रजनी कोठारी

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रजनी कोठारी
रजनी कोठारी
रजनी कोठारी
पूरा नाम रजनी कोठारी
जन्म 16 अगस्त, 1928
मृत्यु 19 जनवरी, 2015
मृत्यु स्थान दिल्ली
अभिभावक फौजा लाल कोठारी (पिता)
पति/पत्नी हंसा कोठारी
संतान पुत्र- मिलोन और आशीष
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र शिक्षक, लेखक, राजीनीतिक विचारक
मुख्य रचनाएँ पॉलिटिक्स इन इंडिया (1970) कास्ट इन इंडियन पॉलिटिक्स (1973), रीथिंकिंग डेमोक्रेसी (2005) आदि
भाषा अंग्रेज़ी
पुरस्कार-उपाधि राइट लाइवलीहुड पुरस्कार (1985)
विशेष योगदान 'लोकायन' और 'विकासशील समाज अध्ययन पीठ' (सी.एस.डी.एस.) की स्थापना
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी रजनी कोठारी 'पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज' के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। कोठारी जी ने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल दलित-पिछड़ी राजनीति को सूत्रबद्ध करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भूमण्डलीकरण की ताक़तों के ख़िलाफ़ बौद्धिक नाकेबंदी करने के लिए किया।
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रजनी कोठारी (अंग्रेज़ी: Rajni Kothari, जन्म- 16 अगस्त, 1928 ई. मृत्यु: 19 जनवरी, 2015) भारत के प्रसिद्ध शिक्षाविद, लेखक, राजनीतिक सिद्धांतकार तथा राजनीति विज्ञानी थे। इन्होंने वर्ष 1963 में 'सी.एस.डी.एस.' (विकासशील समाज अध्ययन पीठ) की स्थापना की थी। यह दिल्ली स्थित समाज विज्ञान तथा मानविकी से सम्बंधित अनुसंधान संस्थान है। कोठारी जी 'पीपुल्स यूनियन ऑफ़ सिविल लिबर्टीज' के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे। अपने रचनाकाल के तीसरे दौर में उन्होंने आधुनिकता के वैचारिक ढाँचे को ख़ारिज किये बिना वैकल्पिक राजनीति का संधान करने का प्रयास किया था। 'लोकायन' नामक संस्थान की स्थापना रजनी कोठारी द्वारा वर्ष 1980 में की गई थी। कोठारी जी ने अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल दलित-पिछड़ी राजनीति को सूत्रबद्ध करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भूमण्डलीकरण की ताक़तों के ख़िलाफ़ बौद्धिक नाकेबंदी करने के लिए किया।

जन्म तथा शिक्षा

रजनी कोठारी का जन्म 1928 में एक समृद्ध गुजराती व्यापारिक घराने में हुआ था। उनके पिता बर्मा में हीरों का व्यापार किया करते थे। उनकी शुरुआती शिक्षा-दीक्षा आयंगारों द्वारा चलाए जाने वाले रंगून के एक स्कूल में हुई। परिवार में बौद्धिकता की कोई परम्परा न होने के बावजूद रजनी कोठारी के पिता ने उन्हें सुशिक्षित करने में कोई कसर न छोड़ी। उनका बचपन बर्मा के अपेक्षाकृत खुले समाज में बीता। घर की छतों पर होने वाले सामूहिक नृत्यों, मंगोल और बौद्ध संस्कृति के मिले-जुले लुभावने रूप, दक्षिण भारतीय चेट्टियारों, गुजराती बनियों, वोहराओं, खोजाओं और मुसलमान व्यापारियों के मिश्रित भारतीय समुदाय के बीच गुज़ारे गये शुरुआती वर्षों ने उन्हें एक उदार मानस प्रदान किया।

भारतीय मार्क्सवाद के व्याख्याता

'लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स' से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद रजनी कोठारी ने कुछ दिन बड़ोदरा में क्लासिकल अर्थशास्त्र पढ़ाया। इस दौरान वे भारतीय मार्क्सवाद के प्रारम्भिक व्याख्याता और बाद में रैडिकल मानवतावाद के प्रमुख प्रवक्ता मानवेन्द्रनाथ राय से भी प्रभावित हुए। अपने जीवन के अंतिम दौर में पत्नी हंसा कोठारी और बड़े बेटे स्मितु कोठारी के निधन से आहत प्रोफ़ेसर कोठारी दिल्ली स्थित आवास में अपना समय गुज़ारते हैं।

राजनीतिक चिंतन

अपने राजनीतिक चिंतन की शुरुआत में रजनी कोठारी ने भारतीय समाज और राजनीति के तथ्यगत विश्लेषण को प्राथमिकता दी। ख़ास बात यह है कि इस प्रक्रिया में वे प्रत्यक्षवादी रवैये से प्रभावित नहीं हुए। यह दौर वह था, जब साठ के दशक में नेहरू युग अपने पटाक्षेप की तरफ़ देख रहा था। यह एक संक्रमणकालीन समय था, जिसमें लोकतंत्र के क्षय और नाश की भविष्यवाणियाँ हो रही थीं।  इसी माहौल में कोठारी जी ने भारतीय लोकतंत्र के मॉडल की विशिष्टता की शिनाख्त करने में प्रमुख भूमिका निभायी। उस समय अधिकतर समाज-विज्ञानी भारतीय अनुभव को पश्चिमी लोकतंत्रों के अनुभव की रोशनी में देखने की कोशिश कर रहे थे।

लेखन कार्य

इसी समय रजनी कोठारी समाजशास्त्री श्यामा चरण दुबे के प्रोत्साहन पर 'राष्ट्रीय सामुदायिक विकास संस्थान' से जुड़ गये। उन्होंने अपने फ़ील्ड वर्क के दौरान पूरे देश का सघन दौरा किया। वे ऐसे इलाकों में भी गये, जहाँ जाना आमतौर से काफ़ी मुश्किल माना जाता था। इस अनुभव ने उन्हें बदलते हुए या बदलने के लिए तैयार भारत के दर्शन कराये। तभी एक सुखद संयोग के तहत उन्हें 'भावनगर' (गुजरात) में कांग्रेस के एक अधिवेशन को देखने का मौका मिला। उन्हीं दिनों तत्कालीन 'इकॉनॉमिक वीकली' (आज का ईपीडब्ल्यू) के छह अंकों में उनकी एक लेखमाला छपी, जिसका शीर्षक था- ‘भारतीय राजनीति का रूप और सार’। इन लेखों ने उनके क़दम राजनीतिशास्त्र की दुनिया में जमा दिये। इनमें क्रमशः केंद्र-राज्य संबंध, पंचायती राज, सरकार के संसदीय रूप, अफ़सरशाही, दलीय प्रणाली और अंत में लोकतंत्र के भविष्य पर गहन चर्चा की गयी थी। इस लेखमाला में जिस सैद्धांतिक ढाँचे का इस्तेमाल किया गया था, उसी ने आगे चल कर कोठारी के विशद वाङ्मय की आधारशिला रखी। इन लेखों की प्रकृति विवादात्मक थी। उन्होंने एक त्रिकोणात्मक कसौटी पेश की, जिसका एक कोण था लोकतंत्र के मान्य सिद्धांतों का, दूसरा कोण था पश्चिमी दुनिया के लोकतांत्रिक अनुभवों का और तीसरा कोण था भारतीय अनुभव की विशिष्टता का। इससे पहले राजनीतिशास्त्र में संस्थागत और संविधानगत अध्ययन ही हुआ करते थे। राजनीति के विकासक्रम को देखने की यह एक अनूठी निगाह थी।

सृजनशीलता

इंदिरा गाँधी ने जब सत्ता में वापसी की तो रजनी कोठारी ने अपनी रचनाओं में दुनिया के पैमाने पर 'उत्तर' बनाम 'दक्षिण', यानी 'विकसित' बनाम 'अविकसित' का द्वंद्व रेखांकित करते हुए राज्य और चुनावी राजनीति के परे जाने की तजवीज़ें विकसित करने की कोशिश शुरू की। इसी मुकाम पर उन्होंने ग़ैर-पार्टी राजनीति के सिद्धांतीकरण में अपना योगदान किया। कोठारी की सृजनशीलता का यह दूसरा दौर ख़ासा लम्बा साबित हुआ। उन्होंने पश्चिम के सभ्यतामूलक प्रतिमानों को चुनौती देने वाले गाँधी के विचारों का सहारा लिया और एक नया यूटोपिया पेश करने की कोशिश की। अपने इसी दौर में रजनी कोठारी ने महज़ बुद्धिजीवी रहने के बजाय सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता की भूमिका भी ग्रहण की। उन्होंने अपने सहयोगी विद्वान् धीरूभाई शेठ द्वारा स्थापित 'लोकायन' नामक अध्ययन कार्यक्रम में भागीदारी की, जिसका मकसद ग़ैर-पार्टी राजनीतिक संरचनाओं को समाज-विज्ञान की दुनिया से जोड़ना था।

वैकल्पिक राजनीति का संधान

अपने रचनाकाल के तीसरे दौर में रजनी कोठारी ने आधुनिकता के वैचारिक ढाँचे को ख़ारिज किये बिना वैकल्पिक राजनीति का संधान करने का प्रयास किया। दरअसल, उनका यह चरण आलोचनात्मक होने के साथ-साथ आत्मालोचनात्मक भी था। उन्होंने अतीत के अपने कई प्रयासों को कड़ी निगाह से देखा और पाया कि ग़ैर-पार्टी राजनीति वास्तव में वैकल्पिक राजनीति के रूप में विकसित नहीं हो पा रही है। उदारतावाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद और नये सामाजिक आंदोलनों की परिघटना भारतीय लोकतंत्र के बदलते हुए चेहरे की व्याख्या करने में असमर्थ है। इस मुकाम पर कोठारी नी ने अपनी शास्त्रीय प्रतिभा का इस्तेमाल दलित-पिछड़ी राजनीति को सूत्रबद्ध करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भूमण्डलीकरण की ताकतों के ख़िलाफ़ बौद्धिक नाकेबंदी करने के लिए किया।

नये रैडिकलिज़म की खोज

रजनी कोठारी

भारतीय राजनीतिशास्त्र के अनूठे आचार्य रजनी कोठारी ने अगर ज़िंदगी के शुरुआती दौर में अपने पिता फौजा लाल कोठारी की बात मान ली होती तो वे विद्वान् बनने के बजाय उन्हीं की तरह हीरों-जवाहरातों के शीर्ष व्यापारी होते। लेकिन, कोठारी ने ऐसा नहीं किया, और पिता के देहांत के बाद अपने हिस्से में आयी सम्पत्ति का कुछ भाग बेच कर यूरोप चले गये जहाँ ज्ञान की खोज में वे जर्मनी से लंदन तक गये और अंत में लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स ऐंड पॉलिटिकल साइंस से पढ़ाई करने के बाद भारत लौटे। यह रजनी कोठारी ही थे जिन्होंने साठ के दशक की शुरुआत में छपी अपनी पहली लेखमाला और पहली पुस्तक 'पॉलिटिक्स इन इण्डिया' से राज, समाज और राजनीति के अध्ययन के स्थापित आयामों का खण्डन करते हुए राजनीतीकरण के ज़रिये भारत जैसे पारम्परिक समाज के आधुनिकीकरण की थीसिस दी। उन्होंने दो अत्यंत महस्त्रवपूर्ण रचनाएं और कीं जिनमें एक थी 'भारत की कांग्रेस प्रणाली' और दूसरी थी 'जातियों का राजनीतीकरण'। कांग्रेस को भारतीय समाज की विशिष्टताओं से अनुकूलित एक 'सिस्टम' के रूप में देख कर कोठारी ने जहाँ यह प्रदर्शित किया कि कांग्रेस के इतने दीर्घकालीन वर्चस्व का आधार क्या है, वहाँ नेहरू के अवसान के बाद साठ के दशक के अंतिम वर्षों में उन्होंने तर्क दिया कि अब कांग्रेस प्रणाली यों अपनी चौधराहट कायम नहीं रख पाएगी। कोठारी ने अपनी सबसे प्रभावी थीसिस जातियों के राजनीतीकरण के रूप में दी।
परम्परा के आधुनिकीकरण की अपनी बुनियादी समझ पर भरोसा करते हुए कोठारी ने अद्भुत प्रतिभा और कौशल के साथ दिखाया कि जातियां आधुनिक राजनीति में भागीदारी करने के दौरान किस तरह बदल जाती हैं। उनके कर्मकाण्डीय स्वरूप का क्षय होता है और वे सेकुलर रूप ग्रहण करती चली जाती हैं। इस तरह राजनीति पर जातिवाद हावी नहीं होता, बल्कि जातियों का राजनीतीकरण हो जाता है। चुनावी अध्ययनों और अपने फील्डवर्क के साथ-साथ जाति-प्रथा के अकादमीय अध्ययन के दौरान कोठारी जाति की संरचना की एक ऐसी खूबी देख पाने में सफल रहे जिस पर उस समय तक लोगों का ध्यान नहीं गया था। उन्हें लगा कि कोई जाति सिर्फ सजातीय विवाह, कर्मकाण्डीय छुआछूत और रीति-रिवाजों के ज़रिये दूसरी जाति से दूरी बना कर ही नहीं रखती, बल्कि कुछ और भी करती है। जातियाँ तरह-तरह की दलबंदियों, जातीय विभेदों, विभिन्न तबकों में गठबंधन-पुनर्गठबंधन और सामाजिक प्रगति की लगातार कोशिशों में भी भागीदारी करती हैं। जाति के कर्मकाण्डीय रूप के मु़काबले यह उसका सेकुलर रूप है। भारत ही नहीं, भूमंडलीय पैमाने पर सामाजिक न्याय की खोज करते हुए रजनी कोठारी का संकल्प था विकल्प की खोज करना। भारत के स्थापित राजनीतिक अभिजनों के क्षमताविहीन हो जाने के बाद उन्हें लगता था कि राजनीति से जुड़ी असंय जनता राज्य और उसके नियामकों पर भरोसा करने के बजाय अपना भविष्य अपने हाथ में लेने वाली है। उदारतावादी लोकतंत्र नहीं, रजनी कोठारी का यूटोपिया प्रत्यक्ष लोकतंत्र का मॉडल की ओर झुक रहा था और राजनीतिशास्त्र की दुनिया एक और विचारोजक सूत्रीकरण की आहटें सुनने वाली थी। अगर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के उछाल के दिनों में कोठारी लगातार अस्वस्थ रहने के कारण अपेक्षाकृत निष्क्रियता के शिकार न हो गये होते, तो वे निश्चित रूप से एक नये रैडिकलिज़म के रूप में सामने आते।[1]

समाचार

19 जनवरी, 2015 सोमवार

राजनीतिक विचारक रजनी कोठारी का निधन

राजनीतिक विचारक रजनी कोठारी का 19 जनवरी, 2015 को सोमवार सुबह निधन हो गया। वो 85 वर्ष के थे। वे विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) के संस्थापक थे। 1963 में उन्होंने सीएसडीएस की स्थापना की। यह दिल्ली में स्थित समाज विज्ञान और मानविकी से सम्बन्धित अनुसंधान का संस्थान है। इसके साथ-साथ उन्होंने 1980 में 'लोकायन' नाम के संस्थान की भी स्थापना की। कोठारी ने गैर-दलीय राजनीति के सिद्धांतों को भी सामने रखा। कोठारी एक बड़े रचनाकार रहे। 1969 में उनकी पहली पुस्तक 'पॉलिटिक्स इन इण्डिया' प्रकाशित हुई। ये पुस्तक भारतीय राजनीति को समझने का तर्कपूर्ण मॉडल पेश करती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दुबे, अभय कुमार। रजनी कोठारी: नये रैडिकलिज़म की खोज (हिन्दी) एबीपी न्यूज़। अभिगमन तिथि: 20 जनवरी, 2015।

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