महानुशासन

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
रविन्द्र प्रसाद (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:53, 13 मई 2020 का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

महानुशासन (महा+अनुशासन) आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित ग्रन्थ है, जिसमें अपने द्वारा स्थापित चार मठों की व्यवस्था से सम्बन्धित विधान और सिद्धान्त दिये गये हैं। इसमें 73 श्लोक हैं।

  • इस ग्रन्थ के महाम्य महानुशासन में इस बारे में स्पष्ट किया गया है कि कौन शंकराचार्य पद का अधिकारी है और अयोग्य व्यक्ति के लिए क्या व्यवहार होना चाहिए।
  • महानुशासन में दशनामी संन्यासी को संसार में रहते हुए भी उसमें लिप्त न हो जाने का निर्देश है।
  • इस ग्रन्थ में शंकराचार्य ने कहा है कि- "मठों को संपत्ति का संयम करना चाहिए, इतना अन्न होना चाहिए कि असहाय, पीड़ित और दरिद्रजनों को आश्रय दिया जा सके। मठों में दरिद्रता का नाम भी न दिखाई दे। आचार्य और संन्यासी उस वैभव का उपयोग धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए करें, स्वयं निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो, उतना ही ग्रहण करें।"
पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख