मणिकर्णिका- डॉ. तुलसीराम

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मणिकर्णिका- डॉ. तुलसीराम
मणिकर्णिका का आवरण पृष्ठ
लेखक डॉ. तुलसीराम
मूल शीर्षक मणिकर्णिका
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
प्रकाशन तिथि 2014
ISBN 9788126726103
देश भारत
पृष्ठ: 208
भाषा हिन्दी
विधा आत्मकथा
भाग 'मुर्दहिया' का द्वितीय भाग
टिप्पणी इस किताब में डॉ. तुलसीराम के 'मुर्दहिया' के आगे का जीवन यानी अपने बचपन के मुर्दहिया का साथ छोड़ बनारस का हाथ पकड़ने ओर उनके बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में 10 साल का जीवन संघर्ष है।

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मणिकर्णिका प्रसिद्ध दलित साहित्यकार डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा 'मुर्दहिया' का दूसरा भाग है। हिन्दी दलित आत्मकथाओं में डॉ. तुलसीराम का 2010 में प्रकाशित पहला खण्ड 'मुर्दहिया' एवम् दूसरा खण्ड 2013 में 'मणिकर्णिका' दलित समाज की त्रासदी और भारतीय समाज की विडम्बना का सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक आख्यान है। यह कृति समाज, संस्कृति, इतिहास और राजनीति की उन परतों को उघाड़ती है जो अभी तक अनकहा और अनछुआ था। बौद्धिकों को भारतीय समाज के सच का आइना दिखाती है कि देखो 21वीं सदी के भारत की तस्वीर कैसी है? ये केवल एक आत्मकथा भर नहीं, अपितु पूरे दलित साहित्य की पीड़ा का यथार्थ रूप है, उनकी भोगी हुई अनुभूति है।

विषयवस्तु

इस किताब में डॉ. तुलसीराम के 'मुर्दहिया' के आगे का जीवन यानी अपने बचपन के मुर्दहिया का साथ छोड़ बनारस का हाथ पकड़ने ओर उनके बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में 10 साल का जीवन संघर्ष है। दोनों शीर्षकों में भी साम्यता है, एक में जहाँ दलित मान्यताओं के अन्धविश्वास का ज़िक्र है तो दूसरे में ब्राह्मणवादी अंधविश्वासों की दुर्गन्ध।

मणिकर्णिका घाट

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दरअसल ‘मणिकर्णिका’ बनारस का वह घाट है, जहाँ मुर्दे को बांधकर अंतिम संस्कार के लिए इस आस में लाया जाता है कि यहाँ से उसे सीधे स्वर्ग में स्थान मिलेगा। वैसे बनारस के बारे में एक और धारणा प्रचलित है कि यहाँ कोई भूखा नही रहता, पर यहाँ आते ही डॉ. तुलसीराम ने इस मान्यता को स्वयं ध्वस्त होते हुए देखा, उन्होंने यहाँ एक-दो दिन की भूख नहीं बल्कि लगातार पूरे नौ दिनों तक भूख सहने पर मजबूर होना पड़ा। गंगा के घाट में भूखों की लंबी कतार देखकर उनके मन से अचानक आवाज़ आई कि "गंगा पापी का पाप तो धो सकती है, पर भूख को नही।"

इस किताब में डॉ. तुलसीराम ने बनारस के प्रसिद्ध घाटों और मंदिरों का चित्रण करते हुए यहाँ के पंडों के पाखंड और कारोबार का वर्णन करते हुए बताया कि वे कैसे कृष्ण की भक्ति का बखान करते हुए तथा भूत उतारने के बहाने महिलाओं का शोषण का शिकार किया करते हैं। स्पष्ट है कि इस किताब में लेखक के जीवन की व्यक्तिगत पीड़ा मात्र का वर्णन नहीं है, बल्कि इसमें वे महज़ एक पात्र है, जो किसी फ़िल्मी केमरे की तरह निरपेक्ष किन्तु सभी घटनाओं को प्रस्तुत करने का आवश्यक माध्यम है। इसमें 70 के दशक की विभिन्न राजनीतिक धाराओं यथा मार्क्सवाद, समाजवाद, नक्सलवाद का दर्शन और खासकर उनके समकालीन इतिहास का ऐसा रोचक और सजीव चित्रण है, जो आज की पीढ़ी के लिए अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, राज नारायण और इंदिरा गाँधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं का छात्र राजनीति पर असर का भी विवरण है।

लेखन शैली

डॉ. तुलसीराम की लेखनी की एक और विशेषता जो उन्हें तमाम दलित लेखकों से अलग करती है, वह उनके अचेतन पर बुद्ध का गहरा प्रभाव है। उनके जीवन के हरेक पल खासकर निर्णायक क्षणों में बुद्ध हमेशा सामने आते हैं। वे बताते हैं कि जब उन्हें सारनाथ जाने का मौका मिला, वे वहाँ बुद्ध की प्रतिमा को देख भावुक हो गये… बुद्ध का प्रथम उपदेश, जो उन्हें मुंह जबानी याद था, को वे मन ही मन दोहराते रहे। वे बताते हैं कि भूख और ग़रीबी से मजबूर होकर एक बार उनके मन ने उन्हें चोरी करने पर मजबूर किया, पर बुद्ध की शिक्षा ने उन्हें इस घटना को दोबारा नही करने का अटूट संकल्प दिया जो जीवन भर कायम रहा। अश्वघोष रचित 'बुद्धचरित' उनके मन में पूरी तरह बैठा हुआ था।

गीत और कविताएं शायद डॉ. तुलसीराम के जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं, और यही कारण है कि 'मुर्दहिया' और 'मणिकर्णिका' दोनों की ही लेखन शैली में ऐसी लय और बहाव है कि पाठक इसमें खुद को लगातार बहने से नहीं रोक सकता। खुद लेखक ने भी ज़िक्र किया है कि एक बार उन्हें प्रो. नन्दुराम जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पहले और उस वक्त के एकमात्र आम्बेडकरवादी प्रोफ़ेसर थे, ने सलाह दी थी कि कविता लिखने से कुछ नहीं होता, इसे छोड़ विचारात्मक गद्य लिखा करो… बेशक ये किताबें गद्य तो हैं, पर इनमें गीतों की तरह एक ऐसा बहाव है जो इनसे पाठकों को बांधे रखता है, यदि किसी ने गलती से भी इनका एक भी पन्ना पढ़ लिया तो वह इन्हें पूरा किये बिना नहीं छोड़ सकता।

'मणिकर्णिका' यद्यपि डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा है, परन्तु इसमें उनके द्वारा प्रयुक्त ‘मैं’ एक व्यक्ति नहीं बल्कि हर पल बुद्ध के दर्शन से पूर्णतः प्रभावित एक अम्बेडकरवादी है, जिसके हर निर्णय और कार्य की पृष्ठभूमि इसी दर्शन से प्रभावित है, यह किताब अन्य आत्मकथाओं की भांति व्यक्तिगत पीड़ा नहीं बल्कि तत्कालीन समाज का सम्पूर्ण विवरण है, बेशक प्रो. तुलसीराम की यह रचना इसे अब तक कि प्रकाशित तमाम आत्मकथाओं से अलग और विशिष्ट बनाती है। इस किताब के अंत में डॉ. तुलसीराम ने प्रीति करे ना कोई नामक शीर्षक में अपने जीवन के प्रेम प्रसंगों का सहज वर्णन किया और इससे उपजी निराशा और हार उन्हें ‘मणिकर्णिका’, जहाँ अंतिम संस्कार होता है, के सामान ही लगती है … वे सोचते हैं ‘प्रेम में असफलता क्रान्ति की सफलता की गारंटी नहीं होती।’ किताब में उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कविताओं को मनोरंजक तरीके से प्रस्तुत किया है। जब कभी दर्द-तकलीफों को पढ़ते हुए मन में जब मायूसी आ जाती है, तब वही कहीं-कहीं उनकी कविताएं यहाँ सामने आकर हँसने पर मजबूर कर देती है, जैसे-

    मैं हो चुका हूँ
    गलतफहमियों का
    इस कदर शिकार।
    जब कोई कान
    खुजलाने के लिए
    उठाता है हाथ,
    तो मैं कहता हूँ नमस्कार।


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