संगम युग

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सुदूर दक्षिण भारत में कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के बीच के क्षेत्र को 'तमिल प्रदेश' कहा जाता था। इस प्रदेश में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था, जिनमें चेर, चोल और पांड्य प्रमुख थे। दक्षिण भारत के इस प्रदेश में तमिल कवियों द्वारा सभाओं तथा गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था। इन गोष्ठियों में विद्वानों के मध्य विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था, इसे ही 'संगम' के नाम से जाना जाता है। 100 ई. से 250 ई. के मध्य दक्षिण भारत में तीन संगमों को आयोजित किया गया। इस युग को ही इतिहास में "संगम युग" के नाम से जाना जाता है। सर्वप्रथम इन गोष्ठियों का आयोजन पांड्य राजाओं के राजकीय संरक्षण में किया गया था, जिसकी राजधानी मदुरई थी।

सामाजिक स्थिति

संगम साहित्यों के अनुसार इस समय समाज में वर्ण व्यवस्था का स्पष्ट विभाजन नहीं था, फिर भी समाज में ब्राह्मणों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। संगम युग में केवल ब्राह्मण ही यज्ञोपवीत धारण कर सकते थे। समाज के अन्य वर्ग के लोगों को उनके प्रांतीय मूल के नाम से जाना जाता था। जैसे- पार्वतीय क्षेत्र के लोगों को 'कुटिन्जी', समुद्रतटीय क्षेत्र के लोगों को 'नैइडल' आदि नामों से जाना जाता था। इस काल की प्रमुख जातियों के विषय में 'तोलकप्पियम' नामक ग्रंथ में विस्तार से जानकारी दी गई है। इस ग्रंथ के अनुसार इस काल की प्रमुख जातियाँ थीं-

  1. टुडियान
  2. परैयान
  3. कादम्बन
  4. पानन आदि।

ब्राह्मणों के अतिरिक्त 'संगम साहित्य' में समाज के चार वर्गों में विभाजन की जानकारी भी प्राप्त होती है। ये चार वर्ग थे- 'अरसर' (राजपरिवार से जुड़ा व्यक्ति), 'बेनिगर' (वणिक वर्ग), 'बल्लाल' (बड़े पृथक् वर्ग, जो कि प्रतिष्ठित थे) तथा 'वेल्लार' (मज़दूर कृषक वर्ग)।

विवाह संस्कार

इस युग में विवाह को एक संस्कार माना जाता था और प्राचीन काल के समान ही आठ प्रकार के विवाह का प्रचलन था। 'संगम काल' में 'दास प्रथा' का प्रचलन नहीं था। उच्च एवं सम्पन्न वर्ग के लोग पक्की ईंटों तथा चूने द्वारा निर्मित भवनों की ऊपरी मंजिल में रहते थे तथा निचली मंजिल में व्यापारिक कार्य किया जाता था। भवनों का निर्माण शास्त्रीय नियमों के अनुसार किया जाता था। निम्न वर्ग के लोगों की स्थिति अत्यन्त ही सामान्य थी।

शिक्षा का स्तर

संगम युग में समाज के सभी वर्गों में शिक्षा का समुचित प्रचलन था, जो कि तत्कालीन युग की एक बहुत बड़ी विशेषता है। साहित्य, विज्ञान, ज्योतिष, गणित, व्याकरण आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षकों को 'कणक्काटम्' तथा विद्यार्थियों को 'पिल्लै' कहा जाता था। मंदिर शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे तथा गुरुदक्षिणा देने की प्रथा का प्रचलन था। इस काल में चित्रकला या मूर्तिकला का भी विकास हो गया था। शिकार खेलना, कुश्ती लड़ना, द्यूत, गोली खेलना, कविता, नाटक, नृत्य, संगीत आदि मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। इस समय का एक प्रमुख वाद्य यंत्र था- 'याल', जो तारयुक्त होता था।

समाज में स्त्री का स्थान

पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को समाज में निम्न स्थान प्राप्त था। कन्या का जन्म अशुभ माना जाता था। स्त्रियों को सम्पत्ति में कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। स्त्रियाँ शिक्षा ग्रहण करती थीं तथा सामाजिक अनुष्ठानों में भाग ले सकती थीं। राजा के अंगरक्षक के रूप में स्त्रियों की नियुक्ति की जाती थी। पत्नी को घर में आदरणीय स्थान प्राप्त था। नृत्य करने वाली स्त्री घरेलू स्त्री के लिए अशुभ मानी जाती थी। विधवाओं को आभूषणों को त्यागकर सिर मुड़वाना पड़ता था तथा कलश के साथ या बिना कलश के भी दफनाने की प्रथा प्रचलित थी। परिवार पितृसत्तात्मक होता था। निम्नवर्ग की स्त्री खेतों में काम करती थीं। उच्च वर्ग की कुछ स्त्रियाँ, जैसे 'ओवैयर' एवं 'नच्चेलियर' ने एक सफल कवयित्री के रूप में अपने को स्थापित किया और इस वर्ग की स्त्रियाँ शिक्षा प्राप्त करती थीं। विधिवाओं की स्थिति इतनी बदतर थी कि वे स्वेच्छा से "सती" होना अधिक सरल समझती थीं। स्वैच्छिक सती प्रथा का प्रचलन संगम कालीन समाज में था। संगम कालीन समाज में गणिकाओं एवं नर्तकियों के रूप में क्रमशः 'परत्तियर' व 'कणिगैचर' का उल्लेख मिलता है। ये वेश्यावृति द्वारा जीवनयापन करती थीं।

शासन व्यवस्था

संगमकालीन साहित्यानुसार इस समय राजा का पद वंशानुगत होता था, जो ज्येष्ठता पर आधारित था। राजा का चरित्रवान, प्रजापालक, निष्पक्ष तथा संयमी होना अनिवार्य था। राजसभा को 'मनडाय' कहा जाता था, जहाँ राजा द्वारा न्यायिक कार्य किये जाते थे। अपने जीवन काल में ही राजा युवराज की नियुक्ति कर देते थे। युवराज को 'कोमहन' तथा अन्य पुत्रों को 'इलेंगों' कहा जाता था। राजा के नि:संतान मरने पर मंत्रियों तथा प्रजा द्वारा राजा का चुनाव किया जाता था। राजा का जन्म दिन इस युग में महोत्सव के रूप में मनाया जाता था। राज्याभिषेक का प्रचलन नहीं था, लेकिन राजा के सिंहासनारूढ़ होने के समय उत्सव का आयोजन किया जाता था। दरबार में कवियों एवं विद्वानों का स्थान सम्मानजनक था।

राज्य संचालन

राजा अपने परामर्शदाताओं की सहायता से शासन कार्य का संचालन करते थे। मुख्य परामर्शदाता थे- पुरोहित, वैश्य, ज्योतिष एवं मंत्रीगण। परामर्शदाताओं की सभा को 'पंचवारक' कहा जाता था। राजा शासन कार्य के संचालन में गुप्तचरों की भी सहायता लिया करता था। गुप्तचरों को 'ओर्टर' कहा जाता था। दण्ड व्यवस्था अत्यन्त कठोर थी। राजा सबसे बड़ा न्यायाधीश होता था। 'मनड़ाय' अर्थात् राजसभा राज्य का सबसे बड़ा न्यायालय था तथा 'मन्नरम' न्याय की सबसे छोटी इकाई थी।

सैन्य प्रबन्धन

राजा के पास रथ, हाथी, अश्व तथा पैदल सेना के चार अंग होते थे। सैनिकों द्वारा जिन शस्त्रों का मुख्यतया प्रयोग किया जाता था, वे थे- 'वेल' (भाला), 'विल' (धनुष), 'कोल' (बाण), 'वाल' (खड़ग) तथा 'कवच' आदि। शहीद सैनिकों की याद में शिलापट्ट लगाये जाते थे। वीरगति प्राप्त यौद्धाओं की पाषाण मूर्तियाँ बनाकर देवताओं की तरह उनकी पूजा की जाती थी। सेनाओं के लिए एक विशेष समारोह का आयोजन किया जाता था, जिसमें सेनापतियों को 'एगाडि' की विशेष उपाधि प्रदान की जाती थी। नगर एवं ग्राम प्रशासन की मुख्य इकाइयाँ थीं, जहाँ का प्रशासन स्थानीय जनप्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता था। 'उर' नाम की संस्था द्वारा नगर प्रशासन का संचालन किया जाता था। ग्राम प्रशासन 'मन्नरम', 'पोदइल', 'अम्बलय' तथा 'अपै' के निर्देशन में संभाला जाता था।

आर्थिक स्थिति

कृषि देश की आर्थिक स्थिति का मूलाधार थी। चावल, राई, गन्ना तथा कपास आदि की खेती की जाती थी। इस समय नदियों तथा तालाबों के द्वारा सिंचाई की जाती थी। भूमिकर राज्य की आय का प्रमुख साधन था, जो उपज का 1/6 भाग वसूल किया जाता था। भूमिकर को 'कराई' कहा जाता था। उस समय 'पारी' नामक राज्य कटहल और शहद तथा चेर राज्य कटहल, काली मिर्च एवं हल्दी की पैदावार के लिए विख्यात थे। सम्पत्ति, बंदरगाह तथा लूट के धन आदि पर भी कर लगाये जाते थे। सामंतों द्वारा दिया जाने वाला कर एवं लूट द्वारा प्राप्त धन 'दुराई' कहलाता था। आवश्यकतानुसार प्रजा से अतिरिक्त कर भी वसूल किया जाता था, जिसे 'इरावु' कहा जाता था। कृषि के अतिरिक्त कपड़ा बुनना प्रमुख उद्योग था। उरैयार तथा मदुरई वस्त्र उद्योग के प्रमुख केंद्र थे। वस्त्र उद्योग के अतिरिक्त रस्सी बाँटना, हाथी दांत की वस्तुएँ बनाना, जहाज़ निर्माण, सोने के आभूषण बनाना तथा समुद्र से मोती निकालने का कार्य भी किया जाता था, जो राज्य के आर्थिक आधार को सशक्त बनाता था।

व्यापार

आंतरिक एवं विदेशी व्यापार की दशा उन्नत थी। आंतरिक व्यापार मुख्यतया आदान प्रदान के द्वारा किया जाता था। 'पण्डी' इस समय विनिमय का मुख्य साधन था। मदुरई तथा पुहार प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे। पुहार तथा शालीपुर बंदरगाह से विदेश व्यापार होता था। इसके अतिरिक्त अन्य प्रमुख बंदरगाह थे- 'गौरा', 'मुजीरित', 'नेलसिडा', 'तोष्डी' आदि। ये बंदरगाह भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित थे। काली मिर्च, मशाला, हाथी दांत, मोती, सूती वस्त्रों का निर्यात तथा तांबा, टीन, शराब आदि वस्तुओं का आयात किया जाता था।

धार्मिक स्थिति

इस समय वैदिक तथा ब्राह्मण धर्मों का समाज में प्रचार प्रसार हुआ। ब्राह्मणों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था तथा राजा द्वारा उन्हें दान भी दिया जाता था। यज्ञों का आयोजन किया जाता था। धार्मिक कार्यों का सम्पादन ब्राह्मणों के द्वार किया जाता था। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म का समाज में नाम मात्र ही प्रचलन था। इस समय मुख्य उपास्य देवता थे-

  1. विष्णु
  2. शिव
  3. श्रीकृष्ण
  4. बलराम आदि।

'वीर पूजा' तथा 'सती पूजा' का भी प्रचलन समाज में था। 'मुरुगन' दक्षिण भारत का सबसे अधिक लोकप्रिय देवता था। कालान्तर में मुरुगन ही 'सुब्रह्मण्यम' कहा गया, और स्कन्द-कार्तिकेय से इस देवता का एकीकरण किया गया। मुरुगन का एक अन्य नाम 'वेल्लन' भी मिलता है। वेल्लन का सम्बन्ध बेल से है, जिसका अर्थ वही है। यह इस देवता का प्रमुख अस्त्र था। किसान लोग 'मरुडम' (इन्द्र) की पूजा करते थे। पुहार के वार्षिक उत्सव में इन्द्र की विशेष प्रकार की पूजा होती थी। 'कौर्रलै' विजय की देवी थी। स्कन्द-कार्तिकेय को उत्तर भारत में शिव-पार्वती के पुत्र के रूप में जाना जाता है। तमिल प्रदेश में मुरुगन का प्रतीक 'मुर्गा' (कुक्कट) को माना गया है, जिसे पर्वत-शिखर पर क्रीड़ा करना पसन्द है। मुरुगन तमिलों के सर्वश्रेष्ठ देवता थे। संगम काल में तमिल प्रदेश में 'बलि प्रथा' का प्रचलन था। देवताओं की पूजा-अर्चना करने के लिए मंदिरों की भी व्यवस्था थी, जिन्हें 'नागर', 'कोट्टम', 'पुराई' या 'कोली' कहा जाता था। यद्यपि मंदिर अपने अस्तित्व में थे तथापि धार्मिक कार्यों का अधिकांशत: आयोजन खुले वृक्षों के नीचे किया जाता था।

संगम साहित्य

'संगम' शब्द का अर्थ है- 'संघ', 'परिषद्', 'गोष्ठी' अथवा 'संस्थान'। वास्तव में संगम तमिल कवियों, विद्वानों, आचार्यों, ज्योतिषियों एवं बुद्धिजीवियों की एक परिषद् थी। तमिल भाषा में लिखे गये प्राचीन साहित्य को ही 'संगम साहित्य' कहा जाता है। तमिल अनुश्रुतियों के अनुसार तीन परिषदों (संगम) का आयोजन हुआ था- 'प्रथम संगम', 'द्वितीय संगम' और 'तृतीय संगम'। तीनों संगम कुल 9950 वर्ष तक चले। इस अवधि में लगभग 8598 कवियों ने अपनी रचनाओं से 'संगम साहित्य' की उन्नति की। कोई 197 पाण्ड्य शासकों ने इन संगमों को अपना संरक्षण प्रदान किया। 'संगम साहित्य' का रचनाकाल विवादास्पद है। इस विषय में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है, फिर भी जो संकेत मिलते हैं, उनके आधार पर यही अनुमान लगाया जा सकता है कि 'संगम साहित्य' का संकलन 100 से 600 ई. के मध्य हुआ होगा। 'संगम साहित्य' में उल्लिखित 'नरकुल' शब्द 'स्मरण प्रश्न' के अर्थ में प्रयुक्त होता था।


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