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बूढ़ा फौजी -कुलदीप शर्मा

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बूढ़ा फौजी -कुलदीप शर्मा
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कवि कुलदीप शर्मा
जन्म स्थान (उना, हिमाचल प्रदेश)
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कुलदीप शर्मा की रचनाएँ
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जवानी के दिनों का रौबदार फोटो
पहचान पत्र पर चिपकाए
कैंटीन की लाईन में खड़ा
बूढ़ा फ़ौजी
ढूँढ रहा है अपने हिस्से की शराब
जिसे देगा वह दारोगा को
ताकि सुरक्षित रहे उसके हिस्से की ज़मीन
बूढ़ा फ़ौजी फ़र्क़ नहीं कर पा रहा
देश और ज़मीन में
पहचान पत्र पर छपे तीन शेर
चुपके से उसके कान में
फूँक रहे हैं एक मन्त्र
और वह तैयारी कर रहा है
अपने खिलाफ,एक लड़ाई की
कोई देख नहीं पाएगा
जिसका रक्तपात
न हार जीत़

निरंतर बूढ़ा होता जा रहा है फ़ौजी
निरंतर क्रूरतर होती जा रही है लड़ाई
समय अपनी हथेलियों में
उठा लाया है
दो तीन सदियों के चुनिन्दा नमूने
कुछ भी चुनो
युद्धविहीन नहीं है एक भी सदी
युद्धविहीन नहीं है एक भी पल़
सच तो यह है कि
सबसे भीषण युद्ध लड़ा गया
सबसे शान्त और निस्तब्ध क्षणों में
जैसे फूल लड़ते हैं
अपने जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई
घोर बसंत समय में
जैसे पेड़ लड़ते हैं हवा स़े
बीज लड़ता है मिट्टी स़े

युद्ध से बचे हुए
वे सारे शस्त्र
जो बरसों से पड़े हैं कुंद, अनछुए
चुभते हैं बूढ़े फ़ौजी को
वह नहीं कह पाता किसी से
कितनी लड़ाइयाँ हारने के बाद
हो जाता है आदमी रूपान्तरित
एक ऐतिहासिक स्मारक में
जहां एक समारोह की तरह मनाया जाता है
इतिहास में उसका आदमी होना
आखिरकार यह भूलने के लिए
कि एक बार कितनी शर्मिन्दगी से लौटा था वह घऱ

अपनी पुरानी बन्दूक को
हर रोज़ साफ़ करता है
एक ज़रूरी और पवित्र दिनचर्या की तरह
फिर कीली पर टांग देता है
शिव जी के कलैण्डर की बगल में बूढ़ा फ़ौजी
यन्त्रवत रटता हुआ-‘कन्धे शस्त्र’
और उसके सामने से निःसंकोच
गुज़र जाता है हर रोज
बाईक का भोंडा हॉर्न बजाता
पड़ोसी का आवारा लड़का़
कॉलेज जाती कन्या
बुरा नहीं मनाती
बीड़ी चूसते मज़दूरों की फब्तियों का
सामने ही एक थुलथुल स्त्री
मोबाईल कान से सटाए
हंसती रहती है़

युद्धनीतियों में इतने बड़े बदलाव के बाद
बूढ़ा फ़ौजी कभी नहीं चलाएगा बंदूक
हो सकता है वह चले भी नहीं
वक्ते ज़रूरत
पर वह जान तक दे सकता है
बंदूक के लिए
बंदूक का होना उसके लिए
पीड़ा और अन्याय के खिलाफ
एक ललकार है़

बूढ़ा फ़ौजी
अनायास आ गया है उन लोगों के बीच
जो समझते हैं कि वे जीत आए हैं
सारी लड़ाईयां
जैसे अब जीत -हार का
कोई अर्थ न हो उनके जीवन में
जो कभी लड़े ही नहीं
उन हारे हुए लोगों के बीच
बूढ़ा फ़ौजी धीरे-धीरे
अपनी जीत के तमाम किस्से भूलता जा रहा है़
वह कैसे बताए उन्हें
कि जीवन में से
लड़ाई खारिज करके भी
कितनी ख़राब लड़ाई लड़ रहे हैं वे सब !

उधर फ़ौज से लौटे लोग
ले आए हैं अपनी जेबों में
कारगिल के किस्से
सीमापार की कहानियां
और शेष जीवन के लिए पैन्शन
वे आते ही मसरूफ हो गए हैं
स्थानीय राजनीति में
सीख गए हैं असैनिक चतुराईयां
खेतों की मेंड़ पर हावी है उनका दबदबा
पेड़ों का आकार कर रहे हैं सीमाबद्ध
बच्चों के लिए जुटा रहे हैं आरक्षित कोटा
निर्धारित कर रहे हैं सबके सुख़

बूढ़ा फ़ौजी लौटा है लड़ाई से
वह लड़ना चाहता है हर हाल
मान-अपमान, जय-पराजय की चिंता किए बगैऱ

जहां चारदिवारियों से घिरा है
हर सुरक्षित घर
बूढ़ा फ़ौजी वहां भी
धरती पर खींचता है
हर रोज़ एक लकीर
और चुनौती देता है
कि इसे लांघ कर दिखाए
कोई अत्याचार
कोई अन्याय़

इसी देश, इन्हीं लोगों से
बदा है उसका भाग्य
देश और भाग्य में
कुछ भी चुनना संभव नहीं है उसके लिए़
 
अमूमन वे सारे भले लोग
तीज त्यौहारों पर करते हैं
हैसियत से थोड़ा ज़्यादा खर्च
और कुढ़ते है साल भऱ
अपने हिस्से की खुशी
तलाश लेते हैं
दुखती रगों से हाथ बचाते हुए

ऐसे लोगों के बीच
बूढ़ा फ़ौजी भूल गया है
तर्क का स्वाद
बूढ़ा फ़ौजी जब तैयार कर रहा होता है
दिन भर की लड़ाईयों की सूचियां
वे लोग निकल जाते हैं
सैर का रोज़ाना नियम निभाने!

बूढ़े फ़ौजी के लिए नहीं बचे हैं विकल्प
डसका घर हो गया है खंदक में तब्दील
संगीत भी उसके कानों में
बजता है हूटर की तरह

वे सारी लड़ाईयां जो ज़रूरी थी
और लड़ी नहीं गईं
उसके सपनों में आती हैं सब
वे सारी लड़ाईयां जिन्हें भूलकर
लोग बिता देते हैं पूरा जीवन
तमाशबीन की तरह
उदासीन की तरह़

जो हर लड़ाई हार कर
खुश रहना सीख गए हैं
जिनके लिए खुशामद
हर खतरे के ख़िलाफ़ एक अचूक उपाय है
जिनके लिए गाय ‘माता’ है
और माता ‘गाय’ है़
जिनके चेहरे पर शान्ति भी
डराती है बुरी तरह
जिनकी मुस्कान भी कर देती है बेचैन
ऐसे लोगों के खिलाफ
कभी नहीं लड़ पाएगा बूढ़ा फ़ौजी़
जहां सभी युद्ध नकली हैं
डाले गए सारे हथियार असली़

तिरंगे को सलामी देने बढ़ रही है
जवानो की एक ताज़ा टुकड़ी
और बूढ़े फ़ौजी की मॉंसपेशियों में
बढ़ रहा है तनाव
कि नाउम्मीदी के इस घोर घटाटोप में
इतनी कम संभावनाओं के बावजूद
बाकायदा मुस्कुरा रहे हैं प्रधानमन्त्री
बुलेटप्रूफ शीशे की ओट में

फ़ौजी के अधटूटे दांतों में
जाने कब से फंसी है अचार की एक फांक
खोखले आन्दोलनों नीतियों और नारों के बीच फंसे
लोकतन्त्र की तरह
जो हल्का सा स्वाद दे रही है
पुरानी स्मृतियों का
अचार जिसे उसकी मॉं बनाना जानती थी
लोकतन्त्र जिसे नेहरू चलाना जानते थ़े

वह स्मृतियों में टटोल रहा है
व्यतीत समय की एक भोर
जब जादूभरे तो थे शब्द
बहुअर्थी बिल्कुल नहीं
दुशमन नहीं था चेहरा विहीन
और हर लड़ाई उजाले में लड़ी जाती थी़

बूढ़ा फ़ौजी जो लड़ाई के अतिरिक्त
कुछ नहीं जानता
पास रखी बंदूक के बावजूद
बिल्कुल निहत्था हो गया है
उससे छीन ली गई है लड़ाई
पहचान के सारे सुराग मिटाकर
आस-पास रख दिये हैं दुश्मन ही दुश्मन--

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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