प्रेमाश्रम -प्रेमचंद

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प्रेमाश्रम -प्रेमचंद
प्रेमाश्रम उपन्यास का आवरण पृष्ठ
प्रेमाश्रम उपन्यास का आवरण पृष्ठ
लेखक मुंशी प्रेमचंद
मूल शीर्षक प्रेमाश्रम
प्रकाशक वाणी प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1922
ISBN 81-7055-191-9
देश भारत
पृष्ठ: 364
भाषा हिन्दी
विषय सामाजिक, यथार्थवादी
प्रकार उपन्यास

'प्रेमाश्रम', जिसका प्रकाशन 1922 ई. में हुआ था, मुंशी प्रेमचन्द का सर्वप्रथम उपन्यास है, जिसमें उन्होंने नागरिक जीवन और ग्रामीण जीवन का सम्पर्क स्थापित किया है और राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण करते हैं। परिवारों की कथा का मोह तो वे इस उपन्यास में भी नहीं छोड़ सके, क्योंकि प्रभाशंकर रायकमलानन्द गायत्री और डिप्टी ज्वालासिंह के परिवारों की कथा से ही उपन्यास का ताना-बाना बना गया है, तो भी वे जीवन के व्यापक क्षेत्र में आते हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम झाँकी और भागनागत राम-राज्य की स्थापना का स्वप्न 'प्रेमाश्रम' की अपनी विशेषता है। उसका उद्देश्य है- साम्य सिद्धांत। प्रेमशंकर द्वारा हाजीपुर में स्थापित प्रेमाश्रम में जीवन-मरण के गृढ़ जटिल प्रश्नों की मीमांसा होती थी। सभी लोग पक्षपात और अहंकार से मुक्त थे। आश्रम सारल्य, संतोष और सृविचार की तपोभूमि बन गया था वहाँ न धन की पूजा होती थी और न दीनता पैरों तले कुचली जाती थी। आश्रम में सब एक दूसरे के मित्र और हितैषी थे। मानव-कल्याण उनका चरम लक्ष्य था। उसका व्यावहारिक रूप हमें उपन्यास के 'उपसंहार' शीर्षक अंश में मिलता है। लखनपुर गाँव में स्वार्थ-सेवा और माया का प्रभाव नहीं रह गया। वहाँ अब मनुष्य की मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठा हुई है-ऐस मनुष्य की जिसके जीवन में सुख, शांति, आनन्द और आत्मोल्लास है।

कथानक

'प्रेमाश्रम' की कथा का सृत्रपात बनारस से बाहर मील दूर लखनपुर गाँव से होता है। ज़मींदार ज्ञानशंकर की ओर से शुद्ध घी के लिए बयाना बँटना है। केवल मनोहर नहीं लेता। मनोहर की घृष्टता ज़मींदार और उसके कारिन्दा गौस खाँ के लिए असह्य थी। ज्ञानशंकर तो उससे बहुत नाराज़ होते हैं और इस मामले को लेकर अपने चाचा प्रभाशंकर तक से बिगड़ जाते है। प्रभाशंकर पुराने रईस हैं, बनारस के औरंगाबाद मुहल्ले में रहते हैं और अपने असामियों के प्रति भी वात्सल्य भाव रखते हैं। उनके भाई जटाशंकर के पुत्र ज्ञानशंकर को उनकी यह उदारता पसन्द नहीं। अपने चाचा की नीति से प्रसन्न न होने के कारण वे प्रभाशंकर के दारोगा पुत्र दयाशंकर पर चल रहे अभियोग में जरा भी सहायता करने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं किंतु उनके मित्र डिप्टी ज्वालासिंह ने दयाशंकर को छोड़ दिया। नौबत यहाँ तक पहुँची कि ज्ञानशंकर ने परिवार में बँटवारा करा लिया। डिप्टी ज्वालासिंह न्यायशील और दयालु व्यक्ति थे। कर्तव्य-पालन की ओर उनका सदैव ध्यान रहता था। वे गाँव के दौरे में बेगारी बंद करा देने की आज्ञा देते हैं और मनोहर के पुत्र बलराज की निर्भीकता से प्रसन्न होते हैं। ज्ञानशंकर अत्यन्त स्वार्थ-प्रिय और धनलोलुप है। जब अपने ससुर राय कमलानंद (लखनऊ) के पुत्र की मृत्यु के समय वे अपनी पत्नी विद्या (राय कमलानंद की छोटी पुत्री) के साथ लखनऊ पहुँचते हैं तो उनकी निगाह अपनी विधवा साली गायत्री पर और उसके धन-सम्पत्ति पर भी पड़ती है। राय कमलानंद बड़े ही रसिक और अनुभवी व्यक्ति हैं। वे ज्ञानशंकर नीयत तुरंत ताड़ जाते हैं। वे यह भी समझ जाते है कि ज्ञानशंकर की दृष्टि गायत्री और उसकी धन-सम्पत्ति पर ही नहीं, उनकी अपनी धन-सम्पत्ति पर भी है। सरल-हृदया गायत्री ज्ञानशंकर के पंजे में धीरे-धीरे फँसती जाती है। वे अपने उद्देश्य की पूर्ति में सतत प्रयत्नशील रहते हैं। उधर गाँव में आये दिन कोई-न-कोई अत्याचार होता रहता है। ज्ञानशंकर के भाई प्रेमशंकर भी अमेरिका से लौट आते हैं। वे नवीन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारों स अनुप्राणित होकर घर वापिस आये हैं। ज्ञानशंकर को उनके वापिस आने से हार्दिक प्रसन्नता न हुई। प्रेमशंकर के विदेश-गमन के फलस्वरूप उनके जाति-बहिष्कार या प्रायश्चित की समस्या भी उठती है। यहाँ तक कि प्रेमशंकर निर्भीक होकर अपने मार्ग का निर्माण स्वयं करते है। वे सब प्रकार का आर्थिक लोभ छोड़कर जन-सेवा का मार्ग ग्रहण करते और हाजीपुर में अपना आश्रम स्थापित करते हैं। ज्ञानशंकर को अपने भाई का साम्य-सिद्धांत बिल्कुल पसन्द नहीं। प्रेमशंकर ने जब पैतृक सम्पत्ति में अपने अधिकार को तिलांजलि दे दी तो ज्ञानशंकर को अत्यंत प्रसन्नता हुई। वे अब गायत्री के यहाँ गोरखपुर आने-जाने गले और अपनी बुद्धि, व्यावहारिकता, प्रबन्ध-पटुता और कार्य-कुशलता के फलस्वरूप उस पर पूर्ण रूप से हावी ही नहीं हो गये, वरन् उसकी धार्मिकता का अनुचित लाभ उठाते हुए 'राधा-कृष्णभाव' की भक्ति का भी आनन्द उठाने लगे। इसी समय विलासी का अपमान करने के कारण मनोहर ने साथ जाकर बलराज द्वारा गौस खाँ कारिन्दा की हत्या करा दी, जिसके फलस्वरूप सारा गाँव विपत्ति में पड़ गया। गाँववालों पर मुकदमा चला। प्रेमशंकर और डिप्टी ज्वालासिंह उनकी आर्थिक और क़ानूनी सहायता के लिए कटिबद्ध हो गये। ज्ञानशंकर को यह बात बिल्कुल अच्छी न लगी। उधर राय कमलानन्द ज्ञानशंकर की 'भक्ति' के जाल से गायत्री को बचाना चाहते थे। ज्ञानशंकर ने उन्हें विष देकर मार डालना चाहा किंतु राय कमलानन्द अपने योग-बल द्वारा विष को पचा गये। राय कमलानन्द अपने को चेतावनी देनी चाही। यद्यपि विद्या को अपने पति की स्वार्थपरता को क्षुद्रता बिल्कुल न सुहाती थी तो भी उसे पति के नैतिक चरित्र के सम्बन्ध में अभी तक कोई सन्देह नथा। इसलिए राय कमलानन्द की चेतावनी उसे अच्छी न लगी किंतु बनारस आकर जब उसने ज्ञानशंकर और गायत्री का 'भक्ति-सम्बन्ध' देखा तो आँखें खुल गयी। गायत्री को तो इससे आत्मग्लानि हुई ही, विद्या को भी अत्यधिक मानसिक क्लेश हुआ। जब ज्ञानशंकर ने मायाशंकर को गायत्री की गोद देना चाहा तब तो उसने अपने हाथों इहलीला ही समाप्त कर दी। विद्या की मृत्यु ने गायत्री के सामने सारी परिस्थिति स्पष्ट कर दी। वह ज्ञानशंकर की बदनीयती और क्रूरता से ही अवगत न हुई वरन् विद्या के रक्त से अपने ही हाथ साँप कर तीर्थाटन के लिए चली जाती है। वह बदरीनारायण जाना चाहती थी, किंतु चित्रकूट में एक महात्मा की (जो वास्तव में राय कमलानन्द थे) चर्चा सुनकर वह उधर ही चल पड़ी। वह अपने मानसिक संघर्ष को लिये जब पहाड़ी पर चढ़ने की चेष्टा कर रही थी, उस समय पैर फिसल जाने के कारण पर्वत के गहन गर्त में गिरकर मृत्यु को प्राप्त हो गयी। प्रेमशंकर और डिप्टी ज्वालासिंह ने इर्फान अली वकील, और डॉ. प्रियनाथ चोपड़ा की सहायता से गाँव वालों की रक्षा की, यद्यपि मनोहर ने जेल ही में आत्माहत्या कर ली थी। इतना ही, नहीं, इर्फान अली और डॉ. प्रियनाथ चोपड़ा जैसे आत्म-सेवियों के हृदय में प्रेमशंकर अपने स्नेह और त्याग से परिवर्तन उपस्थित कर देते हैं। इजाद हुसेन भी, जो पहले हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद के बहाने अपना ही स्वार्थ साधते थे, प्रेमशंकर के व्यक्तित्व से प्रभावित हो सचाई और ईमान का मार्ग ग्रहण करते हैं। श्रद्धा, जो अपनी जड़ और मिथ्या धार्मिकता के कारण अपने पति से कटी-कटी रहती है, अब उनकी सेवा त्याग, संयम, साधना, परोपकार-व्यस्तता आदि को प्रायश्चित का असली रूप समझ कर पति के चरणों की सच्ची उपासिका बन सचमुच श्रद्धा और अनुराग की देवी बन जाती है। प्रभाशंकर का पुत्र दयाशंकर वैराग्य धारण कर लेता है। उन के दो अन्य पुत्र तेजशंकर और पद्मशंकर आसानी से समृद्ध हो जाने की आकांक्षा से प्रेरित हो भैरव-मंत्र जगाने के प्रयत्न में अपना-अपना अंत कर डालने हैं। मिथ्या विश्वास और कुशिक्षा ने दो जीवन-पुष्पों को अपने पैरों तले कुचल दिया। मायाशंकर प्रारम्भ से ही संतोष और त्याग की भावना लिए हुए था। प्रेमशंकर के संरक्षण में रहने के कारण उसके ये संस्कार और भी दृढ़ हो गये। अपने तिलकोत्सव के समय उसने जो भाषण दिया, उसमें दीनों के कल्याण, कर्त्तव्य-पालन, न्याय, धर्म, दुर्बलों के आँसुओं की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया था। उसने जमींदारी-उन्मूलन और सहकारिका के भाव व्यक्त किये थे। ज्ञानशंकर ने अपने जीवन भर की आशाओं पर पानी फिरते देख गंगा में डूबकर आत्महत्या कर ली।

अंत में प्रेमाश्रम के सदस्यों के साथ प्रेमशंकर और मायाशंकर दीनों की रक्षा और उनके जीवन को सुखमय बनाने में दत्तचित्त रहते हैं। राजसभा के सदस्यों के रूप में भी वे जन-सेवा की भावना से ही प्रेरित होते हैं। गाँव में रामराज्य की स्थापना कर वे दिव्य आनन्द का अनुभव करते हैं। विविध सुधारों, सफाई, शिक्षा, अच्छी कृषि के लिए अच्छे बीज की व्यवस्था की जाती है। वे प्रजा के ट्रस्टी बन जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ


धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 360।

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