नाग-वाकाटक युग में लोकविश्वास

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लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विश्वास। वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं। वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है।

नाग-वाकाटक युग में लोकविश्वास

महात्मा महावीर और बुद्ध के उपदेश बुंदेलखंड की धरती पर बाद में ही फैले और उनके अंकुर और भी बाद में फूटे। अतएव इस अंचल में उनका प्रभाव यत्र-तत्र ही मिलता है। उनकी अधोगति के बाद भागवतों और शैवों ने इस अंचल, के लोकविश्वासों में एक नयी क्रांति खड़ी कर दी। लोकविश्वासों के संदर्भ में क्रांति का अर्थ है-कुछ ऐसे विश्वासों का बदलाव, जो जीवन-दर्शन के बदलने में प्रधान हों। जैन और बौद्ध-धर्म में गृहत्याग और निर्वाण परममूल्य थे, लेकिन नाग-वाकाटक युग में धर्म के साथ घर, समाज और राष्ट्र जुड़ा था। प्रसिद्ध इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल ने लिखा है- "उस समय राष्ट्र की जैसी प्रवृत्तियाँ और जैसे भाव थे, उन्हीं के अनुरूप ईश्वर का एक विशिष्ट रूप उन लोगों ने चुन लिया था और उसी रूप को उन्होंने अपनी सारी सेवा समर्पित कर दी थी"[1]। इतना ही नहीं, इस युग में गार्हस्थिक आस्था को प्रमुख महत्त्व मिलता। लोक भक्ति पर विश्वास रखता हुआ शिव, विष्णु, सूर्य, यक्ष देवताओं और गंगा, नंदी, गाय आदि परिकरों की पूजा करने लगा था। नाग और वाकाटक शैव थे, पर वे अन्य धर्मों के प्रति उदार थे। इस कारण लोक में योग, भक्ति, कर्म और भुक्ति-सभी की मान्यता थी। लोगों में यह विश्वास दृढ़ था कि शरीर के द्वारा ही योग, भोग, कर्म और भक्ति की जा सकती है। जगत् सुखों और दु:खों का भंडार है। मृत्यु सबसे बड़ा दु:ख है, जिससे छुटकारा तभी मिलता है, जब मानव इसी जगत् में रहकर सत्कर्म करे।
इस परिवर्तन के बावजूद पुराने लोकविश्वास प्रचलित थे। बाद के बौद्ध संप्रदायों में फैले भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष, रक्षा-ताबीज आदि संबंधी लोकविश्वास लोक में व्याप्त थे। भूत-प्रेत उपद्रव करते हैं और उनकी शांति बलि और मंत्रों से होती है। अनेक बाधाओं से बचने के लिए ताबीज कवच का काम करते हैं। देव तथा नक्षत्र-पूजा से गृहदशा संभल जाती है। मंत्र के जोर से भुजंग को रेखा के भीतर बाँधा जो सकता है। सूम जो धन गाड़ता है, उसकी रक्षा मरने के बाद सपं होकर करता है। नागों को प्रसन्न करने पर मनवांछित कार्यसिद्ध हो जाते हैं। यक्ष की पूजा से पुत्र प्राप्त होता है और रोग-शोक दूर हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि लोकविश्वास किसी खास धर्म या संप्रदाय के नहीं होते। उनका विकास युग की चेतना से प्रेरणा पाकर क्रमिक रूप में होता है। एक उदाहरण काफ़ी है। जनजातियाँ वृक्षों में आत्मा मानती थीं। वैदिक संस्कृति में वृक्ष को महत्त्व मिला है और पीपल में देवों का निवास कहा गया है। महाभारत में पत्तों और फलों से लदा वृक्ष पूजा योग्य बताया गया है। गीता में भी पीपल की महिमा का संकेत है। बौद्ध-धर्म में बोधि-वृक्ष की उपासना मान्य है। रुक्ख जातक में वृक्ष को देवता माना गया है।[2] बाद में पीपल पर वासुदेव और नीम पर देवी का निवास लोकप्रचलित रहा। पीपल पर बरम्ह या बरमदेव का वास आज भी लोकस्वीकृत है। कुछ लोग उसे ब्राह्मण समझते हैं, जबकि वह बीर बरम्ह या ब्रह्म है जिसका आशय यक्ष से है। विज्ञान की आधुनिक खोजों ने वृक्षों में जीवन के साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं, जिससे लोक के बहुत पुराने विश्वास की पुष्टि हुई है। सिद्ध है कि एक लोकविश्वास न जाने कितने संप्रदायों, विचारधाराओं और दर्शनों से टकराकर आज तक प्रवहमान रहा है।
सतीत्व-संबंधी लोकविश्वास का प्रामाणिक साक्ष्य एरण का 501 ई. का अभिलेख है, जिसके अनुसार हूणों से लड़ते हुए सेनापति गोपराज की मृत्यु पर उसकी पतिव्रता पत्नी ने पति के शव के साथ चिता पर आरोहण किया था। सती प्रथा और नारी का सतीत्व पर विश्वास का यह उदाहरण इतिहास में सबसे पुराना है। उसके बाद के प्रमाण हैं सतीस्तंभ, जो सारे बुंदेलखंड में बिखरे पड़े हैं। उनसे यह सिद्ध होता है कि इस लोकविश्वास का प्रचलन उस समय अधिक रहा है, जब आक्रमणकारियों ने किसी भी भू-भाग या स्वत्व को हस्तगत करने के लिए युद्ध किये हों।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (अंधकारयुगीन भारत, पृ. 104)
  2. जातक कथा सं. 74

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