टोटम प्रथा

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टोटम प्रथा या टोटमवाद (अंग्रेज़ी: Totemism) किसी समाज के उस विश्वास को कहतें हैं, जिसमें मनुष्यों का किसी जानवर, वृक्ष, पौधे या अन्य आत्मा से सम्बन्ध माना जाए। 'टोटम' शब्द ओजिब्वे[1] नामक मूल अमेरिकी आदिवासी क़बीले की भाषा के 'ओतोतेमन'[2] से लिया गया है, जिसका मतलब 'अपना भाई-बहन रिश्तेदार' है। इसका मूल शब्द 'ओते'[3] है जिसका अर्थ एक ही माँ के जन्में भाई-बहन हैं जिनमें ख़ून का रिश्ता है और जो एक-दूसरे से विवाह नहीं कर सकते। अक्सर टोटम वाले जानवर या वृक्ष का उसे मानने वाले क़बीले के साथ विशेष सम्बन्ध माना जाता है और उसे मारना या हानि पहुँचाना वर्जित होता है या फिर उसे किसी विशेष अवसर पर या विशेष विधि से ही मारा जा सकता है।

व्यापकता

पशु-पक्षी, वृक्ष-पौधों पर व्यक्ति, गण, जाति या जनजाति का नामकरण अत्यंत प्रचलित सामाजिक प्रथा है जो सभ्य और असभ्य दोनों प्रकार के समाजों में पाई जाती है। असभ्य समाजों में यह प्रथा बहुत प्रचलित हैं और कहीं कहीं इसे जनजातीय धर्म का स्वरूप भी प्राप्त है। उत्तरी अमरीका के पचिमी तट पर रहने वाली हैडा, टिलिगिट, क्वाकीटुल आदि जनजातियों में पशुओं आकार के विशाल और भयानक खंभे पाए जाते हैं, जिन्हें इन जातियों के लोग देवता मानते हैं। इनके लिए इन जातियों में टोडेम, ओडोडेम आदि शब्दों का प्रयोग होता है, जिसकी ध्वनि टोटम शब्द में हैं। मध्य आस्ट्रेलिया के अरुंटा आदिवासी, अफ्रीका के पूर्वी मध्य प्रदेशों तथा भारत की जनजातियों में यह प्रथा प्रचलित हैं।

टोटमवाद के मुख्य लक्षण

संसार के विभिन्न प्रदेशों में इस प्रथा का विभिन्न रूप पाया जाता है। परंतु इतिहासकारों का ऐसा मत है कि प्राचीन काल में कभी टोटमीयुग रहा होगा, जिसके अवशेष आज के टोटमी रीति-रिवाज हैं। ऐसे इतिहासकारों में राईनाख और मैकलैनन के नाम उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार की विचारधारा के अनुसार राईनाख ने (1900 ई. में) टोटमिज्म के प्रधान लक्षणों की एक तालिका प्रस्तुत की थी। इस तालिका के अनुसार-

  • कुछ पशु मारे या खाये नहीं जाते और ऐसे पशुओं को उन समुदायों में व्यक्ति पालते हैं।
  • ऐसा कोई पशु यदि मर जाय, तो उसकी मृत्यु पर शोक मनाते हैं। मृतक पशु का कहीं कहीं विधिवत्‌ संस्कार भी किया जाता है।
  • कहीं कहीं पशुमांस भक्षण पर निषेध विशिष्ट पशु के विशिष्ट अंग पर होता है।
  • ऐसे पशु को यदि मारना या बलि देना पड़ जाए तो प्रार्थना आदि के साथ निषेध का उल्लंघन विधिपूर्वक किया जाता है।
  • बलि देने पर भी उस पशु का शोक मनाया जाता है।
  • त्यौहारों पर उस पशु की खाल आदि पहनकर उसका स्वाँग भरा जाता है।
  • गण और व्यक्ति उस पशु पर अपना नाम रखते हैं।
  • गण के सदस्य अपने झंडों और अस्रों पर पशु का चित्र अंकित करते हैं या उसे अपने शरीर पर गुदवाते हैं।
  • यदि पशु खूँखार हो तो भी उसे मित्र और हितैषी मानते हैं।
  • विश्वास करते हैं कि टोटम-पशु उन्हें यथासमय चैतन्य और सावधान कर देगा।
  • पशु गण के सदस्यों को उनका भविष्य बताकर उनका मार्गदर्शन करता है, ऐसी उनकी धारणा है।
  • टोटमवादी उस पशु से अपनी उत्पत्ति मानते हैं और उससे घनिष्ठ संबंध बनाये रखते हैं।

संसार में गणचिह्ववाद (टोटमिज्म) के लक्षण सब कहीं एक से नहीं पाये जाते। उदाहरणत: हैडा तथा टिलिंगिट जातियों में गणचिह्ववाद सामाजिक प्रथा हैं, परंतु उसका धार्मिक स्वरूप विकसित नहीं है। मध्य आस्ट्रेलिया की अरुन्टा जाति में टोटम-धर्म और रीतियाँ पूर्ण विकसित हैं। टोटमी पशु की नकल या स्वाँग नहीं उतारते। अफ्रीका की बंगडा जाति में गणचिह्ववाद का धार्मिक रूप अप्राप्य है। भारत की मुंडा, उराँव, संथाल आदि जातियों में टोटम केवल गणनाम और गणचिह्व के रूप में प्रयुक्त होता हैं। वहाँ टोटम-बलि और टोटम-पूजा की परंपराएँ नहीं पाई जातीं।

आदिवासी कला पर प्रभाव

आदिवासी कला पर गण का प्रभाव प्रचुर मात्रा में मिलता है। छोटा नागपुर तथा मध्य प्रदेश में घरों की दीवारों पर टोटम के चित्र देखने में आते हैं। न्यूजीलैंड के माओरी, अपनी नौकाओं पर अपने टोटम का चित्र उकेर देते हैं। कई अन्य जनजातियों में पहनने के वस्त्र, शस्त्र, उपकरण और झंडे सब पर टोटम चित्रित रहता है। विशेषत: उत्तरी अमरीका और ऑस्ट्रेलिया की आदिवासी कला पर गणचिह्व का प्रभाव बहुत गहरा है। टोटमगण के सदस्य अपने को टोटम की अलौकिक और मानसिक संतान मानते हैं। वे अपने गण में विवाह नहीं करते। इस प्रकार टोटमवादी समाजों में बहिर्विवाह की रीति मान्य होती है। सर जेम्स फ्रेजर का विचार है कि टोटमवाद और बहिर्विवाह में कार्यकरण का संबंध है और वे सदैव साथ-साथ पाए जाते हैं। टोटम को अलौकिक रूप से गणचिह्व मानने के कारण टोटमी गण के सदस्य आपस में रक्तसंबध मानते हैं और इस कारण परस्पर विवाह नहीं करते।

भारत में टोटमी जातियाँ

भारत में अनेक टोटमी जातियाँ हैं। उराँव (कुँड़ुख), संथाल, गोंड, भील, मुंडा, हो इत्यादि जाति में सौ से अधिक ऐसे गण हैं जिनके नाम पशु-पक्षी और वृक्ष पर रखे जाते हैं। उदाहरण के लिए देखा गया है कि महाराष्ट्र में ताम्बे का पारिवारिक नाम रखने वाले लोग नाग को अपना कुल देवता मानते हैं और कभी भी नाग नहीं मारते। 19वीं सदी में सतपुड़ा के जंगलों में रहने वाले भील लोगों में देखा गया कि हर गुट का एक टोटम, जानवर या वृक्ष था। जैसे कि पतंगे, सांप, मोर, बांस, पीपल आदि। एक गुट का टोटम गावला नाम की एक लता थी जिस पर अगर उस गुट के किसी सदस्य का गलती से पैर पड़ जाए तो वह उसको सलाम करके उस से क्षमा-याचना करता था। अगर दो गुटों का एक ही टोटम हो तो उनमें आपस में विवाह करना वर्जित था क्योंकि वह एक ही पूर्वज के वंशज माने जाते थे।

मोरी नामक भील गुट का टोटम मोर था। इसके सदस्यों को मोर के पद-चिह्वों पर पैर डालना मना था। अगर कहीं मोर दिख जाए तो मोरी स्त्रियाँ उस से पर्दा कर लेती थीं या फिर दूसरी तरफ मुंह कर लेती थीं। इसी प्रकार झारखण्ड की ही जाति में लगभग पचास ऐसे टोटमी गण हैं। राजस्थान और खानदेश के भील 24 गणों में विभाजित हैं, जिनमें से कई के नाम पशु-पक्षियों तथा वृक्षों पर आधारित लगते हैं। महाराष्ट्र के कतकरी, मध्य प्रदेश के गोंड और राजस्थान के मीणा, मिलाला आदि जातियों में भी गणों के नाम उनके प्रदेश में पाए जाने वाले पशु-पक्षियों पर रखे जाते हैं। इन सभी जातियों में टोटमी गण नाम के साथ-साथ टोटमवाद के कई लक्षण भी वर्तमान हैं। जैसे टोटम को अलौकिक पितृ शक्ति मानना, टोटम के चित्र तथा संकेतों को भी पवित्र मानकर उनको पूजा जाता है और टोटम को नष्ट करने पर कठोर प्रतिबंध होता है। साथ ही भारत में ऐसी अनेक जातियाँ हैं जो टोटम पर अपने गण अथवा समुदाय का केवल नाम रखती हैं। बहुत सी ऐसी जातियाँ हैं जो केवल टोटम को पूजती भर हैं।

झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश आदि राज्यों के पहाड़ी भू-भाग में निवास करने वाली उराँव जनजाति के बीच टोटम या गणचिह्व व्यवस्था काफी प्रचलित है। लोग अपने टोटम या गणचिह्न का सम्मान करते हैं। अपनी भाषा में इसे लोग गोत्र या गोतर कहते हैं। गोत्र को अंग्रेज़ी में बसंद (क्लान) तथा गोत्रचिह्न या गणचिह्व को जवजमउ (टोटम) कहा जाता है। जैसे- लकड़ा गोत्र का गोत्रचिह्व बाघ है, उसी तरह बड़ा गोत्र का गोत्रचिह्व बरगद का पेड़ है। समान गोत्र में शादी वर्जित है। यह गोत्र, पुरुश वंश परम्परा के आधार पर स्वभाविक रूप से तय माना जाता है। बच्चे का जन्म जिस गोत्र वंश में होता है, उस बच्चे का गोत्र, स्वभाविक रूप से पिता के गोत्र वंश से नामित होता है। पूजा अथवा मृत्यु संस्कार के समय लोग अपने गोत्र-वंश के अनुसार ही कार्य सम्पन्न करते हैं, किन्तु विवाहित महिला को पूजा अथवा मृत्यु संस्कार के समय अपने पति के गोत्र-वंश के अनुसार कार्य करना पड़ता है। इस तरह विवाहित महिला को, जन्म आधारित गोत्र तथा समाज द्वारा निर्धारित गोत्र यानि पति का गोत्र, दोनों को याद रखना पड़ता है। समाज में, जब अपने जन्म आधारित गोत्र वाले व्यक्ति से मिलता है तो वह अपने पिता के वंश अथवा रिस्ते का माना जाता है और माताएँ अपने बच्चों को मामा-मामी, मौसी-मोसा, नाना-नानी आदि रिस्ते से पुकारने के लिए सिखलाती है तथा अपने पति के गोत्र के व्यक्ति से मिलने पर काका-काकी, ताची-मामु, अज्जी-अज्जो रिस्ते से पुकारने को कहती हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. Ojibwe
  2. ototeman
  3. ote

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