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{{चयनित लेख}}
{{सूचना बक्सा साहित्यकार
|चित्र=Mirza-Ghalib.jpg
|पूरा नाम=मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान 'ग़ालिब'
|अन्य नाम=
|जन्म=[[27 दिसम्बर]] 1797
|जन्म भूमि=[[आगरा]], [[उत्तर प्रदेश]]
|अभिभावक=अब्दुल्ला बेग ग़ालिब
|पति/पत्नी=उमराव बेगम
|संतान=
|कर्म भूमि=[[दिल्ली]]
|कर्म-क्षेत्र=[[शायर]]
|मृत्यु=[[15 फ़रवरी]], [[1869]]
|मृत्यु स्थान=[[दिल्ली]]
|मुख्य रचनाएँ='दीवान-ए-ग़ालिब', 'उर्दू-ए-हिन्दी', 'उर्दू-ए-मुअल्ला', 'नाम-ए-ग़ालिब', 'लतायफे गैबी', 'दुवपशे कावेयानी' आदि।
|विषय=[[शायरी|उर्दू शायरी]]
|भाषा=[[उर्दू]] और [[फ़ारसी भाषा]]
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|नागरिकता=
|संबंधित लेख=[[ग़ालिब का दौर]]
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|पाठ 2=
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'''ग़ालिब''' अथवा '''मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Ghalib'' अथवा ''Mirza Asadullah Baig Khan'', [[उर्दू]]: غالب अथवा مرزا اسدللا بےغ خان) (जन्म- [[27 दिसम्बर]], 1797 ई. [[आगरा]]; निधन- [[15 फ़रवरी]], [[1869]] ई. [[दिल्ली]]) जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, [[उर्दू]]-[[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] के प्रख्यात [[कवि]] थे। इनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' [[समरकन्द]] से [[भारत]] आए थे। बाद में वे [[लाहौर]] में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब [[आसफ़उद्दौला]] की फ़ौज में शामिल हुए और फिर [[हैदराबाद]] से होते हुए [[अलवर]] के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 [[वर्ष]] के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 वर्ष के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा। '''क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे।''' इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी।


====चचा की मृत्यु और पेंशन====
एक ही साल बाद चचा की मृत्यु हो गई<ref>किसी लड़ाई में लड़ते हुए हाथी से गिरकर 1806 ई. में इनका देहान्त हुआ था।</ref>। लॉर्ड लेक द्वारा नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ को फ़ीरोज़पुर झुर्का का इलाक़ा 25,000 सालाना कर पर मिला हुआ था। नसरुल्ला बेग ख़ाँ की मृत्यु के बाद उन्होंने यह फ़ैसला करा लिया कि, 25,000 का कर माफ़ कर दिया जाए। इसकी जगह 50 सवारों का एक 'रिसाला' (सैनिकों की एक टुकड़ी) रखूँ, जिस पर 15,000 सालाना ख़र्च होगा, और जो आवश्यकता पड़ने पर अंग्रेज़ सरकार की सेवा के लिए भेजा जाएगा। शेष 10,000 नसरुल्ला बेग ख़ाँ के उत्तराधिकारियों को वृत्ति रूप में दिया जाए। यह शर्त मान ली गई<ref>न जाने कैसे, इसके एक मास बाद ही [[7 जून]], 1806 ई. को, गुप्त रूप से, नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अंग्रेज़ सरकार से एक दूसरा आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया, जिसमें लिखा था कि, ‘नसरुल्ला बेग ख़ाँ के सम्बन्धियों को 5,000 सालाना पेंशन इस रूप में दी जाए-(1.) ख़्वाजा हाजी (जो कि 50 सवारों के अफ़सर थे)- दो हज़ार सालाना। (2.) नसरुल्ला बेग ख़ाँ की माँ और तीन बहनें-डेढ़ हज़ार सालाना। (3.) मीरज़ा नौशा और मीरज़ा यूसुफ़ (नसरुल्ला बेग के भतीजों) को डेढ़ हज़ार सालाना। इस प्रकार 10 हज़ार से 5 हज़ार हुए और 5 हज़ार से भी सिर्फ़ 750-750 सालाना ग़ालिब और उनके छोटे भाई को मिले।</ref>।
====अब्दुस्समद से मुलाक़ात====
इसी ज़माने (1810-1811 ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद [[ईरान]] से घूमते-फिरते [[आगरा]] आये, इन्हीं के यहाँ दो साल तक वे रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठित और वैभव सम्पन्न व्यक्ति थे, और यज़्द के रहने वाले थे। पहले ज़रतुस्त्र के अनुयायी थे, पर बाद में [[इस्लाम धर्म]] को स्वीकार कर लिया। इनका पुराना नाम 'हरमुज़्द' था। फ़ारसी तो इनकी घुट्टी में थी। [[अरबी भाषा]] का भी इन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। '''इस समय मिर्ज़ा 14 वर्ष के थे और फ़ारसी में उन्होंने अपनी योग्यता प्राप्त कर ली थी।''' अब मुल्ला अब्दुस्समद जो आये तो उनसे दो वर्ष तक मिर्ज़ा ने फ़ारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया, और उसमें ऐसे पारंगत हो गए कि जैसे खुद भी ईरानी हों। अब्दुस्समद इनकी प्रतिभा से चकित थे, और उन्होंने अपनी सारी विद्या इनमें उड़ेल दी। वह इनको बहुत चाहते थे। जब वह स्वदेश लौट गए तब भी दोनों का पत्र व्यवहार जारी रहा। क़ाज़ी अब्दुल वदूद तथा एक-दो और विद्वानों ने अब्दुस्समद को एक कल्पित व्यक्ति बताया है। कहा जाता है कि मिर्ज़ा से स्वयं भी एकाध बार भी सुना गया कि ‘अब्दुस्समद’ एक फ़र्ज़ी नाम है। चूँकि मुझे लोग 'बे-उस्ताद' (बिन गुरु का) कहते थे। उनका मुँह बन्द करने के लिए मैंने एक फ़र्ज़ी उस्ताद गढ़ लिया है।<ref>‘आदगारे ग़ालिब’ (हाली)-इलाहाबादी संस्करण पृष्ठ 13।</ref> पर इस तरह की बातें केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं।
====सामाजिक वातावरण का प्रभाव====
ग़ालिब में उच्च प्रेरणाएँ जागृत करने का काम शिक्षण से भी ज़्यादा उस वातावरण ने किया, जो इनके इर्द-गिर्द था। जिस मुहल्ले में वह रहते थे, वह (गुलाबख़ाना) उस ज़माने में [[फ़ारसी भाषा]] के शिक्षण का उच्च केन्द्र था। रूम के भाष्यकार मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वग़ैरा फ़ारसी के एक-से-एक विद्वान वहाँ रहते थे। वातावरण में फ़ारसीयत भरी थी। इसीलिए यह उससे प्रभावित न होते, यह कैसे सम्भव था। पर जहाँ एक ओर यह तालीम-तर्वियत थी, वहीं ऐशो-इशरत की महफ़िलें भी इनके इर्द-गिर्द बिखरी हुई थीं। दुलारे थे, पैसे-रुपये की कमी नहीं थी। पिता एवं चचा के मर जाने से कोई दबाव रखने वाला न था। '''किशोरावस्था, तबीयत में उमंगें, यार-दोस्तों के मजमें (जमघट), खाने-पीने शतरंज, कबूतरबाज़ी, यौवनोन्माद सबका जमघट। [[आदत|आदतें]] बिगड़ गईं।''' हुस्न के अफ़सानों में मन उलझा, चन्द्रमुखियों ने दिल को खींचा। ऐशो-इशरत का बाज़ार गर्म हुआ। 24-25 वर्ष की आयु तक ख़ूब रंगरेलियाँ कीं, पर बाद में उच्च प्रेरणाओं ने इन्हें ऊपर उठने को बाध्य किया। '''ज़्यादातर बुरी आदतें दूर हो गईं, पर मदिरा पान की लत लगी सो मरते दम तक न छूटी।'''
====प्रारम्भिक काव्य====
{{दाँयाबक्सा|पाठ=ग़ालिब नवाबी ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे और [[मुग़ल]] दरबार में उंचे ओहदे पर थे इसलिये उन्हें अपनी अय्याशियों पर लगाम लगाना बेहद मुश्किल था।|विचारक=}}
दिल्ली में ससुर तथा उनके प्रतिष्ठित साथियों एवं मित्रों के काव्य प्रेम का इन पर अच्छा असर हुआ। इलाहीबख़्श ख़ाँ पवित्र एवं रहस्यवादी प्रेम से पूर्ण काव्य-रचना करते थे। वह पवित्र विचारों के आदमी थे। उनके यहाँ सूफ़ियों तथा शायरों का जमघट रहता था। निश्चय ही ग़ालिब पर इन गोष्ठियों का अच्छा असर पड़ा होगा। यहाँ उन्हें तसव्वुफ़ (धर्मवाद, आध्यात्मवाद) का परिचय मिला होगा, और धीरे-धीरे यह जन्मभूमि [[आगरा]] में बीते बचपन तथा बाद में किशोरावस्था में [[दिल्ली]] में बीते दिनों के बुरे प्रभावों से मुक्त हुए होंगे। दिल्ली आने पर भी शुरू-शुरू में तो मिर्ज़ा का वही तर्ज़ रहा, पर बाद में वह सम्भल गए। कहा जाता है कि मनुष्य की कृतियाँ उसके अन्तर का प्रतीक होती हैं। मनुष्य जैसा अन्दर से होता है, उसी के अनुकूल वह अपनी अभिव्यक्ति कर पाता है। चाहे कैसा ही भ्रामक परदा हो, अन्दर की झलक कुछ न कुछ परदे से छनकर आ ही जाती है। इनके प्रारम्भिक काव्य के कुछ नमूने इस प्रकार हैं-<br />
<blockquote><poem>नियाज़े-इश्क़, <ref>प्रेम का परिचय</ref> ख़िर्मनसोज़ असबाबे-हविस बेहतर।
जो हो जावें निसारे-बर्क़<ref>विद्युत पर न्यौछावर</ref> मुश्ते-ख़ारो-ख़स बेहतर।</poem></blockquote>
<blockquote><poem>देखता हूँ उसे थी जिसकी तमन्ना मुझको।
आज बेदारी<ref>जागरण</ref> में है ख़्वाबे-ज़ुलेखा मुझको।</poem></blockquote>
<blockquote><poem>हँसते हैं देख-देख के सब नातवाँ<ref>दुर्बल</ref> मुझे।
यह रंगे-ज़ुर्द<ref>पीत रंग</ref> है चमने-ज़ाफ़राँ मुझे।</poem></blockquote>
<blockquote><poem>इक गर्म आह की तो हज़ारों के घर जले।
रखते हैं इश्क़ में ये असर हम जिगर जले।
परवाने का न ग़म हो तो फिर किसलिए ‘असद’
हर रात शमअ शाम से ले तास हर जले।</poem></blockquote>
ऊपर जो शेर दिए गए हैं, उनमें एक संवेदना, रसशीलता तो है पर उनकी अपेक्षा उनमें एक छटपटाहट, बेचैनी, जवानी के उड़ते हुए सपनों की छाया और कृत्रिम और कल्पनाओं की उछल-कूद अधिक है। कोई मौलिक भावना नहीं; कोई उथल-पुथल कर देने वाली प्रेरणा नहीं। हाँ, इतना है कि बचपन से ही इनमें कवि-प्रतिभा के बीज दिखाई पड़ते हैं। 7-8 वर्ष की आयु में यह उर्दू (रेखती) तथा 11-12 वर्ष में फ़ारसी में कविता करने लगे थे।
====आग़ामीर से मुलाक़ात की शर्त====
जब मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ लखनऊ पहुँचे तो उन दिनों ग़ाज़ीउद्दीन हैदर [[अवध]] के बादशाह थे। वह ऐशो-इशरत में डूबे हुए इन्सान थे। यद्यपि उन्हें भी शेरो-शायरी से कुछ-न-कुछ दिलचस्पी थी। शासन का काम मुख्यत: नायब सल्तनत मोतमुद्दौला सय्यद मुहम्मद ख़ाँ देखते थे, जो लखनऊ के इतिहास में ‘आग़ा मीर’ के नाम से मशहूर हैं। अब तक आग़ा मीर की ड्योढ़ी मुहल्ला लखनऊ में ज्यों का त्यों क़ायम है। उस समय आग़ा मीर में ही शासन की सब शक्ति केन्द्रित थी। वह सफ़ेद स्याहा, जो चाहते थे करते थे। यह आदमी शुरू में एक 'ख़ानसामाँ' (रसोइया) के रूप में नौकर हुआ था, किन्तु शीघ्र ही नवाब और रेज़ीडेंट को ऐसा ख़ुश कर लिया कि वे इसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहते थे। उन्हीं की मदद से वह इस पद पर पहुँच पाया था। बिना उसकी सहायता के बादशाह तक पहुँच न हो सकती थी।
ग़ालिब के कुछ हितेषियों ने आग़ामीर तक ख़बर पहुँचाई कि ग़ालिब लखनऊ में मौजूद हैं। '''आग़ामीर ने कहलाया कि उन्हें मिर्ज़ा की मुलाक़ात से ख़ुशी होगी। मिलने की बात तय हुई, परन्तु मिर्ज़ा ने यह इच्छा प्रकट की कि मेरे पहुँचने पर आग़ामीर खड़े होकर मेरा स्वागत करें और मुझे नक़द-नज़र पेश करने से बरी रखा जाए। आग़ामीर ने इन शर्तों को स्वीकार नहीं किया और मुलाक़ात नहीं हो सकी।''' ग़ालिब लखनऊ में लगभग पाँच महीने रहे और वहाँ से [[27 जून]], 1827 शुक्रवार को कलकत्ता के लिए रवाना हुए। अभी सफ़र में ही थे कि ग़ाज़ीउद्दीन हैदर का देहान्त हो गया और उनकी जगह नसीरउद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। बहरहाल आग़ामीर से भेंट न होने के कारण जो [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] '[[क़सीदा]]' (पद्यात्मक प्रशंसा) ग़ालिब ने दिल्ली से लखनऊ आने तथा अपनी मुसीबतों का ज़िक्र करते हुए लिखा था, वह अवध के बादशाह के सामने पेश न हो सका और नसीरउद्दीन हैदर के गद्दी पर बैठने के सात-आठ वर्ष बाद यह क़सीदा नायब सल्तनत रोशनउद्दौला एवं मुंशी मुहम्मद हसन के माध्यम से दरबार तक पहुँचा और वहाँ पर पढ़ा गया। वहाँ से शायर को पाँच हज़ार रुपये इनाम देने का हुक्म हुआ, पर इसमें से एक फूटी कोड़ी भी ग़ालिब को न मिली। ‘नासिख़’ के कथनानुसार तीन हज़ार रोशनउद्दौला ने और दो हज़ार मुहम्मद हसन ने उड़ा लिए।
====अन्य स्थानों की यात्रा====
लखनऊ से कलकत्ता (कोलकाता) जाते हुए यह [[कानपुर]], बाँदा, [[बनारस]], [[पटना]] और [[मुर्शिदाबाद]] में भी ठहरे। लखनऊ से 3 दिन चलकर कानपुर पहुँचे। वहाँ से बाँदा गए। बाँदा में मौलवी मुहम्मदअली सदर अमीन ने इनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। इन्हें हर तरह का आराम दिया और कलकत्ता के प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली आदमियों के नाम पत्र भी दिए। बाँदा में ही इन्होंने वह ग़ज़ल लिखी थी, जिसका निम्नलिखित शेर मशहूर है-<br />[[चित्र:Ghalib-Haveli-Courtyard .jpg|thumb|left|ग़ालिब हवेली का आंगन|250px]]
<blockquote><poem>सताइशगर<ref>प्रशंसक</ref> है ज़ाहिद<ref>संयम व्रत करने वाला</ref> इस क़दर जिस बाग़े-रिज़वाँ<ref>स्वर्गोंपन</ref> का।
व एक गुलदस्ता है हम बेख़ुदों के ताक़े-नसियाँ<ref>विस्मृति का ताक़</ref> का।</poem></blockquote>
यात्रा में कठिनाई भी आई होगी, निराशा भी हुई होगी। यात्राकाल की ग़ज़लों में इसकी भी ध्वनि है-<br />
<blockquote><poem>थी वतन में शान क्या ‘ग़ालिब’ कि हो गुरबत<ref>परदेश निवास</ref> में क़द्र।
बेतकल्लुफ़ हूँ वह मुश्ते-ख़स कि गुलख़न<ref>भट्ठी</ref> में नहीं।</poem></blockquote>
बाँदा से मोड़ा गए, मोड़ा से चिल्लातारा। फिर वहाँ से नाव द्वारा [[इलाहाबाद]] पहुँचे। जान पड़ता है कि इलाहाबाद में कोई अप्रीतिकर साहित्यिक संघर्ष हुआ। पर उसका कहीं कोई विवरण नहीं मिलता। उनके एक फ़ारसी क़सीदे से सिर्फ़ इतना मालूम होता है कि वहाँ कुछ न कुछ हुआ ज़रूर था-<br />
<blockquote><poem>नफ़स बलर्ज़: ज़िवादे नहीबे कलकत्ता,
निगाहे ख़ैर: ज़हंगामए इलाहाबाद।</poem></blockquote>
इलाहाबाद में कुछ ज़्यादा ठहरना चाहते थे पर अवसर न मिला और यह [[बनारस]] के लिए रवाना हुए। बनारस पहुँचते-पहुँचते अस्वस्थ हो गए। पर बनारस के जादू ने जैसे ‘हज़ी’ को मुग्ध कर लिया था, वैसे ही उसके चित्ताकर्षक दृश्यों ने इन्हें भी अनुगत बना लिया। बनारस इन्हें इतना भाया कि [[शाहजहाँनाबाद]] ([[दिल्ली]]) पर भी उसे तर्जीह दी-<br />
<blockquote><poem>जहाँ आबाद गर नबूद अलम नेस्त।
जहानाबाद बादाजाए कमनेस्त।</poem></blockquote>
आख़िर में कहते हैं कि हे प्रभु! बनारस को बुरी नज़र से बचाना। यह नन्दित स्वर्ग है, यह भरा-पूरा स्वर्ग है-<br />
<blockquote><poem>तआलिल्ला बनारस चश्मे बद्दूर।
बहिश्ते ख़ुर्रमो फ़िरदौस मामूर।</poem></blockquote>
बनारस इनको इतना अच्छा लगा कि ज़िन्दगी भर उसे नहीं भूल पाये। 40 साल बाद भी एक पत्र में लिखते हैं कि, ‘अगर मैं जवानी में वहाँ जाता तो, वहीं पर बस जाता।’ बनारस की [[गंगा नदी]] एवं प्रभात ने इन्हें मोह लिया था। इनका बड़ा ही ह्रदयग्राही वर्णन उन्होंने किया है। वहाँ की उपासना, [[पूजा]], घंटाध्वनि, मूर्तियों (मानवी और दैवी दोनों) सबके प्रति उनमें आकर्षण उत्पन्न हो गया था। [[काशी]] के बारे में कहते हैं कि-<br />
<blockquote><poem>इबादतख़ानए नाक़ूसियाँ अस्त।
हमाना काबए हिन्दोस्ताँ अस्त।</poem></blockquote>
(यह शंखवादकों का उपासना स्थल है। निश्चय ही यह हिन्दुस्तान का काबा है।)
====प्रोफ़ेसरी से इन्कार====
इन निराशा की घड़ियों में भी मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के सपने पूरे तौर पर टूटे न थे। रस्सी जल गई पर उसमें ऐंठन बाक़ी थी। 1842 ई. में सरकार ने दिल्ली कॉलेज का नूतन संगठन प्रबन्धन किया। उस समय मिस्टर टामसन [[भारत]] सरकार के सेक्रेटरी थे। यही बाद में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर हो गए थे और मिर्ज़ा ग़ालिब के हितैषियों में थे। वह कॉलेज के प्रोफ़ेसरों के चुनाव के लिए दिल्ली आए। उस समय तक वहाँ [[अरबी भाषा]] की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध था और मिस्टर ममलूकअली अरबी के प्रधान शिक्षक थे, जो अपने विषय के अद्वितीय विद्वान माने जाते थे। पर [[फ़ारसी भाषा]] की शिक्षा का कोई संतोषजनक प्रबन्ध न था। टामसन ने इच्छा प्रकट की कि जैसे अरबी की शिक्षा के लिए योग्य अध्यापक हैं, वैसे ही फ़ारसी की शिक्षा देने के लिए भी एक विद्वान अध्यापक रखा जाए। इस मुआइने के समय सदरुस्सदूर मुफ़्ती सदरुद्दीन ख़ाँ ‘आज़ुर्दा’ भी मौजूद थे। उन्होंने कहा, ‘दिल्ली में तीन साहब फ़ारसी के उस्ताद माने जाते हैं। मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ ‘ग़ालिब’, ‘हकीम मोमिन ख़ाँ ‘मोमिन’, और ‘शेख़ इमामबख़्श ‘सहबाई’। टामसन साहब ने प्रोफ़ेसरी के लिए सबसे पहले मिर्ज़ा ग़ालिब को बुलवाया। अगले दिन यह पालकी पर सवार होकर उनके डेरे पर पहुँचे और पालकी से उतरकर दरवाज़े के पास इस प्रतीक्षा में रुक गए कि अभी कोई साहब स्वागत एवं अभ्यर्थना के लिए आते हैं। जब देर हो गई, साहब ने जमादार से देर से आने का कारण पूछा। जमादार ने आकर मिर्ज़ा से दरियाफ़्त किया। '''मिर्ज़ा ने कह दिया कि चूँकि साहब परम्परानुसार मेरा स्वागत करने बाहर नहीं आए इसीलिए मैं अन्दर नहीं आया।''' इस पर टामसन साहब स्वयं बाहर निकल आये और बोले, ‘जब आप दरबार में बहैसियत एक रईस या कवि के तशरीफ़ लायेंगे तब आपका स्वागत सत्कार किया जायेगा, लेकिन इस समय आप नौकरी के लिए आये हैं, इसीलिए आपका स्वागत करने कोई नहीं आया।’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘मैं तो सरकारी नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि ख़ानदानी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो, न कि पहले से जो है, उसमें भी कमी आ जाए और बुज़ुर्गों की प्रतिष्ठा भी खो बैठूँ।’ टामसन साहब ने नियमों के कारण विवशता प्रकट की। '''तब ग़ालिब ने कहा, ‘ऐसी मुलाज़िमत को मेरा दूर से ही सलाम है, और उन्होंने कहारों से कहा कि वापस चलो।’'''
{{दाँयाबक्सा|पाठ=मिर्ज़ा ग़ालिब ने [[फ़ारसी भाषा]] में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फ़ारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा। परंतु यह देव की कृपा है कि, इनकी प्रसिद्धि, सम्मान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा-सा [[उर्दू]] का ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ ही है।|विचारक=}}
मिर्ज़ा के इस रवैये से उनके स्वभाव के एक पहलू पर प्रकाश पड़ता है। इस समय वे बड़े अर्थकष्ट में थे, फिर भी उन्होंने निरर्थक बात पर नौकरी छोड़ दी। आश्चर्य तो यह है कि जन्मभर सरकारी ओहदेदारों एवं [[अंग्रेज़]] अफ़सरों की चापलूसी एवं अत्युक्तिभरी स्तुति में ही बीता (जैसा कि उनके लिखे क़सीदों से स्पष्ट है) पर ज़रा-सी और सारहीन बात पर अड़ गए। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस समय उनमें हीनता का भाव बहुत बड़ा हुआ था और वह तुनकमिज़ाज और क्षणिक भावनाओं की आँधी में उड़ जाने वाले हो गए थे।
====जुए की लत====
इधर चिन्ताएँ बढ़ती गईं, जीवन की दश्वारियाँ बढ़ती गईं, उधर बेकारी, शेरोसख़ुन के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। स्वभावत: निठल्लेपन की घड़ियाँ दूभर होने लगीं। चिन्ताओं से पलायन में इनकी सहायक एक तो थी शराब, अब जुए की लत भी लग गई। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने की आदत थी। अक्सर मित्र-मण्डली जमा होती और खेल-तमाशों में वक़्त कटता था। कभी-कभी बाज़ी बदकर खेलते थे। ग़दर के पहले उन्हें बड़ा अर्थकष्ट था। सिर्फ़ सरकारी वृत्ति और क़िले के पचास रुपये थे। पर आदतें रईसों जैसी थीं। यही कारण था कि ये सदा ऋणभार से दबे रहते थे। इस ज़माने की [[दिल्ली]] के रईसज़ादों और चाँदनी चौक के जौहरियों के बच्चों ने मनोरंजन के जो साधन ग्रहण कर रखे थे, उनमें से जुआ भी एक था। गंजीफ़ा आमतौर पर खेला जाता था। उनके साथ उठते-बैठते हुए मिर्ज़ा को भी यह लत लग गई। धीरे-धीरे नियमित जुआबाज़ी शुरू हो गई। जुए के अड्डेवाले को सदा कुछ न कुछ मिलता है फिर चाहे कोई जीते या हारे। इससे दिल बहलता था, वक़्त कटता था और कुछ न कुछ आमदनी भी हो जाती थी। आज़ाद लिखते हैं, ‘यह ख़ुद भी खेलते थे और चूँकि अच्छे खिलाड़ी थे, इसीलिए इसमें भी कुछ न कुछ मार ही लेते थे।’ अंग्रेज़ी क़ानून के अनुसार जुआ ज़ुर्म था, पर रईसों के दीवानख़ानों पर पुलिस उतना ध्यान नहीं देती थी, जैसे क्लबों में होने वाले ब्रिज पर आज भी ध्यान नहीं दिया जाता है। कोतवाल एवं बड़े अफ़सर रईसों से मिलते-जुलते रहते थे और परिचय के कारण भी सख़्ती नहीं करते थे। ग़ालिब की जान पहचान भी कोतवाल तथा दूसरे अधिकारियों से थी। इसीलिए इनके ख़िलाफ़ न तो किसी तरह का शुबहा किया जाता था और न क़ानूनी कार्रवाहियों का अंदेशा था।
====गिरफ़्तारी====
सन 1845 के लगभग [[आगरा]] से बदलकर एक नया कोतवाल फ़ैजुलहसन आया। इसको काव्य से कोई अनुराग नहीं था। इसीलिए ग़ालिब पर मेहरबानी करने की कोई बात उसके लिए नहीं हो सकती थी। फिर वह एक सख़्त आदमी भी था। आते ही उसने सख़्ती से जाँच करनी शुरू की। कई दोस्तों ने मिर्ज़ा को चेतावनी भी दी कि जुआ बन्द कर दो, पर वह लोभ एवं अंहकार से अन्धे हो रहे थे। उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की। वह समझते थे कि मेरे विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं हो सकती। '''एक दिन कोतवाल ने छापा मारा, और लोग तो पिछवाड़े से निकल भागे पर मिर्ज़ा पकड़ लिए गए।''' मिर्ज़ा की गिरफ़्तारी से पूर्व जौहरी पकड़े गए थे। पर वह रुपया ख़र्च करके बच गए थे। मुक़दमें तक नौबत नहीं आई थी। मिर्ज़ा के पास में रुपया कहाँ था। हाँ, मित्र थे। उन्होंने बादशाह तक से सिफ़ारिश कराई, किन्तु कुछ नतीजा नहीं निकला। जब लोगों को मिर्ज़ा की रिहाई की तरफ़ से निराशा हो गई, तब न केवल दोस्तों ने और साथ उठने-बैठन वालों ने बल्कि अंग्रेज़ों ने भी एक दम आँखें फेर लीं। वे इस बात पर लज्जा का अनुभव करने लगे कि मिर्ज़ा के मित्र या सम्बन्धी कहे जायें।
====सज़ा एवं रिहाई====
मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के मित्रों में केवल नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ ‘शोफ़्ता’ ने हर क़दम पर इनका साथ दिया। ख़बर मिलते ही वह एक-एक हाकिम से जाकर मिले और मिर्ज़ा की रिहाई की कोशिश की। फिर जब मुक़दमा चला और बाद में उसकी अपील की गई तब भी उसका तमाम ख़र्च ख़ुद ही उठाया। जब तक मिर्ज़ा क़ैद रहे हर दूसरे दिन जाकर उनसे मिलते रहे। इस मामले में मिर्ज़ा का दोष कुछ भी नहीं था। मित्रों की चेतावनी के बावजूद वह नहीं सम्भले। इसके पूर्व भी एक बार इस जुर्म में मिर्ज़ा को 100 रुपये जुर्माना और जुर्माना न देने पर चार मास की क़ैद हुई थी और यह चन्द दिनों के बाद जुर्माना अदा करने पर छूट गए थे। पर इस पर भी वह सावधान नहीं हुए। दोबारा 1847 में जुए के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। गिरफ़्तारी की घटना भी दिलचस्प है। कोतवाल ने बड़ी होशियारी से छापा मारा। मकान घेर लेने के बाद इत्तिला करवाई कि जनानी सवारियाँ आई हैं। इस कारण किसी ने आपत्ति नहीं की। अन्दर जाने पर भेद खुला। लोगों ने विरोध किया। इस पर पुलिस ने भी सख़्ती की। मिर्ज़ा जुआख़ाना चलाने के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। मुक़दमा कुँवर वज़ीर अलीख़ाँ मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। वहाँ सज़ा हुई और अपील में भी बनी रही। 6 माह कठोर कारावास और दो सौ जुर्माने का दण्ड मिला। जुर्माना न देने पर 6 मास और। जुर्माने के अलावा 50 अधिक देने पर श्रम से मुक्ति।<ref>‘दिल्ली का आख़िरी साँस’ पृष्ठ 174 तथा अहरुनुल अख़बार बम्बई 2 जुलाई, 1847।</ref> जेल में खाना-कपड़ा घर से आता था। जो चाहे जब मिल सकता था। फिर भी इस सज़ा और क़ैद से मिर्ज़ा के अहम को गहरी चोट पहुँची। ‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना हाली ने इनका एक ख़त उदधृत किया है, जिससे इनकी मनोदशा का पता लगता है। इसमें वह लिखते हैं-<br />
<blockquote>"मैं हर काम को ख़ुदा की तरफ़ से समझता हूँ और ख़ुदा से लड़ा नहीं जा सकता। जो कुछ गुज़रा उसके नंग<ref>बदनामी, लज्जा</ref> से आज़ाद और जो कुछ गुज़रने वाला है, उस पर राज़ी हूँ। मगर आरज़ू<ref>इच्छा, आशा, उम्मीद</ref> करना आईने अबूदियत<ref>उपासना, सिद्धान्त</ref> के ख़िलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरज़ू है कि अब दुनिया में न रहूँ और रहूँ तो हिन्दुस्तान में न रहूँ। रूम है, मिस्र है, ईरान है, बग़दाद है। यह भी जाने दो; ख़ुद काबा आज़ादों की जाएपनाह<ref>आश्रयस्थान</ref> आस्तनए रहमतुल आलमीन<ref>संसार पर दया करने वाले (ईश्वर) का स्थान</ref> दिलदारों की तकियागाह<ref>रसिकों का आश्रय</ref> देखिए यह वक़्त कब आयेगा कि दरमाँदगी<ref>हीनता, बेकारी, विवशता</ref> की क़ैद से, जो इस गुज़री हुई क़ैद से ज़्यादा जानफर्सा<ref>प्राणलेवा</ref> है, नजात<ref>मुक्ति</ref> पाऊँ और बग़ैर उसके कोई मंज़िले मक़सद क़रार दूँ, सरब सेहरा निकल जाऊँ। यह है जो मुझ पर गुज़रा और यह है जिसका मैं आरज़ूमन्द हूँ।"</blockquote>
तीन मास बाद ही दिल्ली के सिविल सर्जन डॉक्टर रास की सिफ़ारिश पर मिर्ज़ा छोड़ दिए गए।
====क़िले की नौकरी====
[[चित्र:Bahadur-Shah-II.jpg|thumb|[[बहादुर शाह ज़फ़र]]|250px]]
संयोगवश क़ैद से छूटने के थोड़े ही दिनों बाद कुछ मित्रों की मध्यस्थता से मिर्ज़ा 'ग़ालिब' का दिल्ली दरबार से सम्बन्ध हो गया। इन दिनों मौलाना नसीरउद्दीन उर्फ़ काले साहब बहादुर ज़फ़र के पीर<ref>ध्रर्मगुरु</ref> थे। वह ग़ालिब के मित्रों और शुभ-चिन्तकों में से थे। शाही हकीम एहसानउल्ला ख़ाँ भी मिर्ज़ा के प्रशंसकों में से थे। इन लोगों ने सिफ़ारिश की। बहादुरशाह ने मंज़ूर कर लिया कि मिर्ज़ा तैमूरी वंश का इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखें। [[4 जुलाई]], 1850 को यह बादशाह के सामने पेश किए गए। [[बहादुर शाह ज़फ़र|बादशाह ज़फ़र]] ने नजमुद्दौला दबीरुल्मुल्क निज़ाम जंग की उपाधि प्रदान की और 6 पारचे तथा तीन रत्न का ख़िलअत दिया। पचाय रुपये मासिक वृत्ति नियत हुई और मिर्ज़ा क़िले के मुलाज़िम हो गए।<ref>उस समय क़िले की परम्परा थी, कि साल में दो बार वेतन मिलता था। एक तो पचास रुपये मासिक, फिर 6-6 महीने में मिलता था। उसका परिणाम यह होता था कि महाजन के सूद में ही काफ़ी रक़म कट जाती थी। ग़ालिब ने पहली छमाही किसी तरह से काटी, पर जनवरी 1851 में दर्ख़ास्त पेश की कि रोज़ाना की ज़रूरतों का क्या करूँ उन्हें इतने दिनों के लिए स्थगित तो नहीं किया जा सकता। फलत: महाजनों से क़र्ज़ लेता हूँ और सूद में तनख़्वाह का काफ़ी हिस्सा निकल जाता है। पहली छमाही के वेतन का एक तिहाई इसी में चला जाता है-<br />
<poem>आपका बन्दा और फिर नंगा।
आपका नौकर और खाऊँ उधार।
मेरी तनख़्वाह कीजिए माह बमाह।
ता न हो मुझको ज़िन्दगी दुश्वार।
तुम सलामत रहो हज़ार बरस।
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार।</poem>
इस प्रार्थना पत्र के बाद इन्हें वेतन हर मास में मिलने लगा।</ref>
====ज़ौक़ से छेड़छाड़====
‘ग़ालिब’ दरबार में कभी-कभी जाया करते थे और उनकी आव-भगत भी होती थी, पर उन्हें वह दर्जा प्राप्त नहीं था, जो कि ज़ौंक़ को प्राप्त था। ज़ौंक़ ज़फ़र के उस्ताद थे। स्वभावत: उनकी इज़्ज़त ज़्यादा थी। उनके साथ ग़ालिब की नोंक-झोंक चलती ही रहती थी।
बहरहाल ज़ौंक़ जब तक रहे, दरबार में ग़ालिब उभर नहीं पाये। 16 अक्टूबर, 1854 को ज़ौक़ की मृत्यु हो गई। ज़ौक़ के बाद बादशाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा ग़ालिब से इस्लाह लेनी शुरू कर दी। ज़फ़र के सबसे छोटे बेटे शहज़ादे मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान ने भी इनकी शागिर्दी इख़्तियार की। सम्भवत: इसी साल नवाब वाजिद अलीशाह अवध नरेश की ओर से भी पाँच सौ सालाना मिलने लगा। इससे इनकी स्थिति काफ़ी हद तक सुध गई। पर यह अल्पकालिक ही रही, क्योंकि दो ही साल बाद 10 जुलाई, 1856 को मिर्ज़ा फख़्रू की मृत्यु हो गई। उधर 11 फ़रवरी, 1856 को अंग्रेज़ों ने वाजिद अलीशाह को गद्दी से उतारकर कलकत्ता भेज दिया, जहाँ वह मटियाबूर्ज़ में नज़रबन्द कर दिए गए। मई 1857 में ग़दर हो गया और मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान हुमायूँ के मक़बरे में गिरफ़्तार कर लिए गए और दिल्ली के बाहर मेजर हडसन की गोली के शिकार हुए। ज़फ़र पर बाग़ियों की मदद करने के जुर्म में मुक़दमा चला और वह अक्टूबर 1858 में रंगून (अब [[यांगून]]) भेज दिए गए, जहाँ 7 नवम्बर, 1862 को उनकी मृत्यु हो गई।
{{seealso|ग़ालिब का दौर}}
==हिन्दू मित्रों की सहायता==
1857 के ग़दर के अनेक चित्र मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के पत्रों में तथा इनकी पुस्तक ‘दस्तंबू’ में मिलते हैं। इस समय इनकी मनोवृत्ति अस्थिर थी। यह निर्णय नहीं कर पाते थे कि किस पक्ष में रहें। सोचते थे कि पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे? इसीलिए क़िले से भी थोड़ा सम्बन्ध बनाये रखते थे। ‘दस्तंबू’ में उन घटनाओं का ज़िक्र है जो ग़दर के समय इनके आगे गुज़री थीं। उधर फ़साद शुरू होते ही मिर्ज़ा की बीवी ने उनसे बिना पूछे अपने सारे ज़ेवर और क़ीमती कपड़े मियाँ काले साहब के मकान पर भेज दिए ताकि वहाँ सुरक्षित रहेंगे। पर बात उलटी हुई। काले साहब का मकान भी लुटा और उसके साथ ही ग़ालिब का सामान भी लुट गया। चूँकि इस समय राज [[मुसलमान|मुसलमानों]] का था, इसीलिए [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने दिल्ली विजय के बाद उन पर विशेष ध्यान दिया और उनको ख़ूब सताया। बहुत से लोग प्राण-भय से भाग गए। इनमें मिर्ज़ा के भी अनेक मित्र थे। इसीलिए ग़दर के दिनों में उनकी हालत बहुत ख़राब हो गई। घर से बाहर बहुत कम निकलते थे। खाने-पीने की भी मुश्किल थी। '''ऐसे वक़्त उनके कई [[हिन्दू]] मित्रों ने उनकी मदद की। मुंशी हरगोपाल ‘तुफ़्ता’ [[मेरठ]] से बराबर रुपये भेजते रहे, लाला महेशदास इनकी मदिरा का प्रबन्ध करते रहे। मुंशी हीरा सिंह दर्द, पं. शिवराम एवं उनके पुत्र बालमुकुन्द ने भी इनकी मदद की। मिर्ज़ा ने अपने पत्रों में इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की है।'''
====मुसलमान हूँ पर आधा====
यद्यपि पटियाला के सिपाही आस-पास के मकानों की रक्षा में तैनात थे, और एक दीवार बना दी गई थी। लेकिन [[5 अक्टूबर]] को (18 सितम्बर को दिल्ली पर अंग्रेज़ों का दुबारा से अधिकार हो गया था) कुछ गोरे, सिपाहियों के मना करने पर भी, दीवार फाँदकर मिर्ज़ा के मुहल्ले में आ गए और मिर्ज़ा के घर में घुसे। उन्होंने माल-असबाब को हाथ नहीं लगाया, पर मिर्ज़ा, आरिफ़ के दो बच्चों और चन्द लोगों को पकड़कर ले गए और कुतुबउद्दीन सौदागर की हवेली में कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया। उनकी हास्यप्रियता और एक मित्र की सिफ़ारिश ने रक्षा की। बात यह हुई जब गोरे मिर्ज़ा को गिरफ़्तार करके ले गए, तो अंग्रेज़ सार्जेण्ट ने इनकी अनोखी सज-धज देखकर पूछा-‘क्या तुम मुसलमान हो?’ मिर्ज़ा ने हँसकर जवाब दिया कि, ‘मुसलमान तो हूँ पर आधा।’ वह इनके जवाब से चकित हुआ। पूछा-‘आधा मुसलमान हो, कैसे?’ मिर्ज़ा बोले, ‘साहब, शरीब पीता हूँ; हेम (सूअर) नहीं खाता।’
जब कर्नल के सामने पेश किए गए, तो इन्होंने [[महारानी विक्टोरिया]] से अपने पत्र-व्यवहार की बात बताई और अपनी वफ़ादारी का विश्वास दिलाया। कर्नल ने पूछा, ‘तुम दिल्ली की लड़ाई के समय पहाड़ी पर क्यों नहीं आये, जहाँ अंग्रेज़ी फ़ौज़ें और उनके मददगार जमा हो रहे थे?’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘तिलंगे दरवाज़े से बाहर आदमी को निकलने नहीं देते थे। मैं क्यों कर आता? अगर कोई फ़रेब करके, कोई बात करके निकल जाता, जब पहाड़ी के क़रीब गोली की रेंज में पहुँचता तो पहरे वाला गोली मार देता। यह भी माना की तिलंगे बाहर जाने देते, गोरा पहरेदार भी गोली न मारता पर मेरी सूरत देखिए और मेरा हाल मालूम कीजिए। बूढ़ा हूँ, पाँव से अपाहिज, कानों से बहरा, न लड़ाई के लायक़, न मश्विरत के क़ाबिल। हाँ, दुआ करता हूँ सो वहाँ भी दुआ करता रहा।’ कर्नल साहब हँसे और मिर्ज़ा को उनके नौकरों और घरवालों के साथ घर जाने की इजाज़त दे दी।
==ग़ालिब और पेंशन==
====मिर्ज़ा यूसुफ़ का अन्त====
[[चित्र:Mirza-Ghalib-Sketch.jpg|thumb|मिर्ज़ा ग़ालिब रेखाचित्र (स्कैच)|250px]]
मिर्ज़ा तो बच गए पर इनके भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ इतने भाग्यशाली न थे। पहले ही ज़िक्र किया जा चुका है कि वह 30 साल की आयु में ही विक्षिप्त (पागल) हो गए थे और ग़ालिब के मकान से दूर, फर्राशख़ाने<ref>वह मकान जिसमें फ़र्श वग़ैरह रखे जाते हैं</ref> के क़रीब, एक दूसरे मकान में अलग रहते थे। जितनी पेंशन ग़ालिब को सरकारी ख़ज़ाने से मिलती थी, उतनी ही मिर्ज़ा यूसुफ़ के लिए भी नियत थी। उनकी बीवी, बच्चे भी साथ-साथ रहते थे, पर दिल्ली पर अंग्रेज़ों का फिर से अधिकार हुआ तो गोरों ने चुन-चुनकर बदला लेना शुरू किया। इस बेइज़्ज़ती और अत्याचार से बचने के लिए यूसुफ़ की बीवी बच्चों सहित इन्हें अकेले छोड़कर [[जयपुर]] चली गई थीं। घर पर इनके पास एक बूढ़ी नौकरानी और एक बूढ़ा दरवान रह गए। मिर्ज़ा को भी सूचना मिली, किन्तु बेबसी के कारण वह कुछ न कर सके। [[30 सितम्बर]] को जब ग़ालिब को अपना दरवाज़ा बन्द किए हुए पन्द्रह-सोलह दिन हो रहे थे, उन्हें सूचना मिली की सैनिक मिर्ज़ा यूसुफ़ के घर आये और सब कुछ ले गए, लेकिन उन्हें और बूढ़े नौकरों को ज़िन्दा छोड़ गए।<ref>ग़ालिब के एक निकट सम्बन्धी मिर्ज़ा मुईनउद्दीन ने लिखा है कि यूसुफ़ गोली की आवाज़ सुनकर, यह देखने के लिए कि क्या हो रहा है, घर से बाहर आये और मारे गए।–ग़दर की सुबह-शाम, पृष्ठ 88</ref>
इस समय शहर की हालत भयानक थी। 2-4 आदमियों को मिलकर, किसी लाश को दफ़न करने के लिए क़ब्रिस्तान तक ले जाना सम्भव न था। कफ़न के लिए कपड़े भी न मिलते थे। ख़ैर साथियों ने मदद की। मिर्ज़ा का एक नौकर और पटियाला का एक सिपाही उनके साथ गए। कफ़न के लिए दो-तीन [[सफ़ेद रंग|सफ़ेद]] चादरें मिर्ज़ा ने अपने पास से दीं। इन लोगों ने गली के सिरे पर तहव्वरख़ाँ की मस्जिद की<ref>मालिक राम साहब लिखते हैं-फर्राशख़ाने से बावली की तरफ़ जायें तो यह मस्जिद ‘नया बाँस’ के पास उल्टे हाथ को पड़ती है। इसके निर्माणकर्ता तहव्वरख़ाँ ताश्कन्दी मुहम्मदशाह के राज्य काल में शाहजहाँपुर के ज़मींदार थे। वर्तमान मस्जिद नई बनी है। अब इसकी कुर्सी ऊँची है और सेहन के नीचे बाज़ार में दुकानें हैं।</ref> सेहन में गड्डा खोदा और शव को उसमें उतारकर मिट्टी डाल दी।
====असीम कष्टों की घटाएँ====
इस समय मिर्ज़ा ग़ालिब की हालत बहुत ही दयनीय थी। आमदनी के सब रास्ते बन्द थे, जान बचाने की फ़िक्र, भाई की मौत। एक आतंक सब पर छाया हुआ था। ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी। जो जीवित थे, मरे हुओं से बदतर थे। किसी की भी सुरक्षा नहीं थी। गोरे जिसकी इज़्ज़त-आबरू चाहते ले लेते थे, जिसे चाहते मार देते, उन पर प्रतिहिंसा का भूत सवार था। हकीम महमूद ख़ाँ [[पटियाला]] महाराज से सम्बन्ध होने के कारण ग़ालिब का मुहल्ला कुछ सुरक्षित था। बहुत-से लोगों ने भागकर हकीम साहब के यहाँ शरण ली थी। [[2 फ़रवरी]], 1858 को हाकिम शहर चंद सिपाहियों के साथ ग़ालिब के मुहल्ले में आया और हकीम महमूद ख़ाँ को साठ आदमियों सहित पकड़ ले गया। हकीम साहब एवं उनके कुछ साथी तीन दिन बाद कुछ लोग एक हफ़्ते के बाद रिहा कर दिए गए। हकीम साहब छूटकर घर में नहीं बैठे। हर एक के लिए दौड़े और बेगुनाही के सुबूत दिए। जिससे एप्रिल तक बाक़ी लोग भी रिहा कर दिए गए। मतलब यह कि ग़दर क्या आया, मिर्ज़ा का जीवनाकाश काली घटाओं से घिर गया। घर में जो कुछ भी था, वह ख़त्म हो गया। यार-दोस्त सब गिरफ़्तार और दूर हो गए। आमदनी के सब रास्ते बन्द थे। क़िले की तनख़्वाह भी पहले ही बन्द हो चुकी थी, क्योंकि वहाँ तो देशी फ़ौज का डेरा था। इतना ही बहुत था कि उन लोगों इनको सताया नहीं, अन्यथा अंग्रेज़ों का ‘वज़ीफ़ाख़ार’ कहकर मौत के घाट उतार देते तो उन्हें कौन रोकने वाला था? अंग्रेज़ों की तरफ़ से जो ख़ानदानी पेंशन मिलती थी, वह भी बन्द हो गई थी, क्योंकि दिल्ली पर देशी फ़ौज का क़ब्ज़ा था। [[अंग्रेज़]] दफ़्तर ही कहाँ रह गया था। इस कष्ट के समय नवाब ज़ियाउद्दीन अहमद ने मिर्ज़ा की बीवी उमराव बेगम को पचास रुपये माहवार नियत कर दिया। यह प्रकारान्तर से मिर्ज़ा की ही मदद थी। बेगम को यह वज़ीफ़ा उनकी मृत्यु तक मिलता रहा।
====रामपुर से सम्बन्ध====
{{दाँयाबक्सा|पाठ=एक बार उनके किसी हितैषी ने इनके कुछ शेर मीर तक़ी ‘मीर’ को सुनाए। सुनकर ‘मीर’ ने कहा, ‘अगर इस लड़के को कोई काबिल उस्ताद मिल गया और उसने इसको सीधे रास्ते पर डाल दिया तो लाजवाब शायर बन जायेगा। बर्ना 'महमिल' (निरर्थक) बकने लगेगा।’ मीर की भविष्यवाणी पूरी हुई। सचमुच यह महमिल बकने लगे थे, पर अन्त: प्रेरणा एवं बुज़ुर्गों की कृपा से उस स्तर से ऊपर उठ गये।|विचारक=}}
ग़दर से थोड़े ही अरसे पहले मिर्ज़ा का दरबार रामपुर से सम्बन्ध हो गया था। थोड़ा-बहुत सम्बन्ध तो पहले से ही था, क्योंकि जब बचपन में नवाब मुहम्मद यूसुफ़अली ख़ाँ शिक्षा के लिए दिल्ली आए तो उन्होंने ग़ालिब से [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] पढ़ी थी। पर बाद में यह सिलसिला टूट गया था। जब 1855 ई. में वह गद्दी पर बैठे तो मिर्ज़ा ने क़िता<ref>फ़ारसी और उर्दू पद्य का एक प्रकार जिसमें ग़ज़ल के समान काफ़िया अनिवार्य होता है और जिसमें कोई एक ही बात कही जाती है।</ref> लिखकर भेजा, लेकिन परिणाम कुछ न निकला।<ref>मकातीबे ग़ालिब पृष्ठ 3</ref> नवाब ने ध्यान नहीं दिया। बाद में जब ग़ालिब के हितैषी और मित्र मोहम्मद फ़ज़लहक ख़ेराबादी रामपुर में थे, उन्होंने मिर्ज़ा को तैयार किया कि वह नवाब के पास [[क़सीदा]]<ref>फ़ारसी आदि में कविता का एक प्रकार जिसमें किसी बड़े व्यक्ति की प्रशंसा की जाती है।</ref> भेजें। मिर्ज़ा ने क़सीदा भेजा। मोहम्मद फ़ज़लहक ने भी सिफ़ारिश की। इसके उत्तर में नवाब ने 5 फ़रवरी, 1857 को एक ख़त में चंद शेर इस्लाह के लिए मिर्ज़ा के पास भेजे<ref>मकातीबे ग़ालिब पृष्ठ 120</ref>। '''तब से मिर्ज़ा का दरबार रामपुर से नियमित सम्बन्ध हो गया। जान पड़ता है''' कि नवाब साहब ने इस प्रारम्भिक कलाम में युसूफ़ तख़ल्लुस किया था, पर मिर्ज़ा के सुझाव पर ‘नाज़िम’ पसन्द किया। पर इनकी कोई मासिक वृत्ति नहीं बँधी थी। वैसे नवाब बीच-बीच में रुपये भेजते रहते थे। पहिले ही पत्र के साथ ढाई सौ भेजे थे।
====पेंशन की चिन्ता====
यह सम्बन्ध हुए थोड़ ही दिन हुए थे कि ग़दर में सब व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। आँधी आई और चली गई तब इन्हें पेंशन की चिन्ता हुई। ग़ालिब का ख़्याल था कि शान्ति स्थापित होते ही मेरी पेंशन बहाल हो जायगी। जब न हुई तो वही चापलूसी वाला ढंग इख़्तियार किया। [[महारानी विक्टोरिया]] तथा उच्चाधिकारियों की प्रशंसा में क़सीदे लिखकर दिल्ली के अधिकारियों की मार्फ़त भेजे, किन्तु [[17 मार्च]], 1857 को कमिश्नर दिल्ली ने यह लिखकर उन्हें वापस भेज दिया कि इनमें कोरी प्रशंसा एवं स्तुति के सिवा कुछ नहीं है। जब इसके कुछ मास बाद अक्टूबर में दस्तंबू छपी तो मिर्ज़ा ने जिल्द लगवाकर 2 विलायत और 4 प्रतियाँ हिन्दुस्तान में उच्चाधिकारियों को भेंट कीं। संचालक शिक्षा विभाग पश्चिमोत्तर प्रदेश ने बड़ी प्रशंसा की और मिस्टर मैकलियाड फिनांशल कमिश्नर ने ख़ुद लिखकर कमिश्नर दिल्ली की मार्फ़त यह किताब मिर्ज़ा से मंगवाई। यह सब तो हुआ, पर अधिकारियों का दिल इनकी ओर से साफ़ न हुआ। जनवरी 1860 में [[मेरठ]] में बड़ा दरबार हुआ। अन्य दरबारी बुलाए गए पर मिर्ज़ा को नहीं बुलाया गया। फिर जब [[गवर्नर-जनरल]] का कैम्प मेरठ से [[दिल्ली]] आया और मिर्ज़ा ने चीफ़ सेक्रेटरी के ख़ीमे में मुलाक़ात के लिए अपना टिकट भिजवाया तो वहाँ से जवाब मिला कि ग़दर के दिनों में तुम बाग़ियों से रब्त-ज़ब्त रखते थे।<ref>ग़दर में इनका सम्बन्ध बहादुरशाह से छूटा न था। [[आगरा]] के अख़बार आफ़ताब आलिमताब में छपा था कि [[12 जुलाई]], 1857 को मिर्ज़ा नौशा (ग़ालिब) ने बहादुरशाह की तारीफ़ में क़सीदा पढ़ा था। श्रीमालिकराम ने इसे [[18 जुलाई]] लिखा है।</ref> अब गवर्नमेण्ट से क्यों मिलना चाहते हो। लॉर्ड कैनिंग की तारीफ़ में जो क़सीदा लिखा था वह भी वापिस कर दिया गया कि अब ये चीज़ें हमारे पास न भेजा करो।<ref>ग़ालिबनामा 145-46</ref>
====निराशाजनक स्थिति====
'''इस समय इनकी हालत बहुत ख़राब थी। यहाँ तक की घर के कपड़े-लत्ते बेचकर दिन कट रहे थे। इन निराशाजनक स्थिति में लाचार होकर इन्होंने दिल्ली से बाहर चले जाने का निर्णय किया।''' नवाब अमीनुद्दीन अहमदख़ाँ तथा ज़ियाउद्दीन अहमदख़ाँ एवं उनकी माँ बेगम जान साहबा ने इस शर्त पर इनके प्रस्ताव को स्वीकार किया कि उमराव बेगम और बच्चे लोहारू चले जाएँ। इस निर्णय की सूचना नवाब अलाउद्दीन अहमदख़ाँ को, जो उस समय लोहारू में थे, देते हुए लिखते हैं-<br />
"अपना मक़सूद<ref>आशा, मंशा, इच्छा</ref> तुम्हारे वालिद<ref>पिता, पितृ, जनक</ref> माजिद<ref>बुर्ज़ुग</ref> से कह चुका हूँ। खुलासा यह है कि मेरी बीवी और बच्चों को, कि तुम्हारी क़ौम के हैं, मुझसे ले लो कि मैं इस बोझ का मोतहमिल हो नहीं सकता। मेरा क़स्द<ref>संकल्प, इरादा</ref> सियाहत<ref>पर्यटन, यात्रा</ref> का है। पेंशन अगर खुल जाएगा तो वह अपने सर्फ़ में लाया करूँगा। जहाँ जी लगा वहाँ रह गया। जहाँ से दिल उजड़ा चल दिया।"
निराशा में बीवी बच्चे बोझ मालूम होते थे और सब मुसीबतें उन्हीं की वजह से आती मालूम पड़ती थीं और इच्छा भी होती थी कि अकेले-<br />
‘रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो’<ref>ज़िक्रे ग़ालिब, पृष्ठ 101</ref>
{{बाँयाबक्सा|पाठ=ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज़्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना और अन्त:पुर अलग-अलग हों और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें।|विचारक=}}
खैर तय यह हुआ कि बीवी बच्चे लोहारू जाएँ और यह [[पटियाला]] जाकर रहें। इस बीच इन्होंने महाराज [[अलवर]] एवं पटियाला की तारीफ़ में क़सीदे लिखे और मदद चाही। पटियाला के प्रतिष्ठित नागरिक महमूदख़ाँ के यह पड़ोसी थे। दस वर्ष से एक जगह रह रहे थे। हकीम महमूदख़ाँ के दो भाई हकीम मुर्त्तज़ाख़ाँ और हकीम ग़ुलाम अल्लाख़ाँ पटियाला नरेश महाराज नरेन्द्रसिंह की सेवा में थे। उनकी इच्छा भी थी कि ग़ालिब कुछ दिन वहाँ जाकर रहें। पर जब क़सीदे के जवाब में कोई अनुकूल उत्तर न मिला तब इन्होंने वहाँ जाने का विचार त्याग दिया।
====रामपुर से मासिक वृत्ति====
इधर से निराश होकर ग़ालिब ने नवाब रामपुर से दर्ख़ास्त की कि मेरा कोई नियमित वज़ीफ़ा तय कर दिया जाए। नवाब ने 16 जुलाई, 1859 को उत्तर दिया कि आपको 100 रुपया मासिक वेतन पहुँचता रहेगा।<ref>मकातीबे ग़ालिब, 82, उर्दू-ए-मोअल्ला 120</ref> नवाब रामपुर (यूसुफ़ अलीख़ाँ) ने मिर्ज़ा को कई बार रामपुर निमंत्रित किया। [[दिल्ली]] पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा होते ही इन्होंने रामपुर आने का आश्वासन दिया था, पर इन्हें सरकारी पेंशन की उम्मीद अब भी लगी थी। इसीलिए दिल्ली छोड़ते न बनते थी। नवाब रामपुर ने दूसरी बार [[25 नवम्बर]], 1858 को बुलवाया, तो इन्होंने जवाब दिया, ‘मेरे हाज़िर होने को जी इरशाद होता है, मैं वहाँ न आऊँगा तो कहाँ जाऊँगा। पेंशन के वसूल का ज़माना क़रीब आया है। उसे मुल्तवी छोड़कर क्यों चला आऊँ? सुना जाता है और यक़ीन भी आता है कि आग़ाज साल 59 ईस्वी यह क़िस्सा अंज़ाम पाये। जिसको रुपया मिलना है उसको रुपया, जिसको जवाब मिलना है, उसको जवाब मिल जाये।’<ref>मकातीबे ग़ालिब, पृष्ठ 12</ref>
'''कैसी दृढ़ आशा एवं निष्ठा थी, इस आदमी को अंग्रेज़ों की न्यायप्रियता में। पर निराश तो होना ही था।''' 1860 के शुरू में जब [[गवर्नर-जनरल]] ने इनसे मुलाक़ात करने से इन्कार कर दिया, तब इनकी नींद टूटी और जब अन्तिम उत्तर मिल गया, तब इनकी आँखें खुलीं। इस बीच दिसम्बर 1859 में पुन: नवाब रामपुर इन्हें निमंत्रित कर चुके थे। इसीलिए अंग्रेज़ों से निराश होकर [[19 जनवरी]], 1860 को यह रामपुर के लिए रवाना हुए और [[27 जनवरी]] को वहाँ पहुँच गए।<ref>उर्दूए-मोअल्ला, पृष्ठ 170</ref>
==अंतिम समय==
====स्वास्थ्य का निरन्तर गिरना====
[[चित्र:Tomb-of-Mirza-Ghalib.jpg|thumb|मिर्ज़ा ग़ालिब का मक़बरा, [[दिल्ली]]|250px]]
'''मिर्ज़ा 'ग़ालिब' का ज़िन्दगी भर कर्ज़दारों से पिण्ड नहीं छूट सका। इनके सात बच्चे भी हुए थे, लेकिन जितने भी हुए सब मर गए। 'आरिफ़' (गोद लिया हुआ बेटा) को बेटे की तरह की पाला, वह भी मर गया।''' पारिवारिक जीवन कभी सुखी एवं प्रेममय नहीं रहा। मानसिक संतुलन की कमी से ज़माने की शिकायत हमेशा रही। इसका दु:ख ही बना रहा कि समाज ने कभी हमारी योग्यता और प्रतिभा की सच्ची क़द्रदानी न की। फिर शराब जो किशोरावस्था में मुँह लगी थी, वह कभी नहीं छूटी। ग़दर के ज़माने में अर्थ-कष्ट, उसके बाद पेंशन की बन्दी। जब इनसे कुछ फुर्सत मिली तो ‘क़ातअ बुरहान’ के हंगामे ने इनके दिल में ऐसी उत्तेजना पैदा की कि बेचैन रखा। इन लगातार मुसीबतों से इनका स्वास्थ्य गिरता ही गया। खाना-पीना बहुत कम हो गया। बहरे हो गए। दृष्टि-शक्ति भी बहुत कम हो गई। क़ब्ज़ की शिकायत पहले से ही थी। मई 1848 में क़ोलज का आक्रमण पहली बार हुआ और बीच-बीच में बराबर आता रहा। 1861 में इतने दर्बल थे कि नवाब रामपुर मुहम्मद यूसुफ़ ख़ाँ ने अपने मझले पुत्र हैदरअली ख़ाँ का निकाह किया और उसमें इन्हें निमंत्रित किया। पर बीमारी एवं दुर्बलता के कारण वहाँ न जा सके।
====चर्मरोग से कष्ट====
दिन पर दिन स्वास्थ्य ख़राब होता जा रहा था। एक न एक रोग लगे रहते थे। जीवन के उत्तर काल में ख़ून भी ख़राब हो गया। इसके कारण प्राय: चर्मरोग होते रहते थे। इस चर्मरोग से उन्हें बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ी। एक फोड़ा बैठता या पकता कि दूसरा तैयार हो जाता। वर्षों तक यह सिलसिला चलता रहा। इनके पत्रों को पढ़ने से समय की इनकी तकलीफ़ों का कुछ अंदाज़ किया जा सकता है। [[3 मई]], 1863 को एक पत्र में लिखते हैं कि-<br />
"छठा महीना है कि सीधे हाथ में एक फुंसी ने फोड़े की सूरत पैदा की। फोड़ा पककर फूटा और फूटकर एक ज़ख़्म और ज़ख़्म एक 'ग़ार' (गड्डा, गर्त) बन गया। हिन्दुस्तानी 'जर्राहों' (शल्य चिकित्सक) का इलाज रहा। बिगड़ता गया। दो महीने से काले डाक्टर का इलाज है। सलाइयाँ दौड़ रही हैं; उस्तरे से गोश्त कट रहा है। बीस दिन से इफ़ाक़ा (लाभ) की सूरत नज़र आती है।"
नवम्बर, 1863 में क़ाज़ी अब्दुलजमील को एक ख़त में लिखते हैं कि-<br />
"जितना ख़ून बदन में था, बेमुवालग़ा आधा उसमें से पीप होकर निकल गया।"
फोड़ों से मुक्ति मिली तो 1863 में फ़त्क़<ref>अंत्रवृद्धि, आँत उतरने</ref> की शिकायत हुई। इन शारीरिक व्याधियों में पारिवारिक सौख्य एवं दाम्पत्य स्नेह के अभाव ने ज़िन्दगी को स्वादहीन कर दिया था। जीने की इच्छा नहीं रह गई थी। मृत्यु की आकांक्षा करने लगे थे। जून, 1863 के एक पत्र में लिखते हैं कि-<br />
"सन 1277 हिजरी में मेरा न मरना सिर्फ़ तकज़ीब के वास्ते था। हर रोज़ मर्गे नौ<ref>नवमरण</ref> का मज़ा चखता हूँ। रूह मेरी अब जिस्म में इस तरह घबराती है, जिस तरह तायर<ref>पक्षी</ref> क़फ़स<ref>पिंजरे</ref> में। कोई शग़ल, कोई इख़्तिलात,<ref>प्रेम व्यवहार</ref> कोई जल्सा, कोई मजमा पसंद नहीं। किताब से नफ़रत, शेर से नफ़रत, जिस्म से नफ़रत, रूह से नफ़रत। जो कुछ लिखा है बेमुबालग़ा और बयाने वाक़अ है।"
====मृत्यु की आकांक्षा और करुणाजनक पत्र====
मानसिक उलझनों, शारीरिक कष्टों और आर्थिक चिन्ताओं के कारण जीवन के अन्तिम वर्षों में यह प्राय: मृत्यु की आकांक्षा किया करते थे। हर साल अपनी मृत्यु तिथि निकालते। पर विनोद वृत्ति अन्त तक बनी रही। एक बार जब मृत्यु तिथि का ज़िक्र अपने शिष्य से किया तो उसने कहा, ‘इंशा अल्ला, यह तिथि भी ग़लत साबित होगी।’ इस पर मिर्ज़ा बोले, ‘देखो साहब! तुम ऐसी काल फ़ाल मुँह से न निकालो। अगर यह तिथि ग़लत साबित हुई तो मैं सिर फोड़कर मर जाऊँगा।’
कभी-कभी यह सोचकर और दुखी हो जाते थे कि उनके बाद उनके आश्रितों का क्या होगा। ऐसे समय दिल को समझाते थे कि बीवी के सम्बन्धी उसे भूखों मरने न देंगे। नवाब अमीनउद्दीन ख़ाँ, लोहारू नरेश को एक पत्र में लिखा कि-<br />
<blockquote>"मेरी ज़ौजा<ref>स्त्री</ref> तुम्हारी बहन, मेरे बच्चे तुम्हारे बच्चे हैं। ख़ुद जो मेरी हक़ीकी<ref>सच्चा, वास्तविक</ref> भतीजी है, उसकी औलाद भी तुम्हारी औलाद है। न तुम्हारे वास्ते बल्कि इन बेकसों<ref>पीड़ितों</ref> के वास्ते तुम्हारा दुआगो<ref>दुआ देने वाला, शुभ चिंतक</ref> हूँ और तुम्हारी सलामती चाहता हूँ। तमन्ना यह है और इंशा अल्ला ऐसा ही होगा कि तुम जीते रहो और मैं तुम दोनों (अमीनउद्दीन व ज़ियाउद्दीन) के सामने मर जाऊँ, ताकि अगर इस क़ाफ़ले को रोटी न दोगे तो चने दोगे। अगर चने भी न दोगे और बात न पूछोगे तो मेरी बला से। मैं तो मुआफ़िक़<ref>मित्र, दोस्त</ref> अपने तसव्वुर<ref>ध्यान, विचार</ref> के इन ग़मज़दों के ग़म में न उलझूँगा।"</blockquote>
====अन्तकाल====
[[चित्र:Mirza-Ghalib-Stamp.jpg|thumb|250px|ग़ालिब के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]]
मिर्ज़ा 'ग़ालिब' को मृत्यु के कई दिन पहले से बेहोशी के दोरे आने लगे थे। कई-कई घंटों बाद कुछ देर के लिए होश आता; फिर बेहोश हो जाते। देहावसान से एक रोज़ पहले की दो घटनाएँ स्मरणीय हैं। लम्बी बेहोशी के बाद कुछ होश आया था। ‘हाली’ गए तो पहचाना। नवाब अलाउद्दीन ख़ाँ ने लोहारू से हाल पुछवाया था। '''उनको जवाब लिखवाया, ‘मेरा हाल मुझसे क्या पूछते हो। एकाध रोज़ में हमसायों से पूछना।’''' इसी रोज़ कुछ खाने को माँगा। खाना आया तो नौकर से कहा कि मीरज़ा जीवन-बेग (मिर्ज़ा बाक़रअली ख़ाँ की सबसे बड़ी लड़की) को बुलाओ। यह प्राय: उन्हीं के पास खेला करती थी, पर उस समय अन्दर चली गई थी। कल्लु मुलाज़िम<ref>दास, सेवक</ref> बुलाने अन्त:पुर में गया तो वह सो रही थी। उसकी माँ बुग्गा बेगम ने कहा, ‘सो रही है, यूँ ही जगती है, भेजती हूँ।’ कल्लू ने जाकर यही बात कह दी। इस पर बोले, ‘बहुत अच्छा।’ जब वह आयेगी, तब हम खाना खायेंगे। पर उसके बाद ही तकिये पर सिर रखकर बेहोश हो गए। हकीम महमूद ख़ाँ और हकीम अहसन उल्ला ख़ाँ को ख़बर दी गई। उन्होंने आकर जाँच की और बतलाया, ‘दिमाग़ पर फ़ालिज<ref>पक्षाघात, लकवा</ref> गिरा है।’ बहुत यत्न किया पर सब बेकार हुआ। फिर उन्हें होश न आया और उसी हालत में अगले दिन, '''15 फ़रवरी, 1869 ई., दोपहर ढले उनका दम टूट गया। एक ऐसी प्रतिभा का अन्त हो गया, जिसने इस देश में [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] काव्य को उच्चता प्रदान की और [[उर्दू]] गद्य-पद्य को परम्परा की शृंखलाओं से मुक्त कर एक नये साँचे में ढाला।'''
====अन्तिम क्रिया====
{{दाँयाबक्सा|पाठ=ग़ालिब शिया [[मुसलमान]] थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। इनकी मृत्यु के बाद ही [[आगरा]] से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘ज़ख़ीरा बालगोविन्द’ के [[मार्च]], 1869 के अंक में इनकी मृत्यु पर जो सम्पादकीय लेख छपा था और जो शायद इनके सम्बन्ध में लिखा सबसे पुराना और पहला लेख है, उससे तो एक नई बात मालूम होती है कि यह बहुत पहले चुपचाप ‘फ़्रीमैसन’ हो गए थे और लोगों के बहुत पूछने पर भी उसकी गोपनीयता की अन्त तक रक्षा करते रहे।|विचारक=}}
मृत्यु के बाद इनके मित्रों में इस बात को लेकर मतभेद हुआ कि शिया या सुन्नी, किस विधि से इनका मृतक संस्कार हो। ग़ालिब शिया थे, इसमें किसी को सन्देह की गुंजाइश न थी, पर नवाब ज़ियाउद्दीन और महमूद ख़ाँ ने सुन्नी विधि से ही सब क्रिया-कर्म कराया और जिस लोहारू ख़ानदान ने 1847 ई. में समाचार पत्रों में छपवाया था कि ग़ालिब से हमारा दूर का सम्बन्ध है, उसी ख़ानदान के नवाब ज़ियाउद्दीन ने सम्पूर्ण मृतक संस्कार करवाया और उनके शव को गौरव के साथ अपने वंश के क़ब्रिस्तान (जो चौसठ खम्भा के पास है) में अपने चचा के पास जगह दी।
इनकी मृत्यु पर बहुतों ने [[मरसिया|मरसिये]] लिखे, जिनमें हाली, मजरूह और सालिक के मरसिये मशहूर हैं। उनके समाधि स्तम्भ पर मजरूह का निम्नलिखित क़िता खुदा हुआ है-
<blockquote><poem>या हय्यि या क़य्यूम
रश्के उर्फ़ी व फ़ख्रे तालिब मर्द
असदउल्ला ख़ाने ग़ालिब मर्द
कल में ग़मों अन्दोह में बाख़ातिरे महजूँ
था तुर्बते उस्ताद पै बैठा हुआ ग़मनाक
देखा तो मुझे फ़िक्र में तारीख़ की ‘मजरूह’
हातिफ़ ने कहा-‘गंजे मआनी है तहेख़ाक’।</poem></blockquote>
मिर्ज़ा की मृत्यु का उनकी पत्नी तथा अन्य आश्रितों पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इसकी कल्पना मात्र की जा सकती है। मिर्ज़ा की ज़िन्दगी ज़्यादातर दु:खों में बीती। पारिवारिक सुख के लिए ये सदा ही तरसते रहे। सात बच्चे हुए-पुत्र और पुत्रियाँ। पर कोई भी पन्द्रह महीने से ज़्यादा नहीं जी पाया। पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला, जो जीवन की दम घोटने वाली घाटियों के बीच चलते हुए मनुष्यों को बल प्रदान करता है।
====उमराव बेगम====
मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान 'ग़ालिब' की मृत्यु के बाद उनकी विधवा उमराव बेगम पर जो विपत्तियाँ आई होंगी, उनकी कल्पना की जा सकती है। [[अंग्रेज़]] सरकार से मिलने वाली पेंशन, रामपुर का वज़ीफ़ा सब बन्द हो गया। ऋणदाताओं के तक़ाज़े से अन्त तक ग़ालिब परेशान रहे। अब वह बोझ भी इन पर आ पड़ा। मृत्यु के समय मिर्ज़ा पर 800 रुपये का क़र्ज़ था, जिसके लिए उन्होंने रामपुर दरबार से प्राथना की थी, पर अभी तक उसका कुछ न हुआ। [[1 अगस्त]], [[1869]] को उमराव बेगम ने नवाब रामपुर को निम्नलिखित पत्र भेजा-<br />
<blockquote>"जनाब आली! जिस रोज़ से मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ ने वफ़ात<ref>मृत्यु</ref> पाई है, तो यह आज़िज़ बेवा इस क़दर मसायब<ref>कष्ट</ref> में गिरफ़्तार है कि तहरीर के बाहर है। अव्वल तो यह मुसीबत है कि मिर्ज़ा साहब मरहूम आठ सौ रुपये क़र्ज़दार मरे, दूसरी मुसीबत यह है कि पेंशन अंग्रेज़ी मस्दूद<ref>बन्द</ref> हुई, तीसरी यह कि तनख़्वाह सौ रुपये माहवार, जो आप अज़राहे क़द्रदानी के मिर्ज़ा मरहूम को इरसाल फ़र्माते<ref>भेजते थे</ref> थे, वह भी एक लख़्त मौक़ूफ़<ref>स्थगित</ref> हुई। अब तक क़र्ज़ लेकर औक़ात बसर की। अब क़र्ज़ भी नहीं मिलता। नौबत फ़ाक़ाक़शी<ref>भूखों रहना</ref> की पहुँची। अब दुआगो की यह तमन्ना है कि ऐसी परवरिश मुझ ज़ईफ़ा<ref>वृद्धा</ref> की हो जाए कि मिर्ज़ा मरहूम हक़े अबाद से बरी हो जायें कि यह सख़्त अज़ाब है। अगर हुज़ूर सूरते अदाए क़र्ज़ फ़रमावें तो कमाले सबाबे अज़ीम<ref>परम पुण्य</ref> होगा।" पेंशन मेरी दस रुपये अंग्रेज़ करता है<ref>उमराव बेगम ने अंग्रेज़ों के यहाँ दर्ख़ास्त दी थी कि मिर्ज़ा साहब की पेंशन हुसेन अली ख़ाँ के नाम कर दी जाए। डिप्टी कमिश्नर ने इसकी सिफ़ारिश की पर कमिश्नर ने आदेश दिया कि ऐसा नहीं हो सकता; हाँ बेबा को दस रुपये महावार वज़ीफ़ा मिल सकता है, बशर्ते कि वह कचहरी में हाज़िर हों। बेगम ग़ालिब ने यह शर्त क़बूल न की</ref>। बशर्तें की मैं कचहरी में हाज़िर होऊँ और मेरा कचहरी में जाना हर्मिज़ न होगा, गो फ़ाक़ों ही मर जाऊँ। क्या मैं अपने पिता और चचा और शौहर का नाम रोशन करूँ। और जो इज़्ज़त और रियासत मेरे चचा की और हुर्मत मेरे वालिद की और शौहर की आगे ख़ासोआम के थी, हुज़ूर पर सब रोशन है।"
</blockquote>
इस करुणाजनक अर्ज़ी पर भी नवाब रामपुर का दिल नहीं पसीजा। [[2 सितम्बर]], 1869 को बेचारी विधवा ने दोबारा लिखा। इस पर 9 सितम्बर को नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ को हुक्म हुआ कि जाँच करके रिपोर्ट करें। [[30 अक्टूबर]] को नवाब ने हुक्म दिया कि उमराव बेगम को 600 रुपये की हुण्डी भेजी जाए।
पता नहीं चलता कि यह 600 रुपये की हुण्डी किस हिसाब से भेजी गई, न ही यह पता चलता है कि वह भेजी भी गई या नहीं और भेजी भी गई तो उमराव बेगम को मिली या नहीं। इन दु:ख की घड़ियों में उमराव बेगम के चचेरे भाई और मिर्ज़ा के शिष्य नवाब ज़ियाउद्दीन ख़ाँ ने मदद की और 25 या 50 रुपये मासिक वृत्ति भी नियत कर दी, जो उन्हें मृत्यु तक मिलती रही। नवाब ज़ियाउद्दीन आजीवन और जीवानान्तर भी ग़ालिब के सहायक रहे। जब ग़दर में पेंशन बन्द हो गई थी, तब भी 50 रुपये माहवार उमराव बेगम को देते रहे। पर उमराव बेगम वैधव्य का दु:ख झेलने के लिए ज़्यादा दिन ज़िन्दा न रहीं और '''शौहर की मृत्यु के ठीक एक वर्ष बाद [[4 फ़रवरी]], [[1870]] को, दिन के 10-11 बजे परलोक वासिनी हो गईं।'''
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*[http://www.milansagar.com/kobi-mirzaghalib.html मिर्ज़ा ग़ालिब]
*[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/urdu/galibletters/ ग़ालिब के ख़त]
*[http://www.bbc.co.uk/hindi/specials/125_ghalib_pix/index.shtml महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब]
*[http://gunaahgar.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html मिर्ज़ा ग़ालिब हाज़िर हो]
*[http://mirzagalibatribute.blogspot.com/ मिर्ज़ा ग़ालिब]
*[http://podcast.hindyugm.com/2008/10/mirza-ghalib-tribute-shishir-parthkie.html उस्तादों के उस्ताद शायर मिर्जा ग़ालिब]
*[http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00ghalib/ghazal_index.html?nagari दीवान ए ग़ालिब]
*[http://divan-e-ghalib.blogspot.com/ मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी]
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*[http://www.mirza-ghalib.org/ Mirza Ghalib Official Website]
*[http://www.ghalibinstitute.com/ Ghalib Institute]
*[http://shayari.co.in/mirza-ghalib Mirza Ghalib]
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*[http://ghazal.tripod.com/mirza_ghalib.html Mirza Ghalib]
*[http://gdhar.com/2005/06/26/an-ode-to-mirza-ghalibs-haveli/ Mirza Ghalib’s Haveli]
*[http://www.urdustan.com/adeeb/ghalib.htm Mirza Ghalib (1796-1869)]
*[http://www.thedelhiwalla.com/2011/02/20/the-biographical-dictionary-of-delhi-%E2%80%93-mirza-ghalib-b-agra-1797-1869/ Mirza Ghalib, b. Agra, 1797-1869]
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*[http://www.muskurahat.com/music/ghazals/mirza-ghalib-collections.asp मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें डाउनलोड करें]
*[http://www.youtube.com/watch?v=ieMOrUAEUmc बाज़ीचा ए अफ़्ताल है दुनिया मेरे आगे]
*[http://www.youtube.com/watch?v=Zf6nLP1Zdm4 कोई उम्मीद भर नहीं आती]
*[http://www.youtube.com/watch?v=B-AfgaHi848 उनके देखे से जो]
*[http://www.youtube.com/watch?v=Cjx3Hk8qYXY हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी...]
*[http://www.youtube.com/watch?v=onq69_3ISBI आह को चाहिए]
*[http://www.youtube.com/watch?v=PUPc87mIsfc नुक़्ताची है ग़में दिल]
*[http://www.youtube.com/watch?v=M6pZMQKBS6U दिल-ए-नादान तुझे]
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==संबंधित लेख==
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12:46, 21 अक्टूबर 2016 के समय का अवतरण