स्वस्तिक की आकृति

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स्वस्तिक की आकृति
स्वस्तिक
विवरण पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न 'स्वस्तिक' अपने आप में विलक्षण है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है।
स्वस्तिक का अर्थ सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है। यहाँ "सु" का अर्थ है- 'शुभ' और "अस्ति" का 'होना'। संस्कृत व्याकरण के अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"।
स्वस्ति मंत्र ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥
अन्य जानकारी भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न को विष्णु, सूर्य, सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है।

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स्वस्तिक की आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों वर्ष पूर्व निर्मित की थी। भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक-दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ़ मुड़ी होती हैं या स्वस्तिक बनाने के लिए धन चिह्न बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वस्तिक बन जाता है।

रेखाएँ

स्वस्तिक की रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। मानक दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है-

  1. 'प्रथम आकृति' - इस स्वस्तिक में रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे दक्षिणावर्त स्वस्तिक (घडी की सूई चलने की दिशा) कहते हैं।
  2. 'द्वितीय आकृति' - इस आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर (वामोन्मुख) मुड़ती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक (उसके विपरीत) कहते हैं।

चार प्रकार के मंगल

दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरुष के प्रतीक के रूप में भी मान्य हैं, किन्तु जहाँ दाईं ओर मुड़ी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है। एवं स्वस्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है। स्वस्तिक चिह्न की चार रेखाओं को चार प्रकार के मंगल का प्रतीक माना जाता है। वे हैं-

  1. 'अरहन्त-मंगल'
  2. 'सिद्ध-मंगल',
  3. 'साहू-मंगल'
  4. 'केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगल'

ॐ का विकृत रूप

कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि यह ॐ का ही विकृत रूप है। इन रेखाओं को आचार्य अभिनव गुप्त ने 'नाद ब्रह्म' अथवा 'अक्षर ब्रह्म' का परिचायक माना है। नाद के 'पश्यंती', 'मध्यमा' तथा 'बैखरी', ये तीन रूप हैं। अत: स्वस्तिक ब्रह्म का प्रतीक है। श्रुति, अनुभूति तथा युक्ति इन तीनों का यह एक सा प्रतिपादन प्रयागराज में होने वाले संगम के समान है। दिशाएँ मुख्यत: चार हैं, खड़ी तथा सीधी रेखा खींचकर जो घन चिह्न (+) जैसा आकार बनता है, यह आकार चारों दिशाओं का द्योतक सर्वत्र और सदैव यही माना गया है।

सु वास्तु

प्राचीन काल में राजा महाराजाओं द्वारा क़िलों का निर्माण स्वस्तिक के आकार में किया जाता रहा है ताकि क़िले की सुरक्षा अभेद्य बनी रहे। प्राचीन पारम्परिक तरीक़े से निर्मित क़िलों में शत्रु द्वारा एक द्वार पर ही सफलता अर्जित करने के पश्चात् सेना द्वारा क़िले में प्रवेश कर उसके अधिकाँश भाग अथवा सम्पूर्ण क़िले पर अधिकार करने के बाद नर संहार होता रहा है। परन्तु स्वस्तिकनुमा द्वारों के निर्माण के कारण शत्रु सेना को एक द्वार पर यदि सफलता मिल भी जाती थी तो बाकी के तीनों द्वार सुरक्षित रहते थे। ऐसी मज़बूत एवं दूरगामी व्यवस्थाओं के कारण शत्रु के लिए क़िले के सभी भागों को एक साथ जीतना संभव नहीं होता था। यहाँ स्वस्तिक क़िला/दुर्ग निर्माण के परिपेक्ष्य में "सु वास्तु" था।


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