वैदेही वनवास द्वादश सर्ग

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वैदेही वनवास द्वादश सर्ग
अयोध्यासिंह उपाध्याय
कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
जन्म 15 अप्रैल, 1865
जन्म स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 16 मार्च, 1947
मृत्यु स्थान निज़ामाबाद, उत्तर प्रदेश
मुख्य रचनाएँ 'प्रियप्रवास', 'वैदेही वनवास', 'पारिजात', 'हरिऔध सतसई'
शैली खंडकाव्य
सर्ग / छंद नामकरण-संस्कार / तिलोकी, पद
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वैदेही वनवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
कुल अठारह (18) सर्ग
वैदेही वनवास प्रथम सर्ग
वैदेही वनवास द्वितीय सर्ग
वैदेही वनवास तृतीय सर्ग
वैदेही वनवास चतुर्थ सर्ग
वैदेही वनवास पंचम सर्ग
वैदेही वनवास षष्ठ सर्ग
वैदेही वनवास सप्तम सर्ग
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वैदेही वनवास द्वादश सर्ग
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वैदेही वनवास षोडश सर्ग
वैदेही वनवास सप्तदश सर्ग
वैदेही वनवास अष्टदश सर्ग

शान्ति-निकेतन के समीप ही सामने।
जो देवालय था सुरपुर सा दिव्यतम॥
आज सुसज्जित हो वह सुमन-समूह से।
बना हुआ है परम-कान्त ऋतुकान्त-सम॥1॥

ब्रह्मचारियों का दल उसमें बैठकर।
मधुर-कंठ से वेद-ध्वनि है कर रहा॥
तपस्विनी सब दिव्य-गान गा रही हैं।
जन-जन-मानस में विनोद है भर रहा॥2॥

एक कुशासन पर कुलपति हैं राजते।
सुतों के सहित पास लसी हैं महिसुता॥
तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी सजग रह।
बन-बन पुलकित हैं बहु-आयोजन-रता॥3॥

नामकरण-संस्कार क्रिया जब हो चुकी।
मुनिवर ने यह सादर महिजा से कहा॥
पुत्रि जनकजे! उन्हें प्राप्त वह हो गया।
रविकुल-रवि का चिरवांछित जो फल रहा॥4॥

कोख आपकी वह लोकोत्तर-खानि है।
जिसने कुल को लाल अलौकिक दो दिए॥
वे होंगे आलोक तम-बलित-पंथ के।
कुश-लव होंगे काल कश्मलों के लिए॥5॥

सकुशल उनका जन्म तपोवन में हुआ।
आशा है संस्कार सभी होंगे यहीं॥
सकल-कलाओं-विद्याओं से हो कलित।
विरहित होंगे वे अपूर्व-गुण से नहीं॥6॥

रिपुसूदन जिस दिवस पधारे थे यहाँ।
उसी दिवस उनके सुप्रसव ने लोक को॥
दी थी मंगलमय यह मंजुल-सूचना।
मधुर करेंगे वे अमधुर-मधु-ओक को॥7॥

मुझे ज्ञात यह बात हुई है आज ही।
हुआ लवण-वध हुए शत्रु-सूदन जयी॥
द्वन्द्व युध्द कर उसको मारा उन्होंने।
पाकर अनुपम-कीर्ति परम-गौरवमयी॥8॥

आशा है अब पूर्ण-शान्ति हो जायगी।
शीघ्र दूर होवेंगी बाधायें-अपर॥
हो जायेगा जन-जन-जीवन बहु-सुखित।
जायेगा अब घर-घर में आनन्द भर॥9॥

दसकंधार का प्रिय-संबंधी लवण था।
अल्प-सहायक-सहकारी उसके न थे॥
कई जनपदों में भी उसकी धाक थी।
बड़े सबल थे उसके प्रति-पालित जथे॥10॥

इसीलिए रघु-पुंगव ने रिपु-दमन को।
दी थी वर-वाहिनी वाहिनी-पति सहित॥
यथा काल हो जिससे दानव-दल-दलन।
हित करते हो सके नहीं भव का अहित॥11॥

किन्तु उन्हें जन-रक्तपात वांछित न था।
हुआ इसलिए वध दुरन्त-दनुजात का॥
आशा है अब अन्य उठाएँगे न शिर।
यथातथ्य हो गया शमन उत्पात का॥12॥

जो हलचल इन दिनों राज्य में थी मची।
उन्हें देख करके जितना ही था दुखित॥
देवि विलोके अन्त दनुज-दौरात्म्य का।
आज हो गया हूँ मैं उतना ही सुखित॥13॥

यदि आहव होता अनर्थ होते बड़े।
हो जाता पविपात लोक की शान्ति पर॥
वृथा परम-पीड़ित होती कितनी प्रजा।
काल का कवल बनता मधुपुर सा नगर॥14॥

किन्तु नृप-शिरोमणि की संयत-नीति ने।
करवाई वह क्रिया युक्ति-सत्तामयी॥
जिससे संकट टला अकंटक महि बनी।
हुई पूत-मानवता पशुता पर जयी॥15॥

मन का नियमन प्रति-पालन शुचि-नीति का।
प्रजा-पुंज-अनुरंजन भव-हित-साधना॥
कौन कर सका भू में रघुकुल-तिलक सा।
आत्म-सुखों को त्याग लोक-अराधना॥16॥

देवि अन्यतम-मूर्ति उन्हीं की आपको।
युगल-सुअन के रूप में मिली है अत:॥
अब होगी वह महा-साधना आपकी।
बनें पूततम पूत पिता के सम यत:॥17॥

आपके कलिततम-कर-कमलों की रची।
यह सामने लसी सुमूर्ति श्रीराम की॥
जो है अनुपम, जिसकी देखे दिव्यता।
कान्तिमती बन सकी विभा घनश्याम की॥18॥

इस महान-मन्दिर में जिसकी स्थापना।
हुई आपकी भावुकतामय-भक्ति से॥
आज नितान्त अलंकृत जो है हो गई।
किसी कान्तकर की कुसुमित-अनुरक्ति से॥19॥

रात-रात भर दिन-दिन भर जिसके निकट।
बैठ बिताती आप हैं विरह के दिवस॥
आकुलता में दे देता बहु-शान्ति है।
जिसके उज्ज्वलतम-पुनीत-पग का परस॥20॥

जिसके लिए मनोहर-गजरे प्रति-दिवस।
विरच आप होती रहती हैं बहु-सुखित॥
जिसको अर्पण किए बिना फल ग्रहण भी।
नहीं आपकी सुरुचि समझती है उचित॥21॥

राजकीय सब परिधानों से रहित कर।
शिशु-स्वरूप में जो उसको परिणत करें।
तो वह कुश-लव मंजु-मूर्ति बन जायगी।
यह विलोम मम-नयन न क्यों मुद से भरें॥22॥

देवि! पति-परायणता तन्मयता तथा।
तदीयता ही है उदीयमाना हुई॥
उभय सुतों की आकृति में, कल-कान्ति में-
गात-श्यामता में कर अपनोदन हुई॥23॥

आशा है इनकी ही शुचि-अनुभूति से।
शिशुओं में वह बीज हुआ होगा वपित॥
पितृ-चरण के अति-उदात्त-आचरण का।
आप उसे ही कर सकती हैं अंकुरित॥24॥

जननी केवल है जन जननी ही नहीं।
उसका पद है जीवन का भी जनयिता॥
उसमें है वह शक्ति-सुत-चरित सृजन की।
नहीं पा सका जिसे प्रकृति-कर से पिता॥25॥

इतनी बातें कह मुनिवर जब चुप हुए।
आता जल जब रोक रहे थे सिय-नयन॥
तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी तब उठीं।
और कहे ये बड़े-मनमोहक-वचन॥26॥

था प्रिय-प्रात:काल उषा की लालिमा।
रविकर-द्वारा आरंजित थी हो रही॥
समय के मृदुलतम-अन्तस्तल में विहँस।
प्रकृति-सुन्दरी प्रणय-बीज थी बो रही॥27॥

मंद-मंद मंजुल-गति से चल कर मरुत।
वर उपवन को सौरभमय था कर रहा॥
प्राणिमात्र में तरुओं में तृण-राजि में।
केलि-निलय बन बहु-विनोद था भर रहा॥28॥

धीरे-धीरे द्युमणि-कान्त किरणावली।
ज्योतिर्मय थी धरा-धाम को कर रही॥
खेल रही थी कंचन के कल-कलस से।
बहुत विलसती अमल-कलम-दल पर रही॥29॥

किसे नहीं करती विमुग्ध थी इस समय।
बने ठने उपवन की फुलवारी लसी॥
विकच-कुसुम के व्याज आज उत्फुल्लता।
उसमें आकर मूर्तिमयी बन थी बसी॥30॥

बेले के अलबेलेपन में आज थी।
किसी बड़े-अलबेले की विलसी छटा॥
श्याम-घटा-कुसुमावलि श्यामलता मिले।
बनी हुई थी सावन की सरसा घटा॥31॥

यदि प्रफुल्ल हो हो कलिकायें कुन्द की।
मधुर हँस हँस कर थीं दाँत निकालती॥
आशा कर कमनीयतम-कर-स्पर्श की।
फूली नहीं समाती थी तो मालती॥32॥

बहु-कुसुमित हो बनी विकच-बदना रही।
यथातथ्य आमोदमयी हो यूथिका॥
किसी समागत के शुभ-स्वागत के लिए।
मँह मँह मँह मँह महक रही थी मल्लिका॥33॥

रंग जमाता लोक-लोचनों पर रहा।
चंपा का चंपई रंग बन चारुतर॥
अधिक लसित पाटल-प्रसून था हो गया।
किसी कुँवर अनुराग-राग से भूरि भर॥34॥

उल्लसिता दिखलाती थी शेफालिका।
कलिकाओं के बड़े-कान्त गहने पहन॥
पंथ किसी माधाव का थी अवलोकती।
मधु-ऋतु जैसी मुग्धकरी माधावी बन॥35॥

पहन हरिततम अपने प्रिय परिधान को।
था बंधूक ललाम प्रसूनों से लसा॥
बना रही थी जपा-लालिमा को ललित।
किसी लाल के अवलोकन की लालसा॥36॥

इसी बड़ी सुन्दर-फुलवारी में कुसुम-
चयन निरत दो-दिव्य मूर्तियाँ थीं लसी॥
जिनकी चितवन में थी अनुपम-चारुता।
सरस सुधा-रस से भी थी जिनकी हँसी॥37॥

एक रहे उन्नत-ललाट वर-विधु-बदन।
नव-नीरद-श्यामावदात नीरज-नयन॥
पीन-वक्ष आजान-बाहु मांसल-वपुष।
धीर-वीर अति-सौम्य सर्व-गौरव-सदन॥38॥

मणिमय-मुकुट-विमंडित कुण्डल-अलंकृत।
बहु-विधि मंजुल-मुक्तावलि-माला लसित॥
परमोत्ताम-परिधान-वान सौन्दर्य-धन।
लोकोत्तर-कमनीय-कलादिक-आकलित॥39॥

थे द्वितीय नयनाभिराम विकसित-बदन।
कनक-कान्ति माधुर्य-मूर्ति मंथन मथन॥
विविध-वर-वसन-लसित किरीटी-कुण्डली।
कर्म्म-परायण परम-तीव्र साहस-सदन॥40॥

दोनों राजकुमार मुग्ध हो हो छटा।
थे उत्फुल्ल-प्रसूनों को अवलोकते॥
उनके कोमल-सरस-चित्त प्राय: उन्हें।
विकच-कुसुम-चय चयन से रहे रोकते॥41॥

फिर भी पूजन के निमित्त गुरुदेव के।
उन लोगों ने थोड़े कुसुमों को चुना॥
इसी समय उपवन में कुछ ही दूर पर।
उनके कानों ने कलरव होता सुना॥42॥

राज-नन्दिनी गिरिजा-पूजन के लिए।
उपवन-पथ से मन्दिर में थीं जा रही॥
साथ में रहीं सुमुखी कई सहेलियाँ।
वे मंगलमय गीतों को थीं गा रही॥43॥

यह दल पहुँचा जब फुलवारी के निकट।
नियति ने नियत-समय-महत्ता दी दिखा॥
प्रकृति-लेखनी ने भावी के भाल पर।
सुन्दर-लेख ललिततम-भावों का लिखा॥44॥

राज-नन्दिनी तथा राज-नन्दन नयन।
मिले अचानक विपुल-विकच-सरसिज बने॥
बीज प्रेम का वपन हुआ तत्काल ही।
दो उर पावन-रसमय-भावों में सने॥45॥

एक बनी श्यामली-मूर्ति की प्रेमिका।
तो द्वितीय उर-मध्य बसी गौरांगिनी॥
दोनों की चित-वृत्ति अचांचक-पूत रह।
किसी छलकती छबि के द्वारा थी छिनी॥46॥

उपवन था इस समय बना आनन्द-वन।
सुमनस-मानस हरते थे सारे सुमन॥
अधिक-हरे हो गये सकल-तरु-पुंज थे।
चहक रहे थे विहग-वृन्द बहु-मुग्ध बन॥47॥

राज-नन्दिनी के शुभ-परिणय के समय।
रचा गया था एक-स्वयंवर-दिव्यतम॥
रही प्रतिज्ञा उस भव-धनु के भंग की।
जो था गिरि सा गुरु कठोर था वज्र-सम॥48॥

धारणीतल के बड़े-धुरंधर वीर सब।
जिसको उठा सके न अपार-प्रयत्न कर॥
तोड़ उसे कर राज-नन्दिनी का वरण।
उपवन के अनुरक्त बने जब योग्य-वर॥49॥

उसी समय अंकुरित प्रेम का बीज हो।
यथा समय पल्लवित हुआ विस्तृत बना॥
है विशालता उसकी विश्व-विमोहिनी।
सुर-पादप सा है प्रशस्त उसका तना॥50॥

है जनता-हित-रता लोक-उपकारिका।
है नाना-संताप-समूह-विनाशिनी॥
है सुखदा, वरदा, प्रमोद-उत्पादिका।
उसकी छाया है क्षिति-तल छबि-वर्ध्दिनी॥51॥

बड़े-भाग्य से उसी अलौकिक-विटप से।
दो लोकोत्तर-फल अब हैं भू को मिले॥
देखे रविकुल-रवि के सुत के वर-बदन।
उसका मानस क्यों न बनज-वन सा खिले॥52॥

देवि बधाई मैं देती हूँ आपको।
और चाहती हूँ यह सच्चे-हृदय से॥
चिरजीवी हों दिव्य-कोख के लाल ये।
और यशस्वी बनें पिता-सम-समय से॥53॥

इतने ही में वर-वीणा बजने लगी।
मधुर-कण्ठ से मधुमय-देवालय बना॥
प्रेम-उत्स हो गया सरस-आलाप से।
जनक-नन्दिनी ऑंखों से ऑंसू छना॥54॥

पद

बधाई देने आयी हूँ
गोद आपकी भरी विलोके फूली नहीं समाई हूँ॥
लालों का मुख चूम बलाएँ लेने को ललचाई हूँ।
ललक-भरे-लोचन से देखे बहु-पुलकित हो पाई हूँ॥
जिनका कोमल-मुख अवलोके मुदिता बनी सवाई हूँ।
जुग-जुग जियें लाल वे जिनकी ललकें देख ललाई हूँ॥
विपुल-उमंग-भरे-भावों के चुने-फूल मैं लाई हूँ।
चाह यही है उन्हें चढ़ाऊँ जिनपर बहुत लुभाई हूँ॥
रीझ रीझ कर विशद-गुणों पर मैं जिसकी कहलाई हूँ।
उसे बधाई दिये कुसुमिता-लता-सदृश लहराई हूँ॥1॥55॥

जंगल में मंगल होता है।
भव-हित-रत के लिए गरल भी बनता सरस-सुधा सोता है।
काँटे बनते हैं प्रसून-चय कुलिश मृदुलतम हो जाता है॥
महा-भयंकर परम-गहन-वन उपमा उपवन की पाता है।
उसको ऋध्दि सिध्दि है मिलती साधो सभी काम सधता है॥
पाहन पानी में तिरता है, सेतु वारिनिधि पर बँधता है।
दो बाँहें हों किन्तु उसे लाखों बाँहों का बल मिलता है॥
उसी के खिलाये मानवता का बहु-म्लान-बदन खिलता है।
तीन लोक कम्पितकारी अपकारी की मद वह ढाता है॥
पाप-तप से तप्त-धरा पर सरस-सुधा वह बरसाता है।
रघुकुल-पुंगव ऐसे ही हैं, वास्तव में वे रविकुल-रवि हैं॥
वे प्रसून से भी कोमल हैं, पर पातक-पर्वत के पवि हैं।
सहधार्मिणी आप हैं उनकी देवि आप दिव्यतामयी हैं॥
इसीलिए बहु-प्रबल-बलाओं पर भी आप हुई विजयी हैं।
आपकी प्रथित-सुकृति-लता के दोनों सुत दो उत्तम-फल हैं॥
पावन-आश्रम के प्रसाद हैं, शिव-शिर-गौरव गंगाजल हैं।
पिता-पुण्य के प्रतिपादक हैं, जननी-सत्कृति के सम्बल हैं॥
रविकुल-मानस के मराल हैं, अथवा दो उत्फुल्ल-कमल हैं।
मुनि-पुंगव की कृपा हुए वे सकल-कला-कोविद बन जावें॥
चिरजीवें कल-कीर्ति सुधा पी वसुधा के गौरव कहलावें॥2॥56॥

छन्द : तिलोकी

जब तपस्विनी-सत्यवती-गाना रुका।
जनकसुता ने सविनय मुनिवर से कहा॥
देव! आपकी आज्ञा शिरसा-धार्य्य है।
सदुपदेश कब नहीं लोक-हित-कर रहा॥57॥

जितनी मैं उपकृता हुई हूँ आपसे।
वैसे व्यापक शब्द न मेरे पास हैं॥
जिनके द्वारा धन्यवाद दूँ आपको।
होती कब गुरु-जन को इसकी प्यास है॥58॥

हाँ, यह आशीर्वाद कृपा कर दीजिए।
मेरे चित को चंचल-मति छू ले नहीं॥
विविध व्यथाएँ सहूँ किन्तु पति-वांछिता।
लोकाराधन-पूत-नीति भूले नहीं॥59॥

तपस्विनी-आश्रम-अधीश्वरी आपकी।
जैसी अति-प्रिय-संज्ञा है मृदुभाषिणी॥
हुआ आपका भाषण वैसा ही मृदुल।
कहाँ मिलेंगी ऐसी हित-अभिलाषिणी॥60॥

अति उदार हृदया हैं, हैं भवहित-रता।
आप धर्म-भावों की हैं अधिकारिणी॥
हैं मेरी सुविधा-विधायिनी शान्तिदा।
मलिन-मनों में हैं शुचिता-संचारिणी॥61॥

कभी बने जलबिन्दु कभी मोती बने।
हुए ऑंसुओं का ऑंखों से सामना॥
अनुगृहीता हुई अति कृतज्ञा बनी।
सुने आपकी भावमयी शुभ कामना॥62॥

आप श्रीमती सत्यवती हैं सहृदया।
है कृपालुता आपकी प्रकृति में भरी॥
फिर भी देती धन्यवाद हूँ आपको।
है सद्वांछा आपकी परम-हित-करी॥63॥

दोहा

फैला आश्रम-ओक में परम-ललित-आलोक।
मुनिवर उठे समण्डली सांग-क्रिया अवलोक॥64॥




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