भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-18

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5.गुरू कृष्ण

ऋग्वेद 4, 26 में वामदेव कहता हैः“मैं मनु हूँ, मैं सूर्य हूँ। मैं विद्वान् ऋषि कक्षिवान् हूँ। मैंने अर्जुनी के पुत्र ऋषि कुत्स की पूजा की है। मैं विद्वान् उशना हूँ। मेरी ओर देखो...।” कौशीतकि उपनिषद् (3) में इन्द्र प्रतर्दन से कहता हैः“मैं प्राण हूँ: मैं चेतन आत्मा हूँ: मुझे जीवन और प्राण मानकर मेरी पूजा करो। जो मुझे जीवन या अमरता मानकर मेरी पूजा करता है, वह इस संसार में पूर्णजीवन प्राप्त करता है; वह स्वर्गलोक में जाकर अमरता और अनश्वरता प्राप्त करता है।”[1] गीता में लेखक कहता हैः “राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें शरण लेकर अनेक लोग ज्ञानमय तप द्वारा पवित्र होकर मेरे रूप को प्राप्त हो चुके हैं।”[2] जीव अपने से भिन्न किसी ऐसी वस्तु का सहारा लेता है, जिसके प्रति वह अपने-आप को समर्पित कर सके। इस समर्पण में ही उसका रूपान्तरण है। मुक्त आत्मा अपने शरीर को शाश्वत की अभिव्यक्ति के लिए वाहन के रूप में प्रयुक्त करती है। कृष्ण ने जिस दिव्यता का दावा किया है, यह सब सच्चे आध्यात्मिक उन्वेषकों को प्राप्त होने वाला सामान्य प्रतिफल है।
वह कोई ऐसा नायक नहीं है, जो कभी पृथ्वी पर चलता-फिरता था और अपने प्रिय मित्र और शिष्य को उपदेश देने के बाद इस पृथ्वी को छोड़कर चला गया है, अपितु वह तो सब जगह विद्यमान है और हम सबके अन्दर विद्यमान है; और वह सदा हमें उपदेश देने को उसी प्रकार तैयार रहता है, जैसा कि वह कभी भी किसी को भी उपदेश देने के लिए तैयार था। वह कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं है, जो कि अब समाप्त हो चुका हो, अपितु वह तो अन्तर्वासी आत्मा है, जो हमारी आध्यात्मिक चेतना का लक्ष्य है। परमात्मा साधारण अर्थ में कभी जन्म नहीं लेता। जन्म और अवतार की वे प्रक्रियाएं, जिनमें सीमित हो जाने का अर्थ निहित है, उस पर लागू नहीं होती। जब यह कहा जाता है कि परमात्मा ने अपने-आप को किसी खास समय या किसी खास अवसर पर प्रकट किया, तो उसका अर्थ केवल इतना होता है कि ऐसा प्रकट होना किसी सीमित अस्तित्व को लेकर होता है। ग्यारहवें अध्याय में सारा संसार परमात्मा के अन्दर दिखायाग गया है। संसार की कर्तश्रित और वस्तु-रूपात्मक प्रक्रियाएं भगवान् की केवल उच्चतर और निम्नतर प्रकृतियों की अभिव्यक्तियां-मात्र है। फिर भी जो भी कोई वस्तु शानदार, सुन्दर और सबल है, उसमें परमात्मा का अस्तित्व कहीं अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त होता है। जब किसी सीमित व्यक्ति में आध्यात्मिक गुण विकसित हो जाते हैं और उसमें गहरी अन्तदृष्टि और उदारता दिखाई पड़ती है, तब वह संसार के भले-बुरे का निर्णय करता है और एक आध्यात्मिक और सामाजिक उथल-पुथल खड़ी कर देता है; तब हम कहते हैं कि परमात्मा ने अच्छाई की रक्षा और बुराई के विनाश के लिए और धर्म के राज्य की स्थापना के लिए जन्म लिया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शंकराचार्य ने इस पर टीका करते हुए कहा हैः “इसका अर्थ यह है कि इन्द्र ने, जो कि एक देवता हैं, शास्त्रों के अनुसार ऋषियों को प्राप्त होने वाली दृष्टि से अपने-आप को परब्रह्म के रूप में देखते हुए यह कहा है कि ‘मुझे जानो’, ठीक उसी प्रकार जैसे कि इसी सत्य को देखते हुए वामदेव को अनुभव हुआ था कि ‘मैं मनु हूँ, मैं सूर्य हूँ।’ श्रुति में (अर्थात् बृहदाण्यक उपनिषद् में) यह कहा गया है ‘उपासक उस देवता के साथ, जिसे वह सचमुच देखता है, एकरूप हो जाता है’।”
  2. 4, 10। ईसा ने अपना जीवन एकान्त-प्रार्थना, ध्यान और सेवा में बिताया था। वह भी हम लोगों का भाँति प्रलोभित हो जाता था। उसे महान् रहस्यवादियों की भाँति आध्यात्मिक अनुभूतियां होती थी और एक बार आत्मिक यन्त्रण के क्षण में, जब उसे परमात्मा की उपस्थिति की अनुभूति होनी बन्द हो गई, वह चिल्ला उठाः “मेरे परमात्मा, तूने मुझे क्यों छोड़ दिया है?” (मार्क 15, 34)। वैसे सारे समय वह परमात्मा पर स्वयं को आश्रित अनुभव करता रहा। “पिता मुझसे बड़ा हैं”: (जॉन 14, 28)। “तू मुझे अच्छा क्यों कहता है? एक परमात्मा को छोड़कर और कोई अच्छा नहीं है।” (ल्यूक 18, 19)। “परन्तु उस दिन और उस समय के विषय में कोई नहीं जानता; स्वर्ग में रहने वाले देवदूत भी नहीं; पुत्र भी नहीं; केवल पिता जानता है।” (मार्क 13, 32)। “पिता, मैं तेरे हाथों में अपनी आत्मा को सौंपता हूँ।” (ल्यूक 23, 46)। यद्यपि ईसा को अपनी अपूर्णताओं का ज्ञान था, फिर उसने परमात्मा की चारूता और प्रेम को पहचाना और स्वेच्छापूर्वक अपने-आप को पूर्णतया उसके सम्मुख निवेदित कर दिया। इस प्रकार वह सारी अपूर्णता से मुक्त हो गया और परमात्मा में शरण लेकर वह दिव्यता के स्तर तक पहुँच गया। “मैं और पिता एक हैं।” (जॉन 10, 30)।

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