दशावतार विष्णु मन्दिर

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दशावतार मन्दिर, देवगढ़

दशावतार विष्णु मन्दिर देवगढ़, झाँसी, उत्तर प्रदेश में स्थित है। इस मन्दिर का समय छठी शती ई. माना जाता है, जब गुप्त वास्तु कला अपने पूर्ण विकास पर थी। देवगढ़ बेतवा नदी के तट पर स्थित है। तट के निकट पहाड़ी पर 24 मन्दिरों के अवशेष हैं, जो 7वीं शती ई. से 12वीं शती ई. तक बने थे। 'दशावतार विष्णु मन्दिर' सम्भवत: देवगढ़ का सर्वोत्कृष्ट स्मारक है, जो अपनी रमणीय कला के लिए भारत भर के उच्च कोटि के मन्दिरों में गिना जाता है।

स्थापत्य

दशावतार विष्णु मन्दिर भग्नप्राय अवस्था में है, किन्तु यह निश्चित है कि प्रारम्भ में इसमें अन्य गुप्त कालीन देवालयों की भांति ही गर्भगृह के चतुर्दिक पटा हुआ प्रदक्षिणा पथ रहा होगा। इस मन्दिर के एक के बजाए चार प्रवेश द्वार थे और उन सबके सामने छोटे-छोटे मंडप तथा सीढ़ियाँ थीं। चारों कोनों में चार छोटे मन्दिर थे। इनके शिखर आमलकों से अलंकृत थे, क्योंकि खंडहरों से अनेक आमलक प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक सीढ़ियों की पंक्ति के पास एक गोखा था। मुख्य मन्दिर के चतुर्दिक कई छोटे मन्दिर थे, जिनकी कुर्सियाँ मुख्य मन्दिर की कुर्सी से नीची है। ये मुख्य मन्दिर के बाद में बने थे। इनमें से एक पर पुष्पावलियों तथा अधोशीर्ष स्तूप का अलंकरण अंकित है। यह अलंकरण देवगढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित मध्ययुगीन जैन मन्दिरों में भी प्रचुरता से प्रयुक्त है।

गुप्त वास्तुकला का प्रभाव

गुप्त वास्तुकला के प्रारूपिक उदाहरण इस मन्दिर में देखने को मिलते हैं, जैसे- विशाल स्तम्भ, जिनके दंड पर अर्ध अथवा तीन चौथाई भाग में अलंकृत गोल पट्टक बने हैं। ऐसे एक स्तम्भ पर छठी शती के अंतिम भाग की गुप्त लिपि में एक अभिलेख पाया गया है, जिससे उपर्युक्त अलंकरण का गुप्त कालीन होना सिद्ध होता है। इस मन्दिर की वास्तुकला की दूसरी विशेषता चैत्य वातायनों के घेरों में कई प्रकार के उत्कीर्ण चित्र हैं। इन चित्रों में प्रवेश द्वार या मूर्ति रखने के अवकाश भी प्रदर्शित हैं। इनके अतिरिक्त सारनाथ की मूर्तिकला का विशिष्ट अभिप्राय स्वस्तिकाकार शीर्ष सहित स्तम्भयुग्म भी इस मन्दिर के चैत्यवातायनों के घेरों में उत्कीर्ण है। दशावतार मन्दिर का शिखर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरचना है। पूर्व गुप्त कालीन मन्दिरों में शिखरों का अभाव है।

मन्दिर का शिखर

देवगढ़ के इस मन्दिर का शिखर अधिक ऊँचा नहीं है, वरन् इसमें क्रमिक घुमाव बनाए गए हैं। इस समय शिखर के निचले भाग की गोलाई ही शेष है, किन्तु इससे पूर्ण शिखर का आभास मिल जाता है। शिखर के आधार के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ की सपाट छत थी, जिसके किनारे पर बड़ी व छोटी चैत्य खिड़कियाँ थीं, जैसा कि महाबलीपुरम के रथों के किनारों पर हैं।

द्वार मंडप दो विशाल स्तम्भों पर आधृत था। प्रवेश द्वार पर पत्थर की चौखट है, जिस पर अनेक देवताओं तथा गंगा और यमुना की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। मन्दिर की बहिर्भित्तियों के अनेक विशाल पट्टों पर गजेन्द्रमोक्ष, शेषशायी भगवान विष्णु आदि के कलात्मक मूर्ति चित्र अंकित हैं। मन्दिर की कुर्सी के चारों ओर भी गुप्त कालीन मूर्तिकारी का वैभव अवलोकनीय है। रामायण और भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से संबंधित दृश्यों का चित्रण बहुत ही कलापूर्ण शैली में प्रदर्शित है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार

बाहरी कड़ियाँ

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