देवरथ -जयशंकर प्रसाद
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दो-तीन रेखाएँ भाल पर, काली पुतलियों के समीप मोटी और काली बरौनियों का घेरा, घनी आपस में मिली रहने वाली भवें और नासा-पुट के नीचे हलकी-हलकी हरियाली उस तापसी के गोरे मुँह पर सबल अभिव्यक्ति की प्रेरणा प्रगट करती थी।
यौवन, काषाय से कहीं छिप सकता है? संसार को दु:खपूर्ण समझकर ही तो वह संघ की शरण में आयी थी। उसके आशापूर्ण हृदय पर कितनी ही ठोकरें लगी थीं। तब भी यौवन ने साथ न छोड़ा। भिक्षुकी बनकर भी वह शान्ति न पा सकी थी। वह आज अत्यन्त अधीर थी।
चैत की अमावस्या का प्रभात था। अश्वत्थ वृक्ष की मिट्टी-सी सफेद डालों और तने पर ताम्र अरुण कोमल पत्तियाँ निकल आयी थीं। उन पर प्रभात की किरणें पड़कर लोट-पोट हो जाती थीं। इतनी स्निग्ध शय्या उन्हें कहाँ मिली थी।
सुजाता सोच रही थी। आज अमावस्या है। अमावस्या तो उसके हृदय में सवेरे से ही अन्धकार भर रही थी। दिन का आलोक उसके लिए नहीं के बराबर था। वह अपने विशृंखल विचारों को छोड़कर कहाँ भाग जाय। शिकारियों का झुण्ड और अकेली हरिणी! उसकी आँखें बन्द थीं।
आर्यमित्र खड़ा रहा। उसने देख लिया कि सुजाता की समाधि अभी न खुलेगी। वह मुस्कुराने लगा। उसके कृत्रिम शील ने भी उसको वर्जित किया। संघ के नियमों ने उसके हृदय पर कोड़े लगाये; पर वह भिक्षु वहीं खड़ा रहा।
भीतर के अन्धकार से ऊबकर सुजाता ने आलोक के लिए आँखे खोल दीं। आर्यमित्र को देखकर आलोक की भीषणता उसकी आँखों के सामने नाचने लगी। उसने शक्ति बटोरकर कहा-‘‘वन्दे!’’
आर्यमित्र पुरुष था। भिक्षुकी का उसके सामने नत होना संघ का नियम था। आर्यमित्र ने हँसते हुए अभिवादन का उत्तर दिया, और पूछा-‘‘सुजाता, आज तुम स्वस्थ हो?’’
सुजाता उत्तर देना चाहती थी। पर....आर्यमित्र के काषाय के नवीन रंग में उसका मन उलझ रहा था। वह चाहती थी कि आर्यमित्र चला जाय; चला जाय उसकी चेतना के घेरे के बाहर। इधर वह अस्वस्थ थी, आर्यमित्र उसे औषधि देता था। संघ का वह वैद्य था। अब वह अच्छी हो गयी है। उसे आर्यमित्र की आवश्यकता नहीं। किन्तु .... है तो .... हृदय को उपचार की अत्यन्त आवश्यकता है। तब भी आर्यमित्र! वह क्या करे। बोलना ही पड़ा।
‘‘हाँ, अब तो स्वस्थ हूँ।’’
‘‘अभी पथ्य सेवन करना होगा।’’
‘‘अच्छा।’’
‘‘मुझे और भी एक बात कहनी है।’’
‘‘क्या? नहीं, क्षमा कीजिए। आपने कब से प्रव्रज्या ली है?’’
‘‘वह सुनकर तुम क्या करोगी? संसार ही दु:खमय है।’’
‘‘ठीक तो.......अच्छा, नमस्कार ।’’
आर्यमित्र चला गया; किन्तु उसके जाने से जो आन्दोलन आलोक-तरंग में उठा, उसी में सुजाता झूमने लगी थी। उसे मालूम नहीं, कब से महास्थविर उसके समीप खड़े थे।
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समुद्र का कोलाहल कुछ सुनने नहीं देता था। सन्ध्या धीरे-धीरे विस्तृत नील जल-राशि पर उतर रही थी। तरंगों पर तरंगे बिखरकर चूर हो रही थीं। सुजाता बालुका की शीतल वेदी पर बैठी हुई अपलक आँखों से उस क्षणिकता का अनुभव कर रही थी; किन्तु नीलाम्बुधि का महान् संसार किसी वास्तविकता की ओर संकेत कर रहा था। सत्ता की सम्पूर्णता धुँधली सन्ध्या में मूर्तिमान् हो रही थी। सुजाता बोल उठी-
‘‘जीवन सत्य है, सम्वेदन सत्य है, आत्मा के आलोक में अन्धकार कुछ नहीं है।’’
‘‘सुजाता, यह क्या कह रही हो?’’ पीछे से आर्यमित्र ने कहा।
‘‘कौन, आर्यमित्र!’’
‘‘मैं भिक्षुणी क्यों हुई आर्यमित्र!’’
‘‘व्यर्थ सुजाता। मैंने अमावस्या की गम्भीर रजनी में संघ के सम्मुख पापी होना स्वीकार कर लिया है। अपने कृत्रिम शील के आवरण में सुरक्षित नहीं रह सका। मैंने महास्थविर से कह दिया कि संघमित्र का पुत्र आर्यमित्र सांसारिक विभूतियों की उपेक्षा नहीं कर सकता। कई पुरुषों की सञ्चित महौषधियाँ, कलिंग के राजवैद्य पद का सम्मान, सहज में छोड़ा नहीं जा सकता। मैं केवल सुजाता के लिए ही भिक्षु बना था। उसी का पता लगाने के लिए मैं इस नील विहार में आया था। वह मेरी वाग्दत्ता भावी पत्नी है।’’
‘‘किन्तु आर्यमित्र, तुमने विलम्ब किया, मैं तुम्हारी पत्नी न हो सकूँगी।’’-सुजाता ने बीच ही मंऔ रोककर कहा।
‘‘क्यों सुजाता! यह काषाय क्या श्रृंखला है? फेंक दो इसे। वाराणसी के स्वर्ण-खचित वसन ही तुम्हारे परिधान के लिए उपयुक्त हैं। रत्नमाला, मणि-कंकण और हेम-कांची तुम्हारी कमल-कोमल अंग-लता को सजावेगी। तुम-राजरानी बनोगी।’’
‘‘किन्तु.....’’
‘‘किन्तु क्या सुजाता? मेरा हृदय फटा जाता है। बोलो, मैं संघ का बन्धन तोड़ चुका हूँ और तुम भी तो जीवन की, आत्मा की क्षणिकता में विश्वास नहीं करती हो?’’
‘‘किन्तु आर्यमित्र! मैं वह अमूल्य उपहार-जो स्त्रियाँ, कुलवधुएँ अपने पति के चरणों में समर्पण करती हैं-कहाँ से लाऊँगी? वह वरमाला जिसमें दूर्वा-सदृश कौमाय्र्य हरा-भरा रहता हो, जिसमें मधूक-कुसुम-सा हृदय-रस भरा हो, कैसे, कहाँ से तुम्हें पहना सकूँगी?’’
‘‘क्यों सुजाता? उसमें कौन-सी बाधा है?-कहते-कहते आर्यमित्र का स्वर कुछ तीक्ष्ण हो गया। वह अँगूठे से बालू बिखेरने लगा!
‘‘उसे सुनकर तुम क्या करोगे? जाओ, राज-सुख भोगो। मुझ जन्म की दुखिया के पीछे अपना आनन्दपूर्ण भविष्य-संसार नष्ट न करो, आर्यमित्र! जब तुमने संघ का बन्धन भी तोड़ दिया है, तब मुझ पामरी के मोह का बन्धन भी तोड़ डालो।’’
सुजाता के वक्ष में श्वास भर रहा था।
आर्यमित्र ने निर्जन समुद्र-तट के उस मलिन सायंकाल में, सुजाता का हाथ पकड़कर तीव्र स्वर में पूछा-‘‘सुजाता, स्पष्ट कहो; क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करती हो?’’
‘‘करती हूँ आर्यमित्र! इसी का दु:ख है। नहीं तो भैरवी के लिए किस उपभोग की कमी है?’’
आर्यमित्र ने चौंककर सुजाता का हाथ छोड़ते हुए कहा-‘‘क्या कहा, भैरवी!’’
‘‘हाँ आर्यमित्र। मैं भैरवी हूँ, मेरी....’’
आगे वह कुछ न कह सकी। आँखों से जल-बिन्दु ढुलक रहे थे, जिसमें वेदना के समुद्र ऊर्मिल हो रहे थे।
आर्यमित्र अधीर होकर सोचने लगा-‘‘पारिवारिक पवित्र बन्धनों को तोड़कर जिस मुक्ति की-निर्वाण की-आशा में जनता दौड़ रही है, उस धर्म की यही सीमा है। यह अन्धेर-गृहस्थों का सुख न देख सकनेवालों का यह निर्मम दण्ड, समाज कब तक भोगेगा?’’
सहसा प्रकृतिस्थ होकर उसने कहा-‘‘सुजाता! मेरा सिर घूम रहा है, जैसे देवरथ का चक्र, परन्तु मैं तुमको अब भी पत्नी-रूप से ग्रहण करूँगा। सुजाता, चलो।’’
‘‘किन्तु मैं तुम्हें पतिरूप से ग्रहण न कर सकूँगी। अपनी सारी लांछना तुम्हारे साथ बाँटकर जीवन-संगिनी बनने का दुस्साहस मैं न कर सकूँगी। आर्यमित्र, मुझे क्षमा करो! मेरी वेदना रजनी से भी काली है और दु:ख समुद्र से भी विस्तृत है। स्मरण है? इसी महोदधि के तट पर बैठकर, सिकता में हम लोग अपना नाम साथ-ही-साथ लिखते थे। चिर-रोदनकारी निष्ठुर समुद्र अपनी लहरों की उँगली से उसे मिटा देता था। मिट जाने दो हृदय की सिकता से प्रेम का नाम! आर्यमित्र, इस रजनी के अन्धकार में उसे विलीन हो जाने दो।’’
‘‘सुजाता’’-सहसा एक कठोर स्वर सुनाई पड़ा।
दोनों ने घूमकर देखा, अन्धकार-सी भीषण मूर्ति, संघस्थविर!
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उसके जीवन में परमाणु बिखर रहे थे। निशा की कालिमा में सुजाता सिर झुकाये हुए बैठी, देव-प्रतिमा की रथयात्रा का समारोह देख रही थी; किन्तु दौड़कर छिप जानेवाले मूक दृश्य के समान वह किसी को समझ न पाती थी। स्थविर ने उसके सामने आकर कहा-‘‘सुजाता, तुमने प्रायश्चित किया?’’
‘‘किसके पाप का प्रायश्चित! तुम्हारे या अपने?’’-तीव्र स्वर में सुजाता ने कहा!
‘‘अपने और आर्यमित्र के पापों का, सुजाता! तुमने अविश्वासी हृदय से धर्मद्रोह किया है।’’
‘‘धर्मद्रोह? आश्चर्य!!’’
‘‘तुम्हारा शरीर देवता को समर्पित था, सुजाता। तुमने.....’’
बीच ही में उसे रोककर तीव्र स्वर में सुजाता ने कहा-‘‘चुप रहो, असत्यवादी। वज्रयानी नर-पिशाच ....’’
एक क्षण में इस भीषण मनुष्य की कृत्रिम शान्ति विलीन हो गयी। उसने दाँत किटकिटाकर कहा-‘‘मृत्यु-दण्ड!’’
सुजाता ने उसकी ओर देखते हुए कहा-‘‘कठोर से भी कठोर मृत्यु-दण्ड मेरे लिए कोमल है। मेरे लिए इस स्नेहमयी धरणी पर बचा ही क्या है? स्थविर! तुम्हारा धर्मशासन घरों को चूर-चूर करके विहारों की सृष्टि करता है-कुचक्र में जीवन को फँसाता है। पवित्र गार्हस्थ बन्धनों को तोड़कर तुम लोग भी अपनी वासना-तृप्ति के अनुकूल ही तो एक नया घर बनाते हो, जिसका नाम बदल देते हो। तुम्हारी तृष्णा तो साधारण सरल गृहस्थों से भी तीव्र है, क्षुद्र है और निम्न कोटि की है।’’
‘‘किन्तु सुजाता, तुमको मरना होगा!’’
‘‘तो मरूँगी स्थविर; किन्तु तुम्हारा यह काल्पनिक आडम्बरपूर्ण धर्म भी मरेगा। मनुष्यता का नाश करके कोई धर्म खड़ा नहीं रह सकता।’’
‘‘कल ही!’’
‘‘हाँ, कल प्रभात में तुम देखोगे कि सुजाता कैसे मरती है!’’
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सुजाता मन्दिर के विशाल स्तम्भ से टिकी हुई, रात्रिव्यापी उत्सव को स्थिर दृष्टि से देखती रही। एक बार उसने धीरे से पूछा-
‘‘देवता, यह उत्सव क्यों? क्या जीवन की यन्त्रणाओं से तुम्हारी पूजा का उपकरण संग्रह किया जाता है?’’
प्रतिमा ने कोई उत्तर नहीं दिया।
प्रभात की किरणें मन्दिर के शिखर पर हँसने लगीं।
देव-विग्रह ने रथ-यात्रा के लिए प्रयाण किया। जनता तुमुलनाद से जय-घोष करने लगी।
सुजाता ने देखा, पुजारियों के दल में कौशेय वसन पहने हुए आर्यमित्र भी भक्तिभाव से चला जा रहा है। उसकी इच्छा हुई कि आर्यमित्र को बुला कर कहे कि वह उसके साथ चलने को प्रस्तुत है।
सम्पूर्ण बल से उसने पुकारा-‘‘आर्यमित्र!’’
किन्तु उस कोलाहल में कौन सुनता है? देवरथ विस्तीर्ण राज-पथ से चलने लगा। उसके दृढ़ चक्र धरणी की छाती में गहरी लीक डालते हुए आगे बढऩे लगे। उस जन-समुद्र में सुजाता फाँद पड़ी और एक क्षण में उसका शरीर देवरथ के भीषण चक्र से पिस उठा।
रथ खड़ा हो गया। स्थविर ने स्थिर दृष्टि से सुजाता के शव को देखा। अभी वह कुछ बोलना ही चाहता था कि दर्शकों और पुजारियों का दल, ‘‘काला पहाड़! काला पहाड़!!’’ चिल्लाता हुआ इधर-उधर भागने लगा। धूलि की घटा में बरछियों की बिजलियाँ चमकने लगीं।
देव-विग्रह एकाकी धर्मोन्मत्त ‘काला पहाड़’ के अश्वारोहियों से घिर गया-रथ पर था देव-विग्रह और नीचे सुजाता का शव।
टीका टिप्पणी और संदर्भ