प्रियप्रवास त्रयोदश सर्ग

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प्रियप्रवास त्रयोदश सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
सर्ग त्रयोदश
छंद वंशस्थ, द्रुतविलम्बित, मालिनी, मन्दाक्रान्ता
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प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल सत्रह (17) सर्ग
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प्रियप्रवास सप्तदश सर्ग

विशाल-वृन्दावन भव्य-अंक में।
रही धरा एक अतीव-उर्वरा।
नितान्त-रम्या तृण-राजि-संकुला।
प्रसादिनी प्राणि-समूह दृष्टि की॥1॥

कहीं-कहीं थे विकसे प्रसून भी।
उसे बनाते रमणीय जो रहे।
हरीतिमा में तृण-राजि-मंजु की।
बड़ी छटा थी सित-रक्त-पुष्प की॥2॥

विलोक शोभा उसकी समुत्तमा।
समोद होती यह कान्त-कल्पना।
सजा-बिछौना हरिताभ है बिछा।
वनस्थली बीच विचित्र-वस्त्र का॥3॥

स-चारुता हो कर भूरि-रंजिता।
सु-श्वेतता रक्तिमता-विभूति से।
विराजती है अथवा हरीतिमा।
स्वकीय-वैचित्रय विकाश के लिए॥4॥

विलोकनीया इस मंजु-भूमि में।
जहाँ तहाँ पादप थे हरे-भरे।
अपूर्व-छाया जिनके सु-पत्र की।
हरीतिमा को करती प्रगाढ़ थी॥5॥

कहीं-कहीं था विमलाम्बु भी भरा।
सुधा समासादित संत-चित्त सा।
विचित्र-क्रीड़ा जिसके सु-अंक में।
अनेक-पक्षी करते स-मत्स्य थे॥6॥

इसी धरा में बहु-वत्स वृन्द ले।
अनेक-गायें चरती समोद थीं।
अनेक बैठी वट-वृक्ष के तले।
शनै: शनै: थीं करती जुगालियाँ॥7॥

स-गर्व गंभीर-निनाद को सुना।
जहाँ तहाँ थे वृष मत्त घूमते।
विमोहिता धेनू-समूह को बना।
स्व-गात की पीवरता प्रभाव से॥8॥

बड़े-सधे-गोप-कुमार सैकड़ों।
गवादि के रक्षण में प्रवृत्त थे।
बजा रहे थे कितने विषाण को।
अनेक गाते गुण थे मुकुन्द का॥9॥

कई अनूठे-फल तोड़-तोड़ खा।
विनोदिता थे रसना बना रहे।
कई किसी सुन्दर-वृक्ष के तले।
स-बन्धु बैठे करते प्रमोद थे॥10॥

इसी घड़ी कानन-कुंज देखते।
वहाँ पधारे बलवीर-बन्धु भी।
विलोक आता उनको सुखी बनी।
प्रफुल्लिता गोपकुमार-मण्डली॥11॥

बिठा बड़े-आदर-भाव से उन्हें।
सभी लगे माधव-वृत्त पूछने।
बड़े-सुधी ऊद्धव भी प्रसन्न हो।
लगे सुनाने ब्रज-देव की कथा॥12॥

मुकुन्द की लोक-ललाम-कीर्ति को।
सुना सबों ने पहले विमुग्ध हो।
पुन: बड़े व्याकुल एक ग्वाल ने।
व्यथा बढ़े यों हरि-बंधु से कहा॥13॥

मुकुन्द चाहे वसुदेव-पुत्र हों।
कुमार होवें अथवा ब्रजेश के।
बिके उन्हीं के कर सर्व-गोप हैं।
बसे हुए हैं मन प्राण में वही॥14॥

अहो यही है ब्रज-भूमि जानती।
ब्रजेश्वरी हैं जननी मुकुन्द की।
परन्तु तो भी ब्रज-प्राण हैं वही।
यथार्थ माँ है यदि देवकांगजा॥15॥

मुकुन्द चाहे यदु-वंश के बनें।
सदा रहें या वह गोप-वंश के।
न तो सकेंगे ब्रज-भूमि भूल वे।
न भूल देगी ब्रज-मेदिनी उन्हें॥16॥

वरंच न्यारी उनकी गुणावली।
बता रही है यह, तत्तव तुल्य ही।
न एक का किन्तु मनुष्य-मात्र का।
समान है स्वत्व मुकुन्द-देव में॥17॥

बिना विलोके मुख-चन्द श्याम का।
अवश्य है भू ब्रज की विषादिता।
परन्तु सो है अधिकांश-पीड़िता।
न लौटने से बलदेव-बंधु के॥18॥

दयालुता-सज्जनता-सुशीलता।
बढ़ी हुई है घनश्याम मुर्ति की।
द्वि-दंड भी वे मथुरा न बैठते।
न फैलता व्यर्थ प्रपंच-जाल जो॥19॥

सदा बुरा हो उस कूट-नीति का।
जले महापावक में प्रपंच सो।
मनुष्य लोकोत्तर-श्याम सा जिन्हें।
सका नहीं रोक अकान्त कृत्य से॥20॥

विडम्बना है विधि की बलीयसी।
अखण्डनीया-लिपि है ललाट की।
भला नहीं तो तुहिनाभिभूत हो।
विनष्ट होता रवि-बंधु-कंज क्यों॥21॥

'विभूतिशाली-ब्रज, श्री मुकुन्द का।'
निवास भू द्वादश-वर्ष जो रहा।
बड़ी-प्रतिष्ठा इससे उसे मिली।
हुआ महा-गौरव गोप-वंश का॥22॥

चरित्र ऐसा उनका विचित्र है।
प्रविष्ट होती जिसमें न बुध्दि है।
सदा बनाती मन को विमुग्ध है।
अलौकिकालोकमयी गुणावली॥23॥

अपूर्व-आदर्श दिखा नरत्व का।
प्रदान की है पशु को मनुष्यता।
सिखा उन्होंने चित की समुच्चता।
बना दिया मानव गोप-वृन्द को॥24॥

मुकुन्द थे पुत्र ब्रजेश-नन्द के।
गऊ चराना उनका न कार्य था।
रहे जहाँ सेवक सैकड़ों वहाँ।
उन्हें भला कानन कौन भेजता॥25॥

परन्तु आते वन में स-मोद वे।
अनन्त-ज्ञानार्जन के लिए स्वयं।
तथा उन्हें वांछित थी नितान्त ही।
वनान्त में हिंसक-जन्तु-हीनता॥26॥

मुकुन्द आते जब थे अरण्य में।
प्रफुल्ल हो तो करते विहार थे।
विलोकते थे सु-विलास वारि का।
कलिन्दजा के कल कूल पै खड़े॥27॥

स-मोद बैठे गिरि-सानु पै कभी।
अनेक थे सुन्दर-दृश्य देखते।
बने महा-उत्सुक वे कभी छटा।
विलोकते निर्झर-नीर की रहे॥28॥

सु-वीथिका में कल-कुंज-पुंज में।
शनै: शनै: वे स-विनोद घूमते।
विमुग्ध हो हो कर थे विलोकते।
लता-सपुष्पा मृदु-मन्द-दूलिता॥29॥

पतंगजा-सुन्दर स्वच्छ-वारि में।
स-बन्धु थे मोहन तैरते कभी।
कदम्ब-शाखा पर बैठ मत्त हो।
कभी बजाते निज-मंजु-वेणु वे॥30॥

वनस्थली उर्वर-अंक उद्भवा।
अनेक बूटी उपयोगिनी-जड़ी।
रही परिज्ञात मुकुन्द-देव को।
स्वकीय-संधन-करी सु-बुध्दि से॥31॥

वनस्थली में यदि थे विलोकते।
किसी परीक्षा-रत-धीर-व्यक्ति को।
सु-बूटियों का उससे मुकुंद तो।
स-मर्म्म थे सर्व-रहस्य जानते॥32॥

नवीन-दूर्वा फल-फूल-मूल क्या।
वरंच वे लौकिक तुच्छ-वस्तु को।
विलोकते थे खर-दृष्टि से सदा।
स्व-ज्ञान-मात्र-अभिवृध्दि के लिए॥33॥

तृणाति साधरण को उन्हें कभी।
विलोकते देख निविष्ट चित्त से।
विरक्त होती यदि ग्वाल-मण्डली।
उसे बताते यह तो मुकुन्द थे॥34॥

रहस्य से शून्य न एक पत्र है।
न विश्व में व्यर्थ बना तृणेक है।
करो न संकीर्ण विचार-दृष्टि को।
न धूलि की भी कणिका निरर्थ है॥35॥

वनस्थली में यदि थे विलोकते।
कहीं बड़ा भीषण-दुष्ट-जन्तु तो।
उसे मिले घात मुकुन्द मारते।
स्व-वीर्य से साहस से सु-युक्ति से॥36॥

यहीं बड़ा-भीषण एक व्याल था।
स्वरूप जो था विकराल-काल का।
विशाल काले उसके शरीर की।
करालता थी मति-लोप-कारिणी॥37॥

कभी फणी जो पथ-मध्य वक्र हो।
कँपा स्व-काया चलता स-वेग तो।
वनस्थली में उस काल त्रास का।
प्रकाश पाता अति-उग्र-रूप था॥38॥

समेट के स्वीय विशालकाय को।
फणा उठा, था जब व्याल बैठता।
विलोचनों को उस काल दूर से।
प्रतीत होता वह स्तूप-तुल्य था॥39॥

विलोल जिह्ना मुख से मुहुर्मुहु:।
निकालता था जब सर्प क्रुध्द हो।
निपात होता तब भूत-प्राण था।
विभीषिका-गर्त नितान्त गूढ़ में॥40॥

प्रलम्ब आतंक-प्रसू, उपद्रवी।
अतीव मोटा यम-दीर्घ-दण्ड सा।
कराल आरक्तिम-नेत्रवान औ।
विषाक्त-फूत्कार-निकेत सर्प था॥41॥

विलोकते ही उसको वराह की।
विलोप होती वर-वीरता रही।
अधीर हो के बनता अ-शक्त था।
बड़ा-बली वज्र-शरीर केशरी॥42॥

असह्य होतीं तरु-वृन्द को सदा।
विषाक्त-साँसें दल दग्ध-कारिणी।
विचूर्ण होती बहुश: शिला रहीं।
कठोर-उद्बन्धान-सर्प-गात्र से॥43॥

अनेक कीड़े खग औ मृगादि भी।
विदग्ध होते नित थे पतंग से।
भयंकरी प्राणि-समूह-ध्वंसिनी।
महादुरात्मा अहि-कोप-वह्नि थी॥44॥

अगम्य कान्तार गिरीन्द्र खोह में।
निवास प्राय: करता भुजंग था।
परन्तु आता वह था कभी-कभी।
यहाँ बुभुक्षा-वश उग्र-वेग से॥45॥

विराजता सम्मुख जो सु-वृक्ष है।
बड़े-अनूठे जिसके प्रसून हैं।
प्रफुल्ल बैठे दिवसेक श्याम थे।
तले इसी पादप के स-मण्डली॥46॥

दिनेश ऊँचा वर-व्योम मध्य हो।
वनस्थली को करता प्रदीप्त था।
इतस्तत: थे बहु गोप घूमते।
असंख्य-गायें चरती समोद थीं॥47॥

इसी अनूठे-अनुकूल-काल में।
अपार-कोलाहल आर्त-नाद से।
मुकुन्द की शान्ति हुई विदूरिता।
स-मण्डली वे शश-व्यस्त हो गये॥48॥

विशाल जो है वट-वृक्ष सामने।
स्वयं उसी की गिरि-शृंग-स्पर्ध्दिनी।
समुच्च-शाखा पर श्याम जा चढ़े।
तुरन्त ही संयत औ सतर्क हो॥49।

उन्हें वहीं से दिखला पड़ा वही।
भयावना-सर्प दुरन्त-काल सा।
दिखा बड़ी निष्ठुरता विभीषिका।
मृगादि का जो करता विनाश था॥50॥

उसे लखे पा भय भाग थे रहे।
असंख्य-प्राणी वन में इतस्तत:।
गिरे हुए थे महि में अचेत हो।
समीप के गोप स-धेनू-मण्डली॥51॥

स्व-लोचनों से इस क्रूर-काण्ड को।
विलोक उत्तेजित श्याम हो गये।
तुरन्त आ, पादप-निम्न, दर्प से।
स-वेग दौड़े खल-सर्प ओर वे॥52॥

समीप जा के निज मंजु-वेणु को।
बजा उठे वे इस दिव्य-रीति से।
विमुग्ध होने जिससे लगा फणी।
अचेत-आभीर सचेत हो उठे॥53॥

मुहुर्मुहु: अद्भुत-वेणु-नाद से।
बना वशीभूत विमूढ़-सर्प को।
सु-कौशलों से वर-अस्त्र-शस्त्र से।
उसे वध नन्द नृपाल नन्द ने॥54॥

विचित्र है शक्ति मुकुन्द देव में।
प्रभाव ऐसा उनका अपूर्व है।
सदैव होता जिससे सजीव है।
नितान्त-निर्जीव बना मनुष्य भी॥55॥

अचेत हो भू पर जो गिरे रहे।
उन्हीं सबों ने विविधा-सहायता।
अशंक की थी बलभद्र-बंधु की।
विनाश होता अवलोक व्याल का॥56॥

कई महीने तक थी पड़ी रही।
विशाल-काया उसकी वनान्त में।
विलोप पीछे यह चिह्न भी हुआ।
अघोपनामी उस क्रूर-सर्प का॥57॥

बड़ा-बली एक विशाल-अश्व था।
वनस्थली में अपमृत्यु-मुर्ति सा।
दुरन्तता से उसकी, निपीड़िता।
नितान्त होती पशु-मण्डली रही॥58॥

प्रमत्त हो, था जब अश्व दौड़ता।
प्रचंडता-साथ प्रभूत-वेग से।
अरण्य-भू थी तब भूरि-काँपती।
अतीव होती ध्वनित दिशा रही॥59॥

विनष्ट होते शतश: शशादि थे।
सु-पुष्ट-मोटे सुम के प्रहार से।
हुए पदाघात बलिष्ठ-अश्व का।
विदीर्ण होता वपु वारणादि का॥60॥

बड़ा-बली उन्नत-काय-बैल भी।
विलोक होता उसको विपन्न सा।
नितान्त-उत्पीड़न-दंशनादि से।
न त्राण पाता सुरभी-समूह था॥61॥

पराक्रमी वीर बलिष्ठ-गोप भी।
न सामना थे करते तुरंग का।
वरंच वे थे बने विमूढ़ से।
उसे कहीं देख भयाभिभूत हो॥62॥

समुच्च-शाखा पर वृक्ष की किसी।
तुरन्त जाते चढ़ थे स-व्यग्रता।
सुने कठोरा-ध्वनि अश्व-टाप की।
समस्त-आभीर अतीव-भीत हो॥63॥

मनुष्य आ सम्मुख स्वीय-प्राण को।
बचा नहीं था सकता प्रयत्न से।
दुरन्तता थी उसकी भयावनी।
विमूढ़कारी रव था तुरंग का॥64॥

मुकुन्द ने एक विशाल-दण्ड ले।
स-दर्प घेरा यक बार बाजि को।
अनन्तराघात अजस्र से उसे।
प्रदान की वांछित प्राण-हीनता॥65॥

विलोक ऐसी बलवीर-वीरता।
अशंकता साहस कार्य्य-दक्षता।
समस्त-आभीर विमुग्ध हो गये।
चमत्कृता हो जन-मण्डली उठी॥66॥

वनस्थली कण्टक रूप अन्य भी।
कई बड़े-क्रूर बलिष्ठ-जन्तु थे।
हटा उन्हें भी जिन कौशलादि से।
किया उन्होंने उसको अकण्टका॥67॥

बड़ा-बली-बालिश व्योम नाम का।
वनस्थली में पशु-पाल एक था।
अपार होता उसको विनोद था।
बना महा-पीड़ित प्राणि-पुंज को॥68॥

प्रवंचना से उसको प्रवंचिता।
विशेष होती ब्रज की वसुंधरा।
अनेक-उत्पात पवित्र-भूमि में।
सदा मचाता यह दुष्ट-व्यक्ति था॥69॥

कभी चुराता वृष-वत्स-धेनू था।
कभी उन्हें था जल-बीच बोरता।
प्रहार-द्वारा गुरु-यष्टि के कभी।
उन्हें बनाता वह अंग-हीन था॥70॥

दुरात्मता थी उसकी भयंकरी।
न खेद होता उसको कदापि था।
निरीह गो-वत्स-समूह को जला।
वृथा लगा पावक कुंज-पुंज में॥71॥

अबोध-सीधे बहु-गोप-बाल को।
अनेक देता वन-मध्य कष्ट था।
कभी-कभी था वह डालता उन्हें।
डरावनी मेरु-गुहा समूह में॥72॥

विदार देता शिर था प्रहार से।
कँपा कलेजा दृग फोड़ डालता।
कभी दिखा दानव सी दुरन्तता।
निकाल लेता बहु-मूल्य-प्राण था॥73॥

प्रयत्न नाना ब्रज-देव ने किये।
सुधार चेष्टा हित-दृष्टि साथ की।
परन्तु छूटी उसकी न दुष्टता।
न दूर कोई कु-प्रवृत्ति हो सकी॥74॥

विशुध्द होती, सु-प्रयत्न से नहीं।
प्रभूत-शिक्षा उपदेश आदि से।
प्रभाव-द्वारा बहु-पूर्व पाप के।
मनुष्य-आत्मा स-विशेष दूषिता॥75॥

निपीड़िता देख स्व-जन्मभूमि को।
अतीव उत्पीड़न से खलेन्द्र के।
समीप आता लख एकदा उसे।
स-क्रोध बोले बलभद्र-बन्धु यों॥76॥

सुधार-चेष्टा बहु-व्यर्थ हो गई।
न त्याग तूने कु-प्रवृत्ति को किया।
अत: यही है अब युक्ति उत्तम।
तुझे वधूँ मैं भव-श्रेय-दृष्टि से॥77॥

अवश्य हिंसा अति-निंद्य-कर्म है।
तथापि कर्तव्य-प्रधान है यही।
न सद्म हो पूरित सर्प आदि से।
वसुंधरा में पनपें न पातकी॥78॥

मनुष्य क्या एक पिपीलिका कभी।
न वध्य है जो न अश्रेय हेतु हो।
न पाप है किंच पुनीत-कार्य्य है।
पिशाच-कर्म्मी-नर की वध-क्रिया॥79॥

समाज-उत्पीड़क धर्म्म-विप्लवी।
स्व-जाति का शत्रु दुरन्त पातकी।
मनुष्य-द्रोही भव-प्राणि-पुंज का।
न है क्षमा-योग्य वरंच वध्य है॥80॥

क्षमा नहीं है खल के लिए भली।
समाज-उत्सादक दण्ड योग्य है।
कु-कर्म-कारी नर का उबारना।
सु-कर्मियों को करता विपन्न है॥81॥

अत: अरे पामर सावधान हो।
समीप तेरे अब काल आ गया।
न पा सकेगा खल आज त्राण तू।
सम्हाल तेरा वध वांछनीय है॥82॥

स-दर्प बातें सुन श्याम-मुर्ति की
हुआ महा क्रोधित व्योम विक्रमी।
उठा स्वकीया-गुरु-दीर्घ यष्टि को।
तुरन्त मारा उसने ब्रजेन्द्र को॥83॥

अपूर्व-आस्फालन साथ श्याम ने।
अतीव-लाँबी वह यष्टि छीन ली।
पुन: उसी के प्रबल-प्रहार से।
निपात उत्पात-निकेत का किया॥84॥

गुणावली है गरिमा विभूषिता।
गरीयसी गौरव-मुर्ति-कीर्ति है।
उसे सदा संयत-भाव साथ गा।
अतीव होती चित-बीच शान्ति है॥85॥

वनस्थली में पुर मध्य ग्राम में।
अनेक ऐसे थल हैं सुहावने।
अपूर्व-लीला व्रत-देव ने जहाँ।
स-मोद की है मन-मुग्धकारिणी॥86॥

उन्हीं थलों को जनता शनै: शनै:।
बना रही है ब्रज-सिध्द पीठ सा।
उन्हीं थलों की रज श्याम-मुर्ति के।
वियोग में हैं बहु-बोध-दायिनी॥87॥

अपार होगा उपकार लाडिले।
यहाँ पधारें यक बार और जो।
प्रफुल्ल होगी ब्रज-गोप-मण्डली।
विलोक ऑंखों वदनारविन्द को॥88॥

मन्दाक्रान्ता छन्द

श्रीदामा जो अति-प्रिय सखा श्यामली मुर्ति का था।
मेधावी जो सकल-ब्रज के बालकों में बड़ा था।
पूरा ज्योंही कथन उसका हो गया मुग्ध सा हो।
बोला त्योंही 'मधुर-स्वर से दूसरा एक ग्वाला॥89॥

मालिनी छन्द

विपुल-ललित-लीला-धाम आमोद-प्याले।
सकल-कलित-क्रीड़ा कौशलों में निराले।
अनुपम-वनमाला को गले बीच डाले।
कब उमग मिलेंगे लोक-लावण्य-वाले॥90॥

कब कुसुमित-कुंजों में बजेगी बता दो।
वह मधु-मय-प्यारी-बाँसुरी लाडिले की।
कब कल-यमुना के कूल वृन्दाटवी में।
चित-पुलकितकारी चारु आलाप होगा॥91॥

कब प्रिय विहरेंगे आ पुन: काननों में।
कब वह फिर खेलेंगे चुने-खेल-नाना।
विविध-रस-निमग्ना भाव सौंदर्य्य-सिक्ता।
कब वर-मुख-मुद्रा लोचनों में लसेगी॥92॥

यदि ब्रज-धन छोटा खेल भी खेलते थे।
क्षण भर न गँवाते चित्त-एकाग्रता थे।
बहु चकित सदा थीं बालकों को बनाती।
अनुपम-मृदुता में छिप्रता की कलायें॥93॥

चकितकर अनूठी-शक्तियाँ श्याम में हैं।
वर सब-विषयों में जो उन्हें हैं बनाती।
अति-कठिन-कला में केलि-क्रीड़ादि में भी।
वह मुकुट सबों के थे मनोनीत होते॥94॥

सबल कुशल क्रीड़ावान भी लाडिले को।
निज छल बल-द्वारा था नहीं जीत पाता।
बहु अवसर ऐसे ऑंख से हैं विलोके।
जब कुँवर अकेले जीतते थे शतों को॥95॥

तदपि चित बना है श्याम का चारु ऐसा।
वह निज-सुहृदों से थे स्वयं हार खाते।
वह कतिपय जीते-खेल को थे जिताते।
सफलित करने को बालकों की उमंगें॥96॥

वह अतिशय-भूखा देख के बालकों को।
तरु पर चढ़ जाते थे बड़ी-शीघ्रता से।
निज-कमल-करों से तोड़ मीठे-फलों को।
वह स-मुद खिलाते थे उन्हें यत्न-द्वारा॥97॥

सरस-फल अनूठे-व्यंजनों को यशोदा।
प्रति-दिन वन में थीं भेजती सेवकों से।
कह-कह मृदु-बातें प्यार से पास बैठे।
ब्रज-रमण खिलाते थे उन्हें गोपजों को॥98॥

नव किशलय किम्वा पीन-प्यारे-दलों से।
वह ललित-खिलौने थे अनेकों बनाते।
वितरण कर पीछे भूरि-सम्मान द्वारा।
वह मुदित बनाते ग्वाल की मंडली को॥99॥

अभिनव-कलिका से पुष्प से पंकजों से।
रच अनुपम-माला भव्य-आभूषणों को।
वह निज-कर से थे बालकों को पिन्हाते।
बहु-सुखित बनाते यों सखा-वृन्द को थे॥100॥

वह विविध-कथायें देवता-दानवों की।
अनु दिन कहते थे मिष्टता मंजुता से।
वह हँस-हँस बातें थे अनूठी सुनाते।
सुखकर-तरु-छाया में समासीन हो के॥101॥

ब्रज-धन जब क्रीड़ा-काल में मत्त होते।
तब अभि मुख होती मुर्ति तल्लीनता की।
बहु थल लगती थीं बोलने कोकिलायें।
यदि वह पिक का सा कुंज में कूकते थे॥102॥

यदि वह पपीहा की शारिका या शुकी की।
श्रुति-सुखकर-बोली प्यार से बोलते थे।
कलरव करते तो भूरि-जातीय-पक्षी।
ढिग-तरु पर आ के मत्त हो बैठते थे॥103॥

यदि वह चलते थे हंस की चाल प्यारी।
लख अनुपमता तो चित्त था मुग्ध होता।
यदि कलित कलापी-तुल्य वे नाचते थे।
निरुपम पटुता तो मोहती थी मनों को॥104॥

यदि वह भरते थे चौकड़ी एण की सी।
मृग-गण समता की तो न थे ताब लाते।
यदि वह वन में थे गर्जते केशरी सा।
थर-थर कँपता तो मत्त-मातङ्ग भी था॥105॥

नवल-फल-दलों औ पुष्प-संभार-द्वारा।
विरचित करके वे राजसी-वस्तुओं को।
यदि बन कर राजा बैठ जाते कहीं तो।
वह छवि बन आती थी विलोके दृगों से॥106॥

यह अवगत होता है वहाँ-बन्धु मेरे।
कल कनक बनाये दिव्य-आभूषणों को।
स-मुकुट मन-हारी सर्वदा पैन्हते हैं।
सु-जटित जिनमें हैं रत्न आलोकशाली॥107॥

शिर पर उनके है राजता छत्र-न्यारा।
सु-चमर ढुलते हैं, पाट हैं रत्न शोभी।
परिकर-शतश: हैं वस्त्र औ वेशवाले।
विरचित नभ चुम्बी सद्म हैं स्वर्ण द्वारा॥108॥

इन सब विभवों की न्यूनता थी न याँ भी।
पर वह अनुरागी पुष्प ही के बड़े थे।
यह हरित-तृणों से शोभिता भूमि रम्या।
प्रिय-तर उनको थी स्वर्ण-पर्यङ्क से भी॥109॥

यह अनुपम-नीला-व्योम प्यारा उन्हें था।
अतुलित छविवाले चारु-चन्द्रातपों से।
यह कलित निकुंजें थीं उन्हें भूरि प्यारी।
मयहृदय-विमोही-दिव्य-प्रासाद से भी॥110॥

समधिक मणि-मोती आदि से चाहते थे।
विकसित-कुसुमों को मोहिनी मूर्ति मेरे।
सुखकर गिनते थे स्वर्ण-आभूषणों से।
वह सुललित पुष्पों के अलंकार ही को॥111॥

अब हृदय हुआ है और मेरे सखा का।
अहह वह नहीं तो क्यों सभी भूल जाते।
यह नित-नव कुंजें भूमि शोभा-निधाना।
प्रति-दिवस उन्हें तो क्यों नहीं याद आतीं॥112॥

सुन कर वह प्राय: गोप के बालकों से।
दुखमय कितने ही गेह की कष्ट-गाथा।
वन तज उन गेहों मध्य थे शीघ्र जाते।
नियमन करने को सर्ग-संभूत-बाधा॥113॥

यदि अनशन होता अन्न औ द्रव्य देते।
रुज-ग्रसित दिखाता औषधी तो खिलाते।
यदि कलह वितण्डावाद की वृध्दि होती।
वह मृदु-वचनों से तो उसे भी भगाते॥114॥

'बहु नयन, दुखी हो वारि-धारा बहा के।'
पथ प्रियवर का ही आज भी देखते हैं।
पर सुधि उनकी भी हा! उन्होंने नहीं ली।
वह प्रथित दया का धाम भूला उन्हें क्यों॥115॥

पद-रज ब्रज-भू है चाहती उत्सुका हो।
कर परस प्रलोभी वृन्द है पादपों का।
अधिक बढ़ गई है लोक के लोचनों की।
सरसिज मुख-शोभा देखने की पिपासा॥116॥

प्रतपित-रवि तीखी-रश्मियों से शिखी हो।
प्रतिपल चित से ज्यों मेघ को चाहता है।
ब्रज-जन बहु तापों से महा तप्त हो के।
बन घन-तन-स्नेही हैं समुत्कण्ठ त्योंही॥117॥

नव-जल-धर-धारा ज्यों समुत्सन्न होते।
कतिपय तरु का है जीवनाधार होती।
हितकर दुख-दग्धों का उसी भाँति होगा।
नव-जलद शरीरी श्याम का सद्म आना॥118॥

द्रुतविलम्बित छन्द

कथन यों करते ब्रज की व्यथा।
गगन-मण्डल लोहित हो गया।
इस लिए बुध-ऊद्धव को लिये।
सकल ग्वाल गये निज-गेह को॥119॥

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