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श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 75 श्लोक 17-30

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दशम स्कन्ध: पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः(75) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पञ्चसप्ततितमोऽध्यायःश्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद


उन लोगों के रंग आदि डालने से रानियों के वस्त्र भीग गये थे। इससे उनके शरीर के अंग-प्रत्यंग—वक्षःस्थल, जंघा और कटिभाग कुछ-कुछ दीख-से रहे थे। वे भी पिचकारी और पात्रों में रंग भर-भरकर अपने देवरों और उनके सखाओं पर उड़ेल रही थीं। प्रेमभरी उत्सुकता के कारण उनकी चोटियों और जुड़ों के बन्धन ढीले पड़ गये थे तथा उनमें गूँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे। परीक्षित्! उनका यह रचिर और पवित्र विहार देखकर मलिन अंतःकरण वाले पुरुषों का चित्त चंचल हो उठता था, काम-मोहित हो जाता था ।

चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर द्रौपदी आदि रानियों के साथ सुन्दर-सुन्दर घोड़ों से युक्त एवं सोने के हारों से सुसज्जित रथ पर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वयं राजसूय यज्ञ प्रयाज आदि क्रियाओं के साथ मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गया हो । ऋत्विजनों ने पत्नी-संयाज (एक प्रकार का यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नान सम्बन्धी कर्म करवाकर द्रौपदी के साथ सम्राट् युधिष्ठिर को आचमन करवाया और इसके बाद गंगास्नान । उस समय मनुष्यों की दुन्दुभियों के साथ ही देवताओं की दुन्दभियाँ भी बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पों की वर्षा करने लगे । महाराज युधिष्ठिर के स्नान कर लेने के बाद सभी वर्णों एवं आश्रमों के लोगों नी गंगाजी में स्नान किया; क्योंकि इस स्नान से बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशि से तत्काल मुक्त हो जाता है । तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर ने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण किया तथा विविध प्रकार के आभूषणों से अपने को सजा लिया।फिर ऋत्विज् सदस्य, ब्राम्हण आदि को वस्त्राभूषण दे-देकर उनकी पूजा की । महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें सब में भगवान के ही दर्शन होते। इसलिये वे भाई-बन्धु, कुटुम्बी, नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी और सभी लोगों की बार-बार पूजा करते । उस समय सभी लोग जडाऊ कुण्डल, पुष्पों के हार, पगड़ी, लंगी अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियों के बहुमूल्य हार पहनकर देवताओं के समान शोभायमान हो रहे थे। स्त्रियों के मुखों की भी दोनों कानों के कर्णफूल और घुँघराली अलकों से बड़ी शोभा हो रही तथा उनके कटिभाग में सोने की करधनियाँ तो बहुत ही भली मालूम हो रही थीं । परीक्षित्! राजसूय यज्ञ मन जितने लोग आये थे—परम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रम्हवादी सदस्य, ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, देवता, ऋषि, मुनि पितर तथा अन्य प्राणी और अपने अनुयायियों के साथ लोकपाल—इन सबकी पूजा महाराज युधिष्ठिर ने की। इसके बाद वे लोग धर्मराज से अनुमति लेकर अपने-अपने निवासस्थान को चले गये । परीक्षित्! जैसे मनुष्य अमृतपान करते-करते कभी तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सब लोग भगवद्भक्त राजर्षि युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ की प्रशंसा करते-करते तृप्त न होते थे। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से अपने हितैषी सुहृद्-सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं और भगवान श्रीकृष्ण को भी रोक लिया, क्योंकि उन्हें उसके विछोह की कल्पना से ही बड़ा दुःख होता था ।परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंशी वीर साम्ब आदि को द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा युधिष्ठिर की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द देने के लिये वहीं रह गये । इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथों के महान् समुद्र को जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता मिट गयी ।







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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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