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लोक सेवा आयोग

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लोक सेवा आयोग (अंग्रेज़ी: Public Service Commission (PSC) - (पब्लिक सर्विस कमीशन), भारत के संविधान द्वारा स्थापित एक संवैधानिक निकाय है जो भारत सरकार और अधिकतर राज्यों में के लोकसेवा के पदाधिकारियों की नियुक्ति के लिए परीक्षाओं का संचालन करती है। संविधान के अनुच्छेद 315-323 में एक संघीय लोक सेवा आयोग और राज्यों के लिए प्रांतीय लोक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान है।

इतिहास

सार्वजनिक सेवाओं में भारतीयों की भागीदारी के लिये आरंभिक प्रयास गोपाल कृष्ण गोखले ने किये। उन्होंने 1909 ई. के मार्ले-मिण्टो सुधार के निर्माण में सहयोग किया। 1912-1915 ई. तक गोखले 'भारतीय लोक सेवा आयोग' के अध्यक्ष रहे। औपचारिक आयोग के संस्थापन का आरंभ उन दिनों हुआ जब 1919 में तत्कालीन अंग्रेजी शासकों ने भारत के लियें स्वागत शासन की आवश्यकता स्वीकार की । 5 मार्च, 1919 के भारतीय वैद्यानिक सुधार विषयक प्रथम प्रेषणापत्र में कहा गया :

अधिकतर राज्यों में, जहाँ स्वायत शासन की स्थापना हो चुकी हैं, इस बात की आवश्यकता अनुभूत की जाती हैं कि सार्वजनिक सेवाओं को राजनीतिक प्रभावों से सुरक्षित रखना चाहिए, और उसके हेतु एक ऐसा स्थायी कार्यालय स्थापित किया गया है जो विविध सेवाओं का नियंत्रण करता है। हम लोग इस समय भारत में ऐसे सार्वजनिक सेवा आयोग की स्थापना के लिये उद्यत नहीं हैं, परंतु हम देख रहे हैं कि ये सेवाएँ, क्रम से, अधिकाधिक मंत्रियों के नियंत्रण में आती जाएँगी, जिसके कारण यह उचित है कि इस प्रकार की संस्था का आरंभ किया जाय।

1919 के भारतीय शासन विधान में इस भावना की व्यावहारिक अभिव्यक्ति मिलती है। उसमें एक सार्वजनिक सेवा आयोग की स्थापना का विधान था जिसकी सेवाओं के लिये पदाधिकारियों की भर्ती, भारत की सार्वजनिक सेवाओं का नियंत्रण तथा ऐसे अन्य कर्त्तव्य होंगे जिनका निर्देश सपरिषद भारत सचिव करेंगे। परंतु उस आयोग की स्थापना तत्काल नहीं हुई। 1923 में, लॉर्ड ली के नेतृत्व में, ए एक रॉयल कमिशन नियुक्त हुआ, जिसको भारत उच्च सेवाओं के ऊपर विचार एवं विवरण प्रस्तुत करना था। उस कमिशन ने, अपने 27 मार्च, 1924 के विवरण में, तत्काल उस लोक सेवा आयोग की स्थापना की आवश्यकता पर विशेष बल दिया, जिसका 1919 के विधान में संकेत किया गया था। उसका प्रस्ताव था कि उक्त आयोग के निम्नलिखित चार मुख्य कार्य होंगे:

  1. सार्वजनिक सेवाओं के लिये कर्मचारियों की भर्ती।
  2. सेवाओं में प्रविष्ट होने वाले व्यक्तियों की योग्यताओं का विधान तथा उचित मान स्थिर करना,
  3. सेवाओं के अधिकारों की सुरक्षा करना तथा नियंत्रण एवं अनुशासन की व्यवस्था करना, जो लगभग न्यायविधान की कोटि का कार्य है।
  4. सामान्य रूप से सेवा संबंधी समस्याओं पर परामर्श एवं अनुमति देना।

उस लोक सेवा आयोग की स्थापना 1926 के अक्टूबर मास में हुई। एक नियमावली बनाई गई जिसमें इस बात का विधान था कि अखिल भारत की प्रथम और द्वितीय श्रेणियों की सेवाओं के, उन प्रतियोगिता परीक्षाओं के पाठ्यक्रमों के निर्धारण जिनके द्वारा कर्मचारियों का निर्वाचन हो, उक्त सेवाओं के लिये पदोन्नति, अनुशासनीय कार्य, वेतन, भत्ते, पेंशन, प्रॉविडेंट फंड एवं पारिवारिक पेंशन विषय आदि मामलों में सरकार उससे परामर्श ले। किसी मिसी वर्ग विशेष या सभी सेवाओं के नियमाधार तथा छुट्टी आदि के नियमों के प्रश्नों पर भी सरकार उक्त आयोग से परामर्श करेगी। उक्त नियमावली में आयोग के लिये जो नियम निर्दिष्ट किए गए थे उनका सुधार तथा स्थायीकरण उसे श्वेतपत्र के द्वारा हुआ जिसमें वैघानिक सुधारों के लिये ऐसे प्रस्ताव थे जिनके अनुसार प्रत्येक सूबे के लिये भी आयोगों की स्थापना करने का विधान था। उन सभी प्रतियोगिता परीक्षाओं की वयवस्था करना जिनके द्वारा पदाधिकारियों का चुनाव हो, केंद्रीय तथा सूबे के आयोगों का कर्त्तव्य बतलाया गया। सरकार को आयोगों से इसका भी परामर्श करना था कि सेवाओं के लिये, किस प्रकार चुनाव के द्वारा नियुक्ति हो, पदोन्नति कैसे किए जाएँ, एक विभाग से दूसरे विभाग मे स्थानांतरण कैसे किए जाएँ, आदि।

उक्त श्वेतपत्र में यह प्रस्ताव भी किया गया था कि सरकार को आयोगों से भिन्न विषयों पर भी परामर्श लेना चाहिए:

  1. (क) अनुशासनीय कार्य,
  2. (ख) यदि किसी पदाधिकारी के विरूद्व कोई अभियोग चलाया गया हो तो उसके रक्षाविषयक व्यय की सरकार द्वारा पूर्ति।
  3. (ग) समय समय के अधिनियमों के अनुसार उठे हुए अन्य प्रश्न।

1935 के भारतीय विधान के परिच्छेद 266 में, उपर्युक्त प्रस्तावों को स्थायी रूप दिया गया। उसमें लोक सेवा आयोगों के कर्त्तव्यों को स्पष्ट रूप से निर्धारित कर दिया गया। यह कहा जा सकता है कि उक्त विधान के द्वारा ही आयोगों की अंतिम एवं स्थायी रूप में रचना की गई थी। आज के केंद्रीय अथवा राज्यों के आयोग का संगठन, रूप एवं आधार, सब उसी पर अवलंबित हैं।

विस्तार

1947 में स्वतंत्रता के बाद, संविधान सभा ने अनुभव किया कि सिविल सेवाओं में निष्पक्ष भर्ती सुनिश्चित करने के साथ ही सेवा हितों की रक्षा के लिए संघीय एवं प्रांतीय, दोनों स्तरों पर लोक सेवा आयोगों को एक सुदृढ़ और स्वायत्त स्थिति प्रदान करने की आवश्यकता महसूस की गई।

सदस्यगण

  • संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होते हैं। कम से कम आधे सदस्य किसी लोक सेवा के सदस्य (कार्यरत या अवकाशप्राप्त) होते हैं जो न्यूनतम 10 वर्षों के अनुभवप्राप्त हों। इनका कार्यकाल 6 वर्षों या 65 वर्ष की उम्र (जो भी पहले आए) तक का होता है। ये कभी भी अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति को दे सकते हैं। इससे पहले राष्ट्रपति इन्हें पद की अवमानना या अवैध कार्यों में लिप्त होने के लिए बर्ख़ास्त कर सकता है।
  • प्रांतीय लोक सेवा आयोग के सदस्य संबंधित प्रदेश के राज्यपाल द्वारा नियुक्त होते हैं। इनका कार्यकाल 6 वर्षों या 65 वर्ष की उम्र (जो भी पहले आए) तक का होता है। ये कभी भी अपना इस्तीफ़ा राष्ट्रपति को दे सकते हैं। इससे पहले राज्यपाल इन्हें पद की अवमानना या अवैध कार्यों में लिप्त होने के लिए बर्ख़ास्त कर सकता है।

प्रमुख कार्य

इसके अतिरिक्त लोक सेवा के अधिकारियों को लोक सेवा से अधिकारी के रूप में भर्ती करना, भर्ती के नियम बनाना, विभागीय पदोन्नति समितियों का आयोजन करना, भारत के राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट कोई अन्य मामला सुलझाना इत्यादि इसके प्रमुख कार्य हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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