हेमचन्द्र

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हेमचन्द्र अथवा हेमचन्द्रसूरि (1078 - 1162) श्वेताम्बर परम्परा के एक महान् जैन दार्शनिक और आचार्य थे। हेमचन्द्र दर्शन, धर्म एवं आध्यात्म के महान् चिन्तक होने के साथ-साथ एक महान् वैयाकरण, आलंकारिक, महाकवि, इतिहासकार, पुराणकार, कोशकार, छन्दोऽनुशासक एवं धर्मोपदेशक के रूप में प्रसिद्ध हैं। ये न्याय, व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और योग इन सभी विषयों के प्रखर विद्वान थे। हेमचन्द्र राजा सिद्धराज जयसिंह के सभा-कवि थे। वे बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे। आचार्य श्री जैन योग के महान् ज्ञाता एवं मंत्रशास्त्र के अधिकारी विद्वान थे। इनके अद्वितीय ज्ञान एवं बहुमुखी प्रतिभा के कारण ही इन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' की उपाधि से अलंकृत किया गया है।

जीवन परिचय

श्वैताम्बर जैन परम्परा के आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात में अहमदाबाद से आठ मील दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित धुन्धुका नगर में 1078 ई. की कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि को हुआ था। इनके माता-पिता मोढ़ वंशीय वैश्य थे। इनकी कुलदेवी 'चामुण्डा' और कुलयक्ष 'गोनस' था। आचार्य हेमचन्द्र का मूलनाम चाग्ङदेव था। इनकी माता पाहिनी जैन थीं तथा इनके पिता चाचिंग शैव थे। इनमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि उस काल में दक्षिण भारत तथा गुजरात में ऐसे परिवार अनेक थे, जिनमें पति और पत्नी के धर्म अलग-अलग थे।[1]

बालक चाग्ङदेव को आठ वर्ष की उम्र में स्तम्भतीर्थ (खम्भात) में जैन संघ की अनुमति से दीक्षा दी गई और उनका नाम सोमचन्द्र हो गया। सोमचन्द्र ने अल्पकाल में ही दर्शन, लक्षण एवं साहित्य में अपूर्व ज्ञान प्राप्त कर लिया। बाद में वे 'हेमचन्द्र' कहलाए। 84 वर्ष की आयु में उन्होंने अनशनपूर्वक अन्त्याराधन क्रिया का शुभारम्भ किया और कुमार पाल को धर्मोपदेश देते हुए अपने ऐहिक शरीर का परित्याग कर दिया। आचार्य हेमचन्द्र का समाधि स्थल शत्रुंजय पहाड़ पर स्थित है, जो श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनों परम्पराओं का तीर्थस्थल हो गया है।

दार्शनिक के रूप में

आचार्य हेमचन्द्र ने अन्ययोगव्यवच्छेव और आयोगव्यवच्छेद नामक दो द्वामिंशिकाओं के माध्यम से जैनेतर दर्शनों का खंडन तथा जैन दर्शन के मूल सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। इन दोनों में 32-32 श्लोक हैं। हेमचन्द्र की अन्ययोगव्यवच्छेदिका के ऊपर स्यादवादमंजरी नाम की टीका मल्लिषेण आचार्य ने लिखी है। अयोगव्यवच्छेदिका नाम की दूसरी द्वात्रिंशिका में स्वपक्ष की सिद्धि की गयी है। आचार्य हेमचन्द्र के सम्पूर्ण वाङ्मय का उद्देश्य जैन दर्शन के सिद्धांतों का प्रतिपादन एवं प्रसार रहा है। इस प्रकार उनके ग्रन्थों में, चाहे वे सूत्र साहित्य, काव्य, पुराण अथवा वीतराग स्तुति के हों, जैन दर्शन के ही उच्चतर भावों की अभिव्यक्ति हुई है। विशुद्ध दार्शनिक दृष्टि से देखने पर आचार्य श्री की 'द्वात्रिंशिक', 'प्रमाण मीमांसा' तथा 'योगशास्त्र' की गणना जैन दर्शन के आकर ग्रन्थों में ही जायेगी। अयोगव्यवच्छेदिका में आचार्य हेमचन्द्र ने तीर्थंकरों के आगम को श्रेयस्कर सिद्ध कर जिनशासन की महत्ता की स्थापना की है। आचार्य श्री के अनुसार जैनतर आगम में हिंसा का विधान पाया जाता है। अथच पूर्वा पर विरोध से रहित यथार्थवादी ही प्रमाणित हैं। उनके अनुसार वीतराग को छोड़कर दूसरा कोई न्यायमार्ग नहीं है।

आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्रतीति अभेदगामिनी हो भेदगामिनी, सभी वास्तविक हैं। किसी एक को पूर्ण मानना ही भूल है। सामान्य और विशेष का विचार अपने आप में यथार्थ होने पर भी पूर्ण प्रमाण नहीं है। वह प्रमाण का एक अंश विशेष है। इसे वन और वृक्ष के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। अनेक वृक्षों के सामान्य को वन कहते हैं। वृक्षों को सामान्य वन रूप में स्वीकार करने पर विशेषों का लोप नहीं हो पाता है। पर सभी विशेष सामान्य में लीन हो जाते हैं। परन्तु जब वृक्ष को उसकी इकाई में अलग-अलग ग्रहण करते हैं, तब सामान्य का आभास हो जाता है। दोनों अनुभव सत्य हैं। परन्तु दोनों की सत्यता एकांगी है। किसी एक को पूर्ण सत्य मानना दृढ़वादिता है। पूर्ण सत्य विभिन्न विचारों के समन्वय में है, कारण का कार्य सत्य भी है और असत् भी। बौधों का परमाणुपुन्जवाद एवं नैयायिकों का अपूर्वावयवीवाद दोनों का समन्वय आचार्य ने प्रमाण मीमांसा में अनेकान्तवाद के अंतर्गत किया है। समन्वयवादी विचार दर्शन के अंतर्गत 'नयवाद' और 'भंगवाद' आप ही आप फलित होते हैं।[1]

प्रमाण-मीमांसा

हेमचन्द्र का न्याय-ग्रन्थ 'प्रमाण-मीमांसा' विशेष प्रसिद्ध है। इसके सूत्र और उनकी स्वोपज्ञ टीका दोनों ही सुन्दर और बोधप्रद हैं। न्याय के प्राथमिक अभ्यासी के लिए परीक्षामुख और न्यायदीपिका की तरह इसका भी अभ्यास उपयोगी है। प्रमाण-मीमांसा के अंतर्गत अनेकान्तवाद, प्रमाण, पारमार्थिक प्रत्यक्ष, इन्द्रिय ज्ञान का स्वरूप तथा सीमा, परोक्ष के प्रकार-भेद, अनुमानावयव, निग्रह-स्थान, सर्वज्ञत्व की सिद्धि तथा प्रमाण-प्रमेय आदि सभी विषयों का तात्विक विवेचन किया गया है। इनकी यह अन्तिम एवं अधूरी कृति सूत्र-शैली में लिखी गई है। उन्होंने दूसरे ही सूत्र में प्रमाण की सरल तथा सहज परिभाषा दी है- सम्यगर्थनिर्णय : प्रमाणम्।[1]

आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्रमाण दो प्रकार के हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। स्वतंत्र आत्मा के आश्रित ज्ञान ही प्रत्यक्ष हैं। परतंत्र इन्द्रिजन्य ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है। तत्व चिन्तन में ये विचार नितान्त मौलिक हैं। सभी प्रमाण प्रकाशों को उन्होंने परोक्ष के अंतर्गत माना है। वे इन्द्रियों का स्वतंत्र सामर्थ्य स्वीकार करते हैं। वे अनिन्द्रिय अर्थात् मन और आत्मा दोनों का अलग-अल्ग स्वतंत्र सामर्थ्य भी स्वीकार करते हैं।

प्रमाण शास्त्र

आचार्य हेमचन्द्र ने कथा का वादात्मक रूप स्थिर कर प्रमाण शास्त्र को परिष्कृत एवं परिमार्जित किया। छल आदि कपट व्यवहार को वर्ज्य घोषित कर तर्कशास्त्र को यथार्थवादी संस्कार दिया। 'तत्वसंरक्षतार्थ प्राश्निकादिसमक्षं साधनदूषण-वदनं वाद:[2] कथा वही है, जिसके द्वारा तत्व चिन्तन सुलभ हो सके। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जैन दर्शन वस्तुत: परिणामवादी है। सांख्य, योग का परिणामवाद मात्र चेतनतत्वस्पर्शि है। जैन परिणामवाद, जड़, चेतन, स्थूल, सूक्ष्म, समग्र वस्तुस्पर्शी है। वह सर्वव्यापक परिणामवाद है। आरम्भवाद तथा परिणामवाद का अपूर्व समन्वय जैन सर्वव्यापक परिणामवाद में हो जाता है। प्रमाण मीमांसा में जीन सर्वज्ञवाद की स्थापना की गई है। जैन परम्परा में मूलभूत में सर्वज्ञवादी है जब कि बौद्ध और वैदिक परम्परा इससे भिन्न हैं।[1]

मूल सिद्धांत

प्रमाण मीमांसा के अनुसार सप्तभंगी का आधार नयवाद है और उसका उद्देश्य समन्वय है। दर्शनों का समन्वय बतलाने की दृष्टि से उनके विषयभूत भाव-अभावात्मक दोनों अंशों को लेकर उन पर संभावित वाक्यभंग बनाए जाते हैं। वही सप्तभंगी है। इस तरह नयवाद और भंवाद अनेकान्त दृष्टि के क्षेत्र में आप ही आप फलित हो जाते हैं। समन्वय हेमचन्द्र की प्रमाण मीमांसा का मूल सिद्धांत है।

योगशास्त्र

आचार्य हेमचन्द्र का योगशास्त्र दर्शन तथा धर्म के क्षेत्र में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। योगशास्त्र जैन सम्प्रदाय का विशुद्ध धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रन्थ है। योगशास्त्र को आध्यात्मोपनिषद कहा जाता है। इसमें योग की परिभाषा, 'आसन', रेचक कुम्भक' पूरक आदि प्राणायामों का निरूपण किया गया है। साथ ही आदर्श गृहस्थ जीवन के द्वादश व्रत का विधान किया गया है। आचार्य श्री ने ग्रन्थ में इन्द्रियजय, कषायजय, मन:शुद्धि और रागद्वेष जय की प्रक्रिया का उल्लेख किया है। आत्म-ज्ञान के द्वारा ही कर्मक्षय होता है और ध्यान के द्वारा ही आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। साम्यभाव के बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है और न ध्यान के बिना साम्यभाव उत्पन्न हो सकता है।

ध्यान दो प्रकार के हैं- धर्म्य और शुक्ल- धर्म्य ध्यान की सिद्धि के लिए मैत्री आदि भावनाओं को ध्यान का रसायन बतलाया गया है। रत्नत्रय का भी सम्यक् वर्णन किया गया है। योगशास्त्र के अनुसार आत्मा चिद्रूप है। ध्यानाग्नि से सर्व कर्म भस्मीभूत हो जाता है और आत्मा निरंजन हो जाती है। कषायों को जीतकर जितेन्द्रिय पुरुष निर्वाण प्राप्त करता है। योग की अलौकिक शक्तियों की व्याख्या की है। आचार्य हेमचन्द्र भी आचार्य शुभचन्द्र की तरह प्राणायाम को मोक्ष प्राप्ति में बाधक मानते हैं। वैसे आचार्य के योगशास्त्र तथा महर्षि पतंजलि के योगसूत्र में काफ़ी समानता भी है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 सिंह, डॉ. लालन प्रसाद “96”, विश्व के प्रमुख दार्शनिक (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली, 684।
  2. (2-1-30)

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