एक्लेसिया

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एक्लेसिया प्राचीन काल में एथेन्स में जनतंत्रात्मक सरकार के दो प्रमुख अंग थे-एक्लेसिया (Fcclesia) और बाउल (Voule)। एक्लेसिया जनता की सभा का नाम था। सिद्धांतत: संप्रभुता जनसाधारण के पास थी जिसे वे एक्लेसिया द्वारा प्रयुक्त करते थे। यद्यपि एक्लेसिया की सदस्यता 18 वर्ष से अधिक सभी नागरिकों के लिए थी, फिर भी कुछ ही उसमें भाग लेते थे।

प्रारंभ में एक्लेसिया की बैठक प्रत्येक प्रीत्रानी (Prytranny) में एक बार, अर्थात्‌ वर्ष में 10 बार, होती थी, परंतु जनतंत्रात्मक सरकार के विकास के साथ साथ जब एक्लेसिया के विचारार्थ विषयों की संख्या भी बढ़ने लगी तब प्रत्येक प्रीत्रानी में तीन अन्य अधिवेशनों की व्यवस्था की गई। प्रथम मौलिक अधिवेशन को 'प्रमुख' तथा अन्य तीनों को 'वैध' अधिवेशन की संज्ञा दी गई। बहुत समय तक प्रीत्तानी में केवल एक ही अविधवेशन होते रहने के कारण 'प्रमुख' अधिवेशन का कार्यक्षेत्र विस्तृत था। प्रशासकों के प्रबंध पर विश्वास का मत प्रकट करना, खाद्य तथा सुरक्षा के विषयों पर विचार करना, देशद्रोह के अपराधों को तथा कुर्क की गई संपत्ति का विवरण सुनना आदि इसके मुख्य कार्य थे। सभा के तीन अन्य सामान्य अधिवेशनों का कार्यक्रम इतना विस्तृत नहीं होता था। इनमें से एक अधिवेशन नागारिकों द्वारा किसी विधान या किसी न्यायालय के विरुद्ध अपील के लिए निर्धारित था। शेष दो अधिवेशन अवशिष्ट कार्यो के लिए थे। इनमें से प्रत्येक में सामान्यत: तीन धर्म संबंधी विषय, तीन अंतरराष्ट्रीय समस्याओं से संबंधित विषय जिन्हें राजदूत प्रस्तावित करते थे, तथा तीन सामान्य प्रशासकीय समस्याओं से संबंधित होते थे।

एक्लेसिया या सभा की कार्यसूची (प्रोबूल्यूमा) बाउल या परिषद् तैयार करती थी। अत: सभा केवल उन्हीं विषयों पर विचार करती थी जिन्हें परिषद् उसके पास भेजती थी। परंतु परिषद् द्वारा प्रस्तावित विषयों को स्वीकार, रद्द या संशोधित करने का अधिकार सभा को था। सभी आज्ञप्तियाँ परिषद् तथा जनता के नाम से घोषित की जाती थीं।

एथेन्सवासी जिन दस वर्गो में विभक्त थे उनमें से प्रत्येक वर्ग अपने पचास सदस्य चुनता था, और एक वर्ग के ये पचास सदस्य वर्ष के दसवें भाग भर कार्य करते थे और इसीलिए उन्हें प्रीत्रानीज़ कहते थे। वस्तुत: प्रीत्रानीज़ ही शेष नौ वर्गो में से प्रत्येक के एक सदस्य के साथ बैठकर परिषद् के कार्य करते थे। प्रीत्रानीज़ का अध्यक्ष, जो प्रीत्रानीज़ के पचास सदस्यों में से लाटरी द्वारा केवल एक दिन के लिए चुना जाता था, सभा का भी अध्यक्ष होता था। सचिव राजकीय पत्रों को सभा के लिए पढ़कर सुनाता था तथा राजदूत अध्यक्ष के नाम से सभा के सदस्यों से संसर्ग करता था।

सभा का अधिवेशन प्रात:काल पौ फटने के समय सार्वजनिक चौराहे (अगोरा) या बाजार में प्रारंभ होता था। कार्य क्रम प्रारंभ होने से पूर्व एक वेदी पर शूकरों की बलि देकर तथा उनके रक्त से मंडप की परिधि खींच विघ्नबाधाओं को दूर करने की प्रार्थना की जाती थी। तदुपरांत राजदूत जनता को धोखा देनेवालों के लिए अभिशाप घोषित करता था। आँधी, भूकंप, ग्रहण, वज्रपात, वर्षा आदि को अपशकुन मानकर इनके होने पर अधिवेशन स्थगित कर दिया जाता था।

इन औपचारिकताओं के बाद सभा का अध्यक्ष राजदूत को सभा की कार्यसूची के संबंध में परिषद् की रिपोर्ट पढ़ने का आदेश देता था। अध्यक्ष को ऐसे किसी प्रस्ताव पर, जिसे परिषद् ने नहीं भेजा, बहस प्रारंभ करने से विधान द्वारा वंचित किया गया था। कार्यसूची पढ़ी जाने के बाद अध्यक्ष इस बात पर मत संग्रह करता था कि उसे पूर्णरूपेण स्वीकार कर लिया जाए या उसपर वादविवाद हो। मतदान हाथ उठाकर होता था। इस मतसंग्रह को 'प्रोकीरोतोनिया' कहते थे। साधारणत: बहुमत के बिना कार्यसूची स्वीकार करने की प्रथा नहीं थी। राजदूत के इन शब्दों से कि कौन बोलना चाहता है? बहस प्रारंभ होती थी। प्रत्येक सदस्य को अपने विचार प्रकट करने, बहस प्रारंभ करने तथा संशोधन प्रस्तावित करने का अधिकार था। परंतु इन अधिकारों के दुरूपयोग के लिए कठोर दंड निर्धारित था, और सभी अवैध प्रस्ताव प्रीत्रानीज़ द्वारा रद्द कर दिए जाते थे। बहस के अंत में प्रीत्रानीज़ प्रस्ताव के मतदान के लिए पेश करते थे जिसका ढंग हाथ उठाकर था। निर्णय अध्यक्ष करता था। जिन अधिवेशनों में व्यक्तियों के विरुद्ध गंभीर विषयों पर विचार करना होता था वहाँ गुप्त मतदान की व्यवस्था थी।

सामान्य बैठकों में एक्लेसिया के वैदेशिक नीति संबंधी अधिकार थे जिनमें युद्ध और शांति के प्रश्नों पर निर्णय तथा राजदूतों की नियुक्ति मुख्य थे। इनके अतिरिक्त इसके अपने विधायी और न्यायिक अधिकार भी थे। कार्यकारिणी संबंधी अधिकारों में राज्य के सभी कर्मचारियों की नियुक्ति तथा पदच्युति, और जल एवं थल सेना के सभी विषय इसके हाथ में थे।[1]

सामान्यत: अधिवेशन की आज्ञप्तियों के वैध होने के लिए किसी निश्चित कोरम की आवश्यकता नहीं थीं। परंतु कुछ विषयों के लिए सर्वसम्मति आवश्यक थी जिसके लिए पूर्ण सभा या बैठक की व्यवस्था की जाती थी और जो नगर की सर्वसम्मति की प्रतिनिधि सभा मानी जाती थी। सर्वसम्मति के लिए कम से कम छह हजार मतों का होना अनिवार्य था; दूसरे शब्दों में, कम से कम छह हजार मतों की संख्या को सर्वसम्मति की संख्या मान लिया जाता था। ई.पू. पाँचवीं शताब्दी में पूर्ण बैठक दो विषयों पर विचार करने के लिए बुलाई जाती थी: प्रथम, यह निर्णय करने के लिए कि किन नागरिकों को बहिष्कार के विधान के अंतर्गत नगर से निकाल दिया जाए, दूसरे, किसी को क्षमादान या दंड से मुक्ति देने के लिए।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 215 |
  2. सं.ग्रं.-ऐरिस्टॉट्ल : (अनु.के.पी. फ्रज और ई.कप) द कांस्टिट्यूशन ऑव एथेंस, न्यूयार्क, 1957; गिल्बर्ट, जी. : (अनु. ई.जे.ब्रुक्स और टी.निकिलन) द कांस्टिट्यूशनल ऐंटिक्विटी ऑव स्पार्टा ऐंड एथेंस, लंदन 1895; ग्लाज जी. : द ग्रीक सिटी ऐंड इट्स इंस्टिटयूशन्स, लंदन 1950।

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