चन्द्रभानु गुप्त
चन्द्रभानु गुप्त
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पूरा नाम | चन्द्रभानु गुप्त |
जन्म | 14 जुलाई, 1902 |
जन्म भूमि | अलीगढ़, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 11 मार्च, 1980 |
अभिभावक | हीरालाल |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, पूर्व मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश) |
कार्य काल | पहली बार-7 दिसम्बर, 1960 से 2 अक्तूबर, 1963 तक; दूसरी बार-14 मार्च, 1967 से 3 अप्रैल, 1967 तक; तीसरी बार-28 फ़रवरी, 1969 से 18 फ़रवरी, 1970 तक |
विद्यालय | 'लखनऊ विश्वविद्यालय' |
शिक्षा | एम.ए., एलएल.बी. |
विशेष योगदान | उत्तर प्रदेश के चौतरफा विकास की गुप्तजी को चिंता थी। बच्चे से लेकर बूढ़े तक का ख्याल था। उन्होंने राज्य में तकनीकी शिक्षा व कृषि शिक्षा के लिए मंच तैयार किया। |
उल्लेखनीय तथ्य | 'काकोरी रेल कांड' के क्रांतिकारियों के बचाव पक्ष में वकालत करने के बाद ही चन्द्रभानु जी सुर्खियों में आ गए। |
अन्य जानकारी | आप 1916 में घर वालों की मर्ज़ी
के बिना पाँच रुपये जेब में डालकर लखनऊ में कांग्रेस के एक जलसे में हिस्सा लेने पहुँच गए थे, जहाँ इन्हें लोकमान्य तिलक के पैर छूने का अवसर मिला। |
चन्द्रभानु गुप्त (अंग्रेज़ी: Chandrabhanu Gupta, जन्म- 14 जुलाई, 1902 ई., अलीगढ़, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 11 मार्च, 1980 ई.) भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन पर 'आर्य समाज' का बहुत गहरा प्रभाव था। वर्ष 1926 से ही सी.बी. गुप्त 'उत्तर प्रदेश कांग्रेस' और 'अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य बन गए थे। कई विभागों में मंत्री रहने के बाद चन्द्रभानु जी वर्ष 1960 से 1963 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने समाज सेवा के क्षेत्र में भी अनेक काम किए। लखनऊ और गोरखपुर जैसे शहरों को आधुनिक व विकासशील बनाने की पहल करने वाले सी.बी गुप्त को लोग मजबूत प्रशासन, जुझारू नेतृत्व व बड़प्पन के लिए आज भी याद करते हैं।
जन्म तथा शिक्षा
चन्द्रभानु गुप्त का का जन्म 14 जुलाई, 1902 को उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ ज़िले के 'बिजौली' नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम हीरालाल था। चन्द्रभानु जी के पिता को अपने समाज में बहुत ही मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी। चन्द्रभानु गुप्त के चरित्र निर्माण में 'आर्य समाज' का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और भावी जीवन में आर्य समाज के सिद्धान्त उनके मार्ग दर्शक रहे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा लखीमपुर खीरी में हुई। बाद में वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए लखनऊ चले आए। यहाँ 'लखनऊ विश्वविद्यालय' से एम.ए. और एलएल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद नवाबों का शहर लखनऊ ही उनका कार्यक्षेत्र बन गया।
राजनीति में प्रवेश
शिक्षा पूर्ण करने के बाद गुप्त जी ने लखनऊ में वकालत आरम्भ की। लगभग पाँच फुट और चार इंच के कद वाले वाले चन्द्रभानु, जो कि एक पढ़ाकू युवक थे, उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन वह महात्मा गाँधी के विभिन्न आन्दोलनों से प्रेरित ज़रूर थे। 1916 में घर वालों की मर्ज़ी के बिना पाँच रुपये जेब में डालकर वे लखनऊ में हुए कांग्रेस के एक जलसे में हिस्सा लेने पहुँच गए थे। उस समय लोकमान्य तिलक का जुलूस कैसरबाग़ होते हुए चारबाग़ की तरफ़ आ रहा था। बांसमंडी चौराहे पर सी.बी. गुप्त को लोकमान्य तिलक के पैर छूने का मौका मिला। पैर छूते उन्हें न जाने कैसी प्रेरणा मिली कि उनके कदम सक्रिय राजनीति की ओर बढ़ चले। फिर तो राजनीति और समाज सेवा में ऐसी पैठ बनाई कि 1960 के दिसम्बर में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए।[1]
प्रसिद्धि
अपने जुझारूपन और खरी बात बोलने के कारण सी.बी. गुप्त युवा राजनीति में तेज़ीसे उभरे। वर्ष 1919 में 'रौलट एक्ट' के विरोध में प्रदर्शन करने के बाद कांग्रेसजन चन्द्रभानु जी की क्षमताओं के कायल हो गए। 'काकोरी रेल कांड' के क्रांतिकारियों के बचाव पक्ष में वकालत करने के बाद तो वह सुर्खियों में आ गए। कांग्रेस को एक ऐसे ही तेजतर्रार युवा की ज़रूरत थी। चन्द्रभानु गुप्त को 1928 में लखनऊ शहर कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। कानपुर में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में लखनऊ से डेलीगेट भी चुने गए। पूरे राष्ट्रीय आंदोलन में उन्होंने सक्रिय सिपाही की भूमिका निभाई।
मुख्यमंत्री का पद
भारत की स्वतंत्रता के बाद 1948 में बनी पहली प्रदेश सरकार में चन्द्रभानु गुप्त गोविन्द वल्लभ पन्त के मंत्रीमण्डल में सचिव के रूप में सम्मिलित हुए। फिर वर्ष 1948 से 1957 तक उन्होंने अनेक प्रमुख विभागों के मंत्री के रूप में काम किया। चन्द्रभानु जी 1960 से 1963 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। बाद में 'कामराज योजना' में उन्होंने यह पद त्याग दिया, किन्तु उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनका प्रभाव बना रहा। 1967 के आम चुनाव में विजयी होने के बाद वे पुन: मुख्यमंत्री बने।
अधिकांश नेता नौकरशाही को अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल करने में कोई गुरेज नहीं करते, लेकिन कुछ ऐसे भी नेता रहे, जिन्हें यह बिल्कुल पसंद नहीं था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सी.बी. गुप्त भी एक ऐसे ही नेता थे। जब 1960 में वे मुख्यमंत्री बने तो राजनीति से प्रेरित नौकरशाही और राज्य का ख़ाली ख़ज़ाना उनके समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी। उन्होंने आला अधिकारियों को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि- "मेरा विश्वास है कि प्रशासन तंत्र को अच्छे ढंग से चलाने के लिए दूसरों के हक लांघकर अयोग्य व्यक्तियों की प्रोन्नति नहीं की जानी चाहिए। यदि एक बार प्रशासन में पक्षपात का रोग लग गया तो वह धीरे-धीरे बढ़कर पूरे तंत्र को ठप कर देता है। प्रशासन तंत्र को राजनीति के कुचक्रों से दूर रहना चाहिए।"[1] लेकिन शीघ्र ही उनके कुछ कांग्रेसी सदस्यों ने चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में दल बदलकर प्रदेश में पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाने में मदद की। बदली परिस्थितियों में चन्द्रभानु गुप्त विरोधी (कांग्रेस) दल के नेता बने।
सामाजिक कार्यकर्ता
स्वतंत्रता के बाद की राजनीति में उनकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दो बार विधान सभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। इसके बावजूद वह कांग्रेस के राज्य अध्यक्ष बने। उनकी लोकप्रियता को देखते हुए ही जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री घोषित किया था। राजनीति व नौकरशाही की मिली भगत पर सख्ती करने वाले वह पहले मुख्यमंत्री और सामाजिक कार्यकर्ता थे। वह हमेशा आने वाले दिनों के बारे में सोचते थे। राज्य के चौतरफा विकास की उन्हें चिंता थी। बच्चे से लेकर बूढ़े तक का ख्याल था। उन्होंने राज्य में तकनीकी शिक्षा व कृषि शिक्षा के लिए मंच तैयार किया। चन्द्रभानु गुप्त ने समाज सेवा के क्षेत्र में भी अनेक कार्य किए। उनके द्वारा स्थापित लखनऊ की मुख्य संस्थाएँ थी-
- लखनऊ में बाल संग्रहालय
- मोतीलाल मेमोरियल अस्पताल
- बाल विद्या मंदिर
- नवचेतना बिल्डिंग
- नेशनल कॉलेज
- टीबी अस्पताल
- रवींद्रालय
सिर्फ़ यही नहीं, राजधानी लखनऊ का 'केडी सिंह बाबू स्टेडियम' भी चन्द्रभानु गुप्त जी मेहनत का ही फल है।[1]
विरोधियों के मददगार
- सी.बी. गुप्त अपने विरोधियों की भी मदद करते थे। उस समय उनके बड़े विरोधियों में से एक अलगू राय शास्त्री की तबियत बहुत खराब थी। यह बात जब चन्द्रभानु गुप्त को पता चली तो वह उनके घर पहुँच गए। चिकित्सकों को बुलाया और कहा- "इनके इलाज में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। सारा खर्च मैं दूँगा।" चारबाग़, लखनऊ में रहने वाले उपेंद्रनाथ चतुर्वेदी के कथनानुसार इतना सादगी वाला इंसान उन्होंने आज तक नहीं देखा था। उनके अनुसार कभी-कभी चन्द्रभानु अर्ध पैंट और बनियान पहने, सिर पर टोपी लगाए और हाथ में रूल पकड़े टहलने निकल पड़ते थे। रास्ते भर रुक-रुककर सबका हाल पूछते थे। हर कोई उनसे मिलकर अपनी तकलीफ बयाँ कर सकता था।
- गुप्त जी 'लखनऊ विश्वविद्यालय' के कोषाध्यक्ष थे। उन्हीं दिनों पत्रकार के. विक्रम राव वहाँ पढ़ाई करते थे। वह कुछ लोगों को लेकर चन्द्रभानु गुप्त से मिलने गए। उन्होंने इन विद्यार्थियों से पूछा कि "क्या काम है?" विद्यार्थियों ने बताया कि यह लड़का बेहद ग़रीब है। इसकी फीस माफ करवा दीजिए। वह बोले- "तुम लोग मेरे ख़िलाफ़ नारे लगाते हो, काला झंडा दिखाते हो। ये कम्युनिस्ट पार्टी के उस नेता का बेटा है, जो मेरा खूब विरोध करते हैं।" आगे जोड़ा- "मेरे और इसके पिता के बीच वैचारिक लड़ाई है। यह लड़का प्रतिभाशाली है। इसकी फीस तब तक माफ रहेगी, जब तक यहाँ पढ़ाई करेगा।"
- चन्द्रभानु गुप्त के सहयोगी रहे विमल कुमार शर्मा एक वाकया याद करते हैं- "बात 1965 की है। चन्द्रभानु गुप्त ने चंद्रावल में ग्राम सेवा केंद्र खुलवाया, जिसका मैं प्रभारी था। उस समय राज्य में राजनीतिक उठा पटक चल रही थी। उन्हें राज्यपाल से मिलना था। मेरी तबियत उसी समय खराब हो गई। चन्द्रभानु गुप्त को जैसे ही यह पता चला, वह सीधे चंद्रावल पहुँचे। मुझे लेकर आए, बलरामपुर अस्पताल में भर्ती कराया। इलाज पर खर्च हुए पूरे पैसे उन्होंने ही दिए।"[1]
कठिन निर्णय
वर्ष 1969 ई. में सम्पूर्ण देश के स्तर पर कांग्रेस विभाजित हो गई। निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में इंदिरा गांधी के सक्रिय सहयोग और कांग्रेस के एक वर्ग के समर्थन से वी. वी. गिरि देश के राष्ट्रपति चुने गए। यह गुप्त जी के लिए बड़े कठिन निर्णय की घड़ी थी। वे सदा से कांग्रेस के संगठन से जुड़े रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उनके अनेक साथी विभाजन के बाद भी पुरानी संस्था में ही अडिग हैं, तो उन्होंने भी इंदिरा गांधी की नई कांग्रेस में न जाकर अपने पुराने समर्थकों के साथ रहना ही उचित समझा।
वसीयत
चन्द्रभानु गुप्त जी ने अपनी वसीयत में लिखा था कि-
"मेरा सफर जो कभी रुका नहीं, झुका नहीं, न जाने कब मंजिल प्राप्त कर ले और जीवन की संध्या छा जाए। मेरा जीवन एक भिखारी का जीवन रहा है। मेरे देश के विशेष रूप से इस प्रदेश के लोगों ने मुझे अपार स्नेह और सम्मान दिया है। उन सभी देशवासियों के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए मैंने दो संस्थाओं 'भारत सेवा संस्थान' व 'मोतीलाल मेमोरियल सोसायटी' को जन्म दिया। जो कुछ मेरा अपना कहने योग्य था, वह सब 'भारत सेवा संस्थान' व 'मोतीलाल मेमोरियल सोसायटी' का हो चुका है। अब पानदरीबां स्थित केवल एक मकान 'सेवा कुटीर' मेरी निजी अचल सम्पत्ति के रूप में रह गया है, जिसका एकमात्र स्वामी मैं हूँ। यह भी देश की ग़रीब जनता को अर्पित है। मेरे नाम जो धन बैंकों के खातों में मेरे अंतिम क्षणों में होगा, वह मेरी अंत्येष्टि में सादगी के साथ व्यय करने बाद बाकी समाज सेवा में व्यय होगा।"[1]
राजनीतिक सफर
- 1916 - कांग्रेस के सदस्य बने
- 1925 - 'काकोरी कांड' के क्रांतिकारियों के बचाव पक्ष का वकील बनने के बाद सुर्खियों में आए।
- 1928 - म्यूनिसिपल बोर्ड के सदस्य बने।
- 1929 से 1944 तक - लखनऊ शहर कांग्रेस के अध्यक्ष रहे।
- 1946 से 1959 तक - 'लखनऊ विश्वविद्यालय' के कोषाध्यक्ष रहे।
- 1937 से 1957 तक - विधान सभा सदस्य रहे।
- 1946 - मुख्यमंत्री के सभा सचिव बने।
- 1947 से 1954 तक - राज्य सरकार में खाद्य एवं रसद मंत्री।
- 1960 - 'प्रदेश कांग्रेस कमेटी' के अध्यक्ष बने।
- मुख्यमंत्री
- पहली बार - 7 दिसम्बर, 1960 से 2 अक्तूबर, 1963 तक
- दूसरी बार - 14 मार्च, 1967 से 3 अप्रैल, 1967 तक
- तीसरी बार - 28 फ़रवरी, 1969 से 18 फ़रवरी, 1970 तक
निधन
उत्तर प्रदेश को प्रगति के पथ पर अग्रसर करने वाले और ख्याति प्राप्त समाज सेवक चन्द्रभानु गुप्त का निधन 11 मार्च, 1980 में हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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