेना के 300 जवान और दो तोपें रघुनाथ सिंह नामक एक सरदार के नेतृत्व में मेरे साथ रह गये थे। ये दो तोपें सेठ द्वारा उधार दी गई थीं। ज़िले में उपद्रव संख्या और विविधता में बढ़ गये थे। परगना माँट का ज़मींदार कुँवर दिलदार अली खाँ ग्रामीणों द्वारा मार डाला गया था। 23 मई को उसका एक सम्बन्धी उमराव बहादुर, जिसकी नौहझील परगना में जमींदारी थी, ग्रामीणों द्वारा अपने घर में ही घेर लिया गया था। हमारे बल के पहुँचने पर ग्रामीण भाग गये और तब वह बच पाया। कुछ हत्यायें और हुईं और कुछ दूसरे उपद्रव भी हुए, जो मुझे याद नहीं हैं।



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