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'''अपरिणत प्रसव''' जब गर्भ 28 से 40 सप्ताह के बीच बाहर आ जाता है तब उसे अपरिणत प्रसव (प्रिमैच्योर लेबर) कहते हैं। 28 सप्ताह और उससे अधिक समय तक गर्भाशय में स्थित भ्रूण में जीवित रहने की क्षमता मानी जाती है। अमरीकन ऐकैडेमी ऑव पीडऐट्रिक्स ने सन् 1935 में यह नियम बनाया था कि साढ़े पाँच पाउंड या उससे कम भार का नवजात शिशु अपरिणत शिशु माना जाए, चाहे गर्भकाल कितने हीे समय का क्यों न | '''अपरिणत प्रसव''' अर्थात जब गर्भ 28 से 40 [[सप्ताह]] के बीच बाहर आ जाता है, तब उसे अपरिणत प्रसव (प्रिमैच्योर लेबर) कहते हैं। 28 सप्ताह और उससे अधिक समय तक गर्भाशय में स्थित भ्रूण में जीवित रहने की क्षमता मानी जाती है। अमरीकन ऐकैडेमी ऑव पीडऐट्रिक्स ने सन् [[1935]] में यह नियम बनाया था कि साढ़े पाँच पाउंड या उससे कम भार का नवजात शिशु अपरिणत शिशु माना जाए, चाहे गर्भकाल कितने हीे समय का क्यों न हो। दि लीग आव नेशंस की इंटरनैशनल मेडिकल कमेटी ने भी यह नियम स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार के प्रसव लगभग दस प्रतिशत होते हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=139 |url=}}</ref> | ||
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#गर्भावस्था के कुछ विशेष रोग, जैसे- गर्भावस्थीय विषाक्तता (टॉक्सोमिया ऑव प्रेगनैन्सी), प्रसवपूर्व रुधिरस्राव। | |||
#संक्रामक रोग, जैसे- गोणिकार्ति (पाइलाइटीज), इन्फलुएंजा, न्यूमोनिया, उंडुकार्ति (ऐपेंडिसाइटिस), पिताशयार्ति (कोलिसिस्टाइटिस), माता की विकृत मनोस्थिति, शरीर में [[रक्त]] की अत्यधिक कमी, इत्यादि। | |||
#गर्भाशय में कई भ्रूणों का होना और जलात्यय (हाईड्रेम्नयास)। | |||
#लगभग 50 प्रतिशत अपरिणत प्रसवों में कोई विशेष कारण विदित नहीं होता। | |||
==प्रबंध== | |||
पूर्वोक्त कारणों के अनुसार प्रसववेदना प्रारंभ होते ही उपयुक्त चिकित्सा होनी चाहिए, और निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए- | |||
== प्रबंध == | #गर्भकाल में समय समय पर डाक्टरी परीक्षा करानी चाहिए और कोई रोग होने पर उसका उचित उपचार होना चाहिए। | ||
पूर्वोक्त कारणों के अनुसार प्रसववेदना प्रारंभ होते ही उपयुक्त चिकित्सा होनी चाहिए, और निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए | #रक्तस्राव होने पर उपयुक्त उपचार से अपरणित प्रसव रोका जा सकता है। | ||
#प्रसव ऐसे चिकित्सालयों में होना चाहिए जहाँ अपरिणत शिशु के पालन का उचित प्रबंध हो। | |||
#प्रसवकाल में उचित चिकित्सा न मिलने से बहुत से बालक जन्म के समय, या जन्मते ही मर जाते हैं। इसलिए प्रसवकाल में कुछ उचित नियमों का पालन आवश्यक है, जैसे गर्भाशय की झिल्ली को अधिक काल तक फूटने से बचाना, झिल्ली फूटने पर नाल को गर्भाशय के बाहर निकलने से रोकना ऐसी औषधियों का प्रयोग न करना जो बालक के लिए हानिप्रद हों, जैसे अफीम या बारबिट्युरेट्स। | |||
#प्रसव काल में माता को विटामिन 'के' 10 मिलीग्राम चार चार घंटे पर देते रहना और बालक को जन्मते ही विटामिन 'के' 10 मिलीग्राम सुई द्वारा पेशी में लगाना। | |||
#प्रसव के समय बालक का सिर बाहर निकालने के लिए किसी प्रकार के अस्त्र का उपयोग न करना। | |||
#बच्चे के सिर की रक्षा के हेतु संधानिका छेदन (एपीजियोटामी) करना। कुछ रोगों में, जहाँ [[माता]] की रक्षा के लिए गर्भ का अंत करना आवश्यक समझा जाता है, अपरिणत प्रसव करवाना आवश्यक होता है। | |||
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अपरिणत-प्रसव-वेदना उन्पन्न करने की विधियाँ दो प्रकार की है | #संध्या समय दो आउंस अंडी का तेल (कैस्टर ऑयल) पिलाकर तीन घंटे बाद एनीमा लगाना। | ||
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08:02, 4 नवम्बर 2022 के समय का अवतरण
अपरिणत प्रसव अर्थात जब गर्भ 28 से 40 सप्ताह के बीच बाहर आ जाता है, तब उसे अपरिणत प्रसव (प्रिमैच्योर लेबर) कहते हैं। 28 सप्ताह और उससे अधिक समय तक गर्भाशय में स्थित भ्रूण में जीवित रहने की क्षमता मानी जाती है। अमरीकन ऐकैडेमी ऑव पीडऐट्रिक्स ने सन् 1935 में यह नियम बनाया था कि साढ़े पाँच पाउंड या उससे कम भार का नवजात शिशु अपरिणत शिशु माना जाए, चाहे गर्भकाल कितने हीे समय का क्यों न हो। दि लीग आव नेशंस की इंटरनैशनल मेडिकल कमेटी ने भी यह नियम स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार के प्रसव लगभग दस प्रतिशत होते हैं।[1]
कारण
- वे रोग जो गर्भावस्था में माता के स्वास्थ्य के लिए आपत्तिजनक हैं, जैसे जीर्ण वृक्क कोप (क्रॉनिक नफ्रोइटिस), गुर्दे की बीमारी, उच्च रक्तचाप (हाई ब्लड प्रेशर), मधुमेह (डायाबिटीज़) और उपदंश (सिफिलिस)।
- गर्भावस्था के कुछ विशेष रोग, जैसे- गर्भावस्थीय विषाक्तता (टॉक्सोमिया ऑव प्रेगनैन्सी), प्रसवपूर्व रुधिरस्राव।
- संक्रामक रोग, जैसे- गोणिकार्ति (पाइलाइटीज), इन्फलुएंजा, न्यूमोनिया, उंडुकार्ति (ऐपेंडिसाइटिस), पिताशयार्ति (कोलिसिस्टाइटिस), माता की विकृत मनोस्थिति, शरीर में रक्त की अत्यधिक कमी, इत्यादि।
- गर्भाशय में कई भ्रूणों का होना और जलात्यय (हाईड्रेम्नयास)।
- लगभग 50 प्रतिशत अपरिणत प्रसवों में कोई विशेष कारण विदित नहीं होता।
प्रबंध
पूर्वोक्त कारणों के अनुसार प्रसववेदना प्रारंभ होते ही उपयुक्त चिकित्सा होनी चाहिए, और निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
- गर्भकाल में समय समय पर डाक्टरी परीक्षा करानी चाहिए और कोई रोग होने पर उसका उचित उपचार होना चाहिए।
- रक्तस्राव होने पर उपयुक्त उपचार से अपरणित प्रसव रोका जा सकता है।
- प्रसव ऐसे चिकित्सालयों में होना चाहिए जहाँ अपरिणत शिशु के पालन का उचित प्रबंध हो।
- प्रसवकाल में उचित चिकित्सा न मिलने से बहुत से बालक जन्म के समय, या जन्मते ही मर जाते हैं। इसलिए प्रसवकाल में कुछ उचित नियमों का पालन आवश्यक है, जैसे गर्भाशय की झिल्ली को अधिक काल तक फूटने से बचाना, झिल्ली फूटने पर नाल को गर्भाशय के बाहर निकलने से रोकना ऐसी औषधियों का प्रयोग न करना जो बालक के लिए हानिप्रद हों, जैसे अफीम या बारबिट्युरेट्स।
- प्रसव काल में माता को विटामिन 'के' 10 मिलीग्राम चार चार घंटे पर देते रहना और बालक को जन्मते ही विटामिन 'के' 10 मिलीग्राम सुई द्वारा पेशी में लगाना।
- प्रसव के समय बालक का सिर बाहर निकालने के लिए किसी प्रकार के अस्त्र का उपयोग न करना।
- बच्चे के सिर की रक्षा के हेतु संधानिका छेदन (एपीजियोटामी) करना। कुछ रोगों में, जहाँ माता की रक्षा के लिए गर्भ का अंत करना आवश्यक समझा जाता है, अपरिणत प्रसव करवाना आवश्यक होता है।
विधियाँ
अपरिणत-प्रसव-वेदना उन्पन्न करने की विधियाँ दो प्रकार की है-
- औषधियों का प्रयोग।
- गर्भाशय की झिल्ली को फोड़ना या गर्भाशय की ग्रीवा को लेमिनेरिया टेन्टस द्वारा फैलाना।
- संध्या समय दो आउंस अंडी का तेल (कैस्टर ऑयल) पिलाकर तीन घंटे बाद एनीमा लगाना।
- यदि प्रात:काल तक पीड़ा आरंभ न हो तो पिट्टियूटरी के दो दो यूनिट की सूई पेशी में आधे आधे घंटे पर छह बार लगाना।
- कुनैन (किवनीन) आदि का प्रयोग अब नहीं किया जाता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 139 |
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