श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 22-31

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एकादश स्कन्ध : विंशोऽध्यायः (20)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: विंशोऽध्यायः श्लोक 22-29 का हिन्दी अनुवाद


सांख्य शास्त्र में प्रकृति से लेकर शरीर पर्यन्त सृष्टि का जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि-चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रम से शरीर आदि का प्रकृति में लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तब तक जारी रखना चाहिये, जब तक मन शान्त—स्थिर न हो जाय । जो पुरुष संसार से विरक्त हो गया है और जिसे संसार के पदार्थों में दुःख-बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनों के उपदेश को भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूप के ही चिन्तन में संलग्न रहता है। इस अभ्यास से बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चंचलता, जो अनात्मा शरीर आदि में आत्मबुद्धि करने से हुई है, छोड़ देता है । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योग मार्गों से, वस्तुतत्व का निरिक्षण-परिक्षण करने वाली आत्मविद्या से तथा मेरी प्रतिमा की उपासना से—अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग से मन परमात्मा का चिन्तन करने लगता है: और कोई उपाय नहीं है । उद्धवजी! वैसे तो योगी कभी कोई निन्दित कर्म करता ही नहीं; परन्तु यदि कभी उससे प्रमादवश कोई अपराध बन जाय तो योग के द्वारा ही उस पाप जला डाले, कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि दूसरे प्रायश्चित कभी न करे । अपने-अपने अधिकार में जो निष्ठा है, वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और विधि-निषेध के विधान से यह तात्पर्य निकलता है कि किसी प्रकार विषयासक्ति का परित्याग हो जाय; क्योंकि कर्म तो जन्म से ही अशुद्ध हैं, अनर्थ के मूल हैं। शास्त्र का तात्पर्य उनका नियन्त्रण, नियम ही है। जहाँ तक हो सके प्रवृत्ति का संकोच ही करना चाहिये । जो साधक समस्त कर्मों से विरक्त हो गया हो, उनमें दुःखबुद्धि रखता हो, मेरी लीला कथा के प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग और भोगवासनाएँ दुःखरूप हैं, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्याग में समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगों को तो भोग ले; परन्तु उन्हें सच्चे हृदय से दुःख जनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधा की स्थिति से छुटकारा पाने के लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेम से मेरा भजन करे । इस प्रकार मेरे बतलाये हुए भक्तियोग के द्वारा निरन्तर मेरा भजन करने से मैं उस साधक के हृदय में आकर बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदय की सारी वासनाएँ अपने संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती हैं । इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्मा का साक्षात्कार हो जाता है, तब तो उसके हृदय की गाँठ टूट जाती अहि, उसके सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्मवासनाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं । इसी से जो योगी मेरी भक्ति से युक्त और मेरे चिन्तन में मग्न रहता है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्य की आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण तो प्रायः मेरी भक्ति के द्वारा ही हो जाता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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