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#REDIRECT [[ब्रज]]
'''ब्रज का परिचय'''<br />
 
==ब्रजमंडल==
ब्रज शब्द का काल-क्रमानुसार अर्थ विकास हुआ है। [[वेद|वेदों]] और [[रामायण]]-[[महाभारत]] के काल में जहाँ इसका प्रयोग ‘गोष्ठ’-'गो-स्थान’ जैसे लघु स्थल के लिये होता था। वहां पौराणिक काल में ‘गोप-बस्ती’ जैसे कुछ बड़े स्थान के लिये किया जाने लगा। उस समय तक यह शब्द प्रदेशवायी न होकर क्षेत्रवायी ही था।
 
भागवत में ‘ब्रज’ क्षेत्रवायी अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। वहां इसे एक छोटे ग्राम की संज्ञा दी गई है। उसमें ‘पुर’ से छोटा ‘ग्राम’ और उससे भी छोटी बस्ती को ‘[[ब्रज]]’ कहा गया है। 16वीं शताब्दी में ‘ब्रज’ प्रदेशवायी होकर ‘ब्रजमंडल’ हो गया और तव उसका आकार 84 कोस का माना जाने लगा था। उस समय [[मथुरा]] नगर ‘ब्रज’ में सम्मिलित नहीं माना जाता था। [[सूरदास]] तथा अन्य [[ब्रजभाषा]] कवियों ने ‘ब्रज’ और मथुरा का पृथक रुप में ही कथन किया है।
[[कृष्ण]] उपासक सम्प्रदायों और ब्रजभाषा कवियों के कारण जब ब्रज संस्कृति और ब्रजभाषा का क्षेत्र विस्तृत हुआ तब ब्रज का आकार भी सुविस्तृत हो गया था। उस समय मथुरा नगर ही नहीं, बल्कि उससे दूर-दूर के भू-भाग, जो ब्रज [[संस्कृति]] और ब्रज-भाषा से प्रभावित थे, व्रज अन्तर्गत मान लिये गये थे। वर्तमान काल में मथुरा नगर सहित मथुरा ज़िले का अधिकांश भाग तथा [[राजस्थान]] के डीग और कामवन का कुछ भाग, जहाँ से ब्रजयात्रा गुजरती है, ब्रज कहा जाता है। ब्रज संस्कृति और ब्रज भाषा का क्षेत्र और भी विस्तृत है।
 
उक्त समस्त भू-भाग के प्राचीन नाम, मधुबन, [[शूरसेन]], मधुरा, [[मधु|मधुपुरी]], मथुरा और मथुरा मंडल थे तथा आधुनिक नाम ब्रज या ब्रजमंडल हैं। यद्यपि इनके अर्थ-बोध और आकार-प्रकार में समय-समय पर अन्तर होता रहा है। इस भू-भाग की धार्मिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक और संस्कृतिक परंपरा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है।
=='व्रज' शब्द की परिभाषा==
[[चित्र:mathura-map.jpg|मथुरा का नक्शा<br /> Map Of Mathura|thumb|400px]]
__TOC__
श्री शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी कोश में 'व्रज' शब्द की परिभाषा-
===व्रज्- (भ्वादिगण परस्मैपद व्रजति)===
*1.जाना, चलना, प्रगति करना-नाविनीतर्व्रजद् धुर्यैः<ref>(मनुस्मृति 4 ।67)</ref>
*2.पधारना, पहुँचना, दर्शन करना-मामेकं शरणं ब्रज-भगवद्गीता<ref> (भगवद्गीता 18 ।66)</ref>
*3.विदा होना, सेवा से निवृत्त होना, पीछे हटना
*4.(समय का) बीतना-इयं व्रजति यामिनी त्यज नरेन्द्र निद्रारसम् विक्रमांकदेवचरित ।<ref>11 ।74, (यह धातु प्रायः गम् या धातु की भाँति प्रयुक्त होती है)</ref>
*अनु-
**1.बाद में जाना, अनुगमन करना<ref>मनुस्मृति 11 ।111  कु.7 ।38</ref>
**2.अभ्यास करना, सम्पन्न करना
**3.सहारा लेना,
*आ-आना, पहुँचना,
*परि-भिक्षु या साधु के रुप में इधर उधर घूमना, संन्यासी या परिव्राजक हो जाना,
*प्र-
**1.निर्वासित होना,
**2.संसारिक वासनाओं को छोड़ देना, चौथे आश्रम में प्रविष्ट होना, अर्थात् संन्यासी हो जाना<ref>मनु.6 ।38,8 ।363</ref>
 
===व्रजः-(व्रज्+क)===
*1.समुच्चय, संग्रह, रेवड़, समूह, नेत्रव्रजाःपौरजनस्य तस्मिन् विहाय सर्वान्नृपतीन्निपेतुः<ref>रघुवंश 6 ।7, 7 ।67, शिशुपालवध 6 ।6,14 ।33</ref>
*2.ग्वालों के रहने का स्थान
*3.गोष्ठ, गौशाला-शिशुपालवध 2 ।64
*4.आवास, विश्रामस्थल
*5.सड़क, मार्ग
*6.बादल,
*7.मथुरा के निकट एक ज़िला।
**सम॰-अग्ङना,
**युवति:-(स्त्री॰) व्रज में रहने वाली स्त्री, ग्वालन-भामी॰ 2|165,
**अजिरम-गोशाला,
**किशोर:-नाथ:, मोहन:, वर:, वल्ल्भ: कृष्ण के विशेषण।
 
==व्रजनम् (व्रज+ल्युट्)==
*1.घूमना, फिरना, यात्रा करना
*2.निर्वासन, देश निकाला
==व्रज्या (व्रज्+क्यप्+टाप्)==
*1.साधु या भिक्षु के रुप में इधर उधर घूमना,
*2.आक्रमण, हमला, प्रस्थान,
*3.खेड़, समुदाय, जनजाति या क़बीला, संम्प्रदाय,
*4.रंगभूमि, नाट्यशाला।
{|
|-
| style="background-color:#FFFCF0;border:1px solid black; padding:10px;" valign="top" |
प्रस्तुति- डा.चन्द्रकान्ता चौधरी<br />
|-
|}
 
==ब्रज क्षेत्र==
विस्तार से पढें ब्रज का [[पौराणिक इतिहास]]
ब्रज को यदि ब्रज-भाषा बोलने वाले क्षेत्र से परिभाषित करें तो यह बहुत विस्तृत क्षेत्र हो जाता है। इसमें पंजाब से महाराष्ट्र तक और राजस्थान से बिहार तक के लोग भी ब्रज भाषा के शब्दों का प्रयोग बोलचाल में प्रतिदिन करते हैं। कृष्ण से तो पूरा विश्व परिचित है। ऐसा लगता है कि ब्रज की सीमाऐं निर्धारित करने का कार्य आसान नहीं है, फिर भी ब्रज की सीमाऐं तो हैं ही और उनका निर्धारण भी किया गया है। पहले यह पता लगाऐं कि ब्रज शब्द आया कहाँ से और कितना पुराना है?
 
वर्तमान मथुरा तथा उसके आस-पास का प्रदेश, जिसे ब्रज कहा जाता है; प्राचीन काल में [[शूरसेन]] जनपद के नाम से प्रसिद्ध था। ई॰ सातवीं शती में जब चीनी यात्री [[हुएन-सांग]] यहाँ आया तब उसने लिखा कि मथुरा राज्य का विस्तार 5,000 ली (लगभग 833 मील) था। दक्षिण-पूर्व में [[मथुरा]] राज्य की सीमा जेजाकभुक्ति (जिझौती) की पश्चिमी सीमा से तथा दक्षिण-पश्चिम में मालव राज्य की उत्तरी सीमा से मिलती रही होगी। वर्तमान समय में [[ब्रज]] शब्द से साधारणतया मथुरा ज़िला और उसके आस-पास का भू भाग समझा जाता है। प्रदेश या जनपद के रूप में ब्रज या बृज शब्द अधिक प्राचीन नहीं है। शूरसेन जनपद की सीमाएं समय-समय पर बदलती रहीं। इसकी राजधानी [[मधु|मधुरा]] या मथुरा नगरी थी। कालांतर में मथुरा नाम से ही यह जनपद विख्यात हुआ।
 
वैदिक साहित्य में इसका प्रयोग प्राय: पशुओं के समूह, उनके चरने के स्थान (गोचर भूमि) या उनके बाड़े के अर्थ में मिलता है। [[रामायण]], [[महाभारत]] तथा परवर्ती [[संस्कृत]] साहित्य में भी प्राय: इन्हीं अर्थों में ब्रज का शब्द मिलता है। [[पुराण|पुराणों]] में कहीं-कहीं स्थान के अर्थ में ब्रज का प्रयोग आया है, और वह भी संभवत: [[गोकुल]] के लिये। ऐसा प्रतीत होता है कि जनपद या प्रदेश के अर्थ में ब्रज का व्यापक प्रयोग ईस्वी चौदहवीं शती के बाद से प्रारम्भ हुआ। उस समय मथुरा प्रदेश में [[कृष्ण-भक्ति]] की एक नई लहर उठी, जिसे जनसाधारण तक पहुँचाने के लिये यहाँ की शौरसेनी प्राकृत से एक कोमल-कांत भाषा का आविर्भाव हुआ। इसी समय के लगभग [[मथुरा]] जनपद की, जिसमें अनेक वन उपवन एवं पशुओं के लिये बड़े ब्रज या चरागाह थे, ब्रज (भाषा में ब्रज) संज्ञा प्रचलित हुई होगी।
[[चित्र:gokul-ghat.jpg|गोकुल घाट, [[गोकुल]]<br /> Gokul Ghat, Gokul|thumb|250px]]
[[ब्रज]] प्रदेश में आविर्भूत नई भाषा का नाम भी स्वभावत: [[ब्रजभाषा]] रखा गया। इस कोमल भाषा के माध्यम द्वारा ब्रज ने उस साहित्य की सृष्टि की जिसने अपने माधुर्य-रस से भारत के एक बड़े भाग को आप्लावित कर दिया। इस वर्णन से पता चलता है कि सातवीं शती में मथुरा राज्य के अन्तर्गत वर्तमान मथुरा-[[आगरा]] जिलों के अतिरिक्त आधुनिक [[भरतपुर]] तथा [[धौलपुर]] ज़िले और ऊपर मध्यभारत का उत्तरी लगभग आधा भाग रहा होगा। प्राचीन [[शूरसेन]] या मथुरा जनपद का प्रारम्भ में जितना विस्तार था उसमें [[हुएन-सांग]] के समय तक क्या हेर-फेर होते गये, इसके संबंध में हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते, क्योंकि हमें प्राचीन साहित्य आदि में ऐसे प्रमाण नहीं मिलते जिनके आधार पर विभिन्न कालों में इस जनपद की लम्बाई-चौड़ाई का ठीक पता लग सके।
===आधुनिक सीमाएं===
सातवीं शती के बाद से मथुरा राज्य की सीमाएं घटती गईं। इसका प्रधान कारण समीप के [[कन्नौज]] राज्य की उन्नति थी, जिसमें मथुरा तथा अन्य पड़ोसी राज्यों के बढ़े भू-भाग सम्मिलित हो गये। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से जो कुछ पता चलता है वह यह कि शूरसेन या मथुरा प्रदेश के उत्तर में [[कुरुदेश]] (आधुनिक दिल्ली और उसके आस-पास का प्रदेश) था, जिसकी राजधानी [[इन्द्रप्रस्थ]] तथा [[हस्तिनापुर]] थी। दक्षिण में [[चेदि|चेदि राज्य]] (आधुनिक [[बुंदेलखंड]] तथा उसके समीप का कुछ भाग) था, जिसकी राजधानी का नाम था सूक्तिमती नगर। पूर्व में [[पंचाल]] राज्य (आधुनिक रुहेलखंड) था, जो दो भागों में बँटा हुआ था - उत्तर पंचाल तथा दक्षिण पंचाल। उत्तर वाले राज्य की राजधानी [[अहिच्छत्र]] (बरेली ज़िले में वर्तमान रामनगर) और दक्षिण वाले की [[कांपिल्य]] (आधुनिक कंपिल, ज़िला फर्रूख़ाबाद) थी। शूरसेन के पश्चिम वाला जनपद [[मत्स्य]] (आधुनिक अलवर रियासत तथा [[जयपुर]] का पूर्वी भाग) था। इसकी राजधानी [[विराट नगर]] (आधुनिक वैराट, जयपुर में) थी।
 
==ब्रज नामकरण और उसका अभिप्राय==
[[चित्र:Kesi-ghat.jpg|[[केशी घाट वृन्दावन|केशी घाट]], [[वृन्दावन]]<br /> Keshi Ghat, Vrindavan|thumb|250px|left]]
कोशकारों ने ब्रज के तीन अर्थ बतलाये हैं - (गायों का खिरक), मार्ग और वृंद (झुंड) - गोष्ठाध्वनिवहा व्रज:<ref>(अमर कोश) 3-3-30</ref>
इससे भी गायों से संबंधित स्थान का ही बोध होता है। [[सायण]] ने सामान्यत: 'व्रज' का अर्थ गोष्ठ किया है। गोष्ठ के दो प्रकार हैं :-
'खिरक`- वह स्थान जहाँ गायें, बैल, बछड़े आदि को बाँधा जाता है।
गोचर भूमि- जहाँ गायें चरती हैं।
इन सब से भी गायों के स्थान का ही बोध होता है। इस संस्कृत शब्द `व्रज` से ब्रज भाषा का शब्द `ब्रज' बना है।
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पौराणिक साहित्य में ब्रज (व्रज) शब्द गोशाला, गो-स्थान, गोचर- भूमि के अर्थों में प्रयुक्त हुआ, अथवा गायों के खिरक (बाड़ा) के अर्थ में आया है। `यं त्वां जनासो भूमि अथसंचरन्ति गाव उष्णमिव व्रजं यविष्ठ।' (10 - 4 - 2) अर्थात - शीत से पीड़ित गायें उष्णता प्राप्ति के लिए इन गोष्ठों में प्रवेश करती हैं।`व्यू व्रजस्य तमसो द्वारोच्छन्तीरव्रञ्छुचय: पावका ।(4 - 51 - 2) अर्थात - प्रज्वलित अग्नि 'व्रज' के द्वारों को खोलती है।
[[यजुर्वेद]] में गायों के चरने के स्थान को `व्रज' और गोशाला को गोष्ठ कहा गया है - `व्रजं गच्छ गोष्ठान्`<ref>(यजुर्वेद 1 - 25)</ref> शुक्ल यजुर्वेद में सुन्दर सींगो वाली गायों के विचरण-स्थान से `व्रज' का संकेत मिलता है । [[अथर्ववेद]]' में एक स्थान पर `व्रज' स्पष्टत: गोष्ठ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। `अयं घासों अयं व्रज इह वत्सा निवध्नीय:'<ref>अथर्ववेद (4 - 38 - 7)</ref> अर्थात यह घास है और यह व्रज है जहाँ हम बछडी को बाँधते हैं। उसी वेद में एक संपूर्ण सूक्त<ref>अथर्ववेद(2 - 26 - 1)</ref> ही गोशालाओं से संबंधित है।
श्रीमद् [[भागवत]] और [[हरिवंश पुराण]] में `व्रज' शब्द का प्रयोग गोप-बस्ती के अर्थ में ही हुआ है, - `व्रजे वसन् किमकसेन् मधुपर्या च केशव:'<ref>(भागवत् 10 -1-10)</ref> तद व्रजस्थानमधिकम् शुभे काननावृतम्<ref>(हरिवंश, विष्णु पर्व 6 - 30)</ref> [[स्कंद पुराण]] में महर्षि शांडिल्य ने `व्रज' शब्द का अर्थ `व्याप्ति' करते हुए उसे व्यापक ब्रह्म का रूप कहा है,<ref>(वैष्णव खंड भागवत माहात्म्य, 1 -16 - 20)</ref> किंतु यह, अर्थ व्रज की आध्यात्मिकता से संबंधित है।
कुछ विद्वानों ने निम्न संभावनाएं भी प्रकट की हैं -
 
[[बौद्ध]] काल में [[मथुरा]] के निकट `वेरंज' नामक एक स्थान था। कुछ विद्वानों की प्रार्थना पर [[गौतम बुद्ध]] वहां पधारे थे। वह स्थान वेरंज ही कदाचित कालांतर में `विरज' या `व्रज' के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
[[यमुना नदी|यमुना]] को `विरजा' भी कहते हैं। विरजा का क्षेत्र होने से मथुरा मंडल `विरज' या `व्रज` कहा जाने लगा।
[[मथुरा]] के युद्धोपरांत जब [[द्वारिका]] नष्ट हो गई, तब श्री[[कृष्ण]] के प्रपौत्र वज्र([[वज्रनाभ]]) मथुरा के राजा हुए थे। उनके नाम पर मथुरा मंडल भी 'वज्र प्रदेश` या `व्रज प्रदेश' कहा जाने लगा।
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नामकरण से संबंधित उक्त संभावनाओं का भाषा विज्ञान आदि की दृष्टि से कोई प्रमाणिक आधार नहीं है, अत: उनमें से किसी को भी स्वीकार करना संभव नहीं है। [[वेद|वेदों]] से लेकर [[पुराण|पुराणों]] तक ब्रज का संबंध गायों से रहा है; चाहे वह गायों के बाँधने का बाड़ा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर - भूमि हो और चाहे गोप - बस्ती हो। भागवत कार की दृष्टि में गोष्ठ, [[गोकुल]] और [[ब्रज]] समानार्थक शब्द हैं।
 
[[भागवत]] के आधार पर [[सूरदास]] आदि कवियों की रचनाओं में भी ब्रज इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है; इसलिए `वेरज', `विरजा' और `वज्र` से ब्रज का संबंध जोड़ना समीचीन नहीं है। मथुरा और उसका निकटवर्ती भू-भाग प्रागैतिहासिक काल से ही अपने सघन वनों, विस्तृत चरागाहों, सुंदर गोष्ठों ओर दुधारू गायों के लिए प्रसिद्ध रहा है। भगवान् श्री [[कृष्ण]] का जन्म यद्यपि मथुरा में हुआ था, तथापि राजनैतिक कारणों से उन्हें गुप्त रीति से [[यमुना नदी|यमुना]] पार की गोप-बस्ती (गोकुल) में भेज दिया गया था। उनका शैशव एवं बाल्यकाल गोपराज नंद और उनकी पत्नी [[यशोदा]] के लालन-पालन में बीता था। उनका सान्निध्य गोपों, गोपियों एवं गो-धन के साथ रहा था। वस्तुत: वेदों से लेकर पुराणों तक ब्रज का संबंध अधिकतर गायों से रहा है; चाहे वह गायों के चरने की `गोचर भूमि' हो चाहे उन्हें बाँधने का खिरक (बाड़ा) हो, चाहे गोशाला हो, और चाहे गोप-बस्ती हो। भागवत्कार की दृष्टि में व्रज, गोष्ठ ओर गोकुल समानार्थक शब्द हैं।
==ब्रज चौरासी कोस की यात्रा==
*[[वराह पुराण]] कहता है कि [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर 66 अरब तीर्थ हैं और वे सभी चातुर्मास में [[ब्रज]] में आकर निवास करते हैं। यही वजह है कि व्रज यात्रा करने वाले इन दिनों यहाँ खिंचे चले आते हैं।  हज़ारों श्रद्धालु ब्रज के वनों में डेरा डाले रहते हैं।
*ब्रजभूमि की यह पौराणिक यात्रा हज़ारों साल पुरानी है। चालीस दिन में पूरी होने वाली ब्रज चौरासी कोस यात्रा का उल्लेख [[वेद]]-[[पुराण]] व [[श्रुति ग्रंथसंहिता]] में भी है। [[कृष्ण]] की बाल क्रीड़ाओं से ही नहीं, [[सत युग]] में भक्त [[ध्रुव]] ने भी यही आकर [[नारद]] जी से गुरु मन्त्र ले अखंड तपस्या की व [[ब्रज]] परिक्रमा की थी।
*[[त्रेता युग]] में प्रभु [[राम]] के लघु भ्राता [[शत्रुघ्न]] ने मधु पुत्र लवणासुर को मार कर ब्रज परिक्रमा की थी। गली बारी स्थित शत्रुघ्न मंदिर यात्रा मार्ग में अति महत्व का माना जाता है।
*[[द्वापर युग]] में [[उद्धव]] जी ने [[गोपी|गोपियों]] के साथ ब्रज परिक्रमा की।
*[[कलि युग]] में [[जैन]] और [[बौद्ध]] धर्मों के [[स्तूप]] बैल्य संघाराम आदि स्थलों के सांख्य इस परियात्रा की पुष्टि करते हैं।
*14वीं शताब्दी में जैन धर्माचार्य जिन प्रभु शूरी की में ब्रज यात्रा का उल्लेख आता है।
*15वीं शताब्दी में [[माध्व सम्प्रदाय]] के आचार्य मघवेंद्र पुरी महाराज की यात्रा का वर्णन है तो
*16वीं शताब्दी में महाप्रभु [[वल्लभाचार्य]], गोस्वामी [[विट्ठलनाथ]], चैतन्य मत केसरी  [[चैतन्य महाप्रभु]], [[रूप गोस्वामी]], [[सनातन गोस्वामी]], नारायण भट्ट, [[निम्बार्क संप्रदाय]] के चतुरानागा  आदि ने ब्रज यात्रा की थी।
 
==परिक्रमा मार्ग==
इसी यात्रा में [[मथुरा]] की अंतरग्रही परिक्रमा भी शामिल है। मथुरा से चलकर यात्रा सबसे पहले भक्त [[ध्रुव]] की तपोस्थली
#[[मधुवन|मधुवन]] पहुँचती है। यहां से
#[[तालवन|तालवन]],
#[[कुमुदवन|कुमुदवन]],
#[[शांतनु कुण्ड|शांतनु कुण्ड]]
#सतोहा,
#[[बहुलावन|बहुलावन]],
#[[राधाकुण्ड गोवर्धन|राधा-कृष्ण कुण्ड]],
#[[गोवर्धन]]
#[[काम्यवन|काम्यक वन]],
#संच्दर सरोवर,
#[[जतीपुरा|जतीपुरा]],
#[[डीग भरतपुर|डीग]] का लक्ष्मण मंदिर,
#साक्षी गोपाल मंदिर व
#जल महल,
#[[कुमुदवन|कमोद वन]],
#[[चरणपहाड़ी|चरन पहाड़ी कुण्ड]],
#[[काम्यवन]],
#[[बरसाना]],
#[[नंदगांव]],
#[[जावट ग्राम|जावट]],
#[[कोकिलावन|कोकिलावन]],
#[[कोसी|कोसी]],
#[[शेरगढ|शेरगढ]],
#[[चीर घाट|चीर घाट]],
#नौहझील,
#[[भद्रवन|श्री भद्रवन]],
#[[भांडीरवन]],
#[[बेलवन]],
#[[राया|राया वन]], यहां का
#गोपाल कुण्ड,
#कबीर कुण्ड,
#भोयी कुण्ड,
#ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर,
#[[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी]],
#[[महावन]],
#[[ब्रह्माण्ड घाट|ब्रह्मांड घाट]],
#[[चिंताहरण महादेव]],
#[[गोकुल]],
#[[लोहवन|लोहवन]],
#[[वृन्दावन]] का मार्ग में तमाम पौराणिक स्थल हैं।
 
==दर्शनीय स्थल==
ब्रज चौरासी कोस यात्रा में दर्शनीय स्थलों की भरमार है। [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार उनकी उपस्थिति अब कहीं-कहीं रह गयी है। प्राचीन उल्लेख के अनुसार यात्रा मार्ग में
*12 वन,
*24 उपवन,
*चार कुंज,
*चार निकुंज,
*चार वनखंडी,
*चार ओखर,
*चार पोखर,
*365 कुण्ड,
*चार सरोवर,
*दस कूप,
*चार बावरी,
*चार तट,
*चार वट वृक्ष,
*पांच पहाड़,
*चार झूला,
*33 स्थल रास लीला के तो हैं हीं, इनके अलावा कृष्णकालीन अन्य स्थल भी हैं। चौरासी कोस यात्रा मार्ग [[मथुरा]] में ही नहीं, [[अलीगढ़]], [[भरतपुर]], [[गुड़गांव]], [[फरीदाबाद]] की सीमा तक में पड़ता है, लेकिन इसका अस्सी फीसदी हिस्सा मथुरा में है। 
36 नियमों का नित्य पालन
ब्रज यात्रा के अपने नियम हैं इसमें शामिल होने वालों के प्रतिदिन 36 नियमों का कड़ाई से पालन करना होता है, इनमें प्रमुख हैं धरती पर सोना, नित्य स्नान, ब्रह्मचर्य पालन, जूते-चप्पल का त्याग, नित्य देव पूजा, कर्थसंकीर्तन, फलाहार, क्रोध, मिथ्या, लोभ, मोह व अन्य दुर्गुणों का त्याग प्रमुख है।
==ब्रज का विशेष भोजन==
ब्रज का विशेष भोजन जो दालबाटी चूरमा के नाम से जाना जाता है यह ब्रजवासियों का विशेष भोजन है। समारोह, उत्सवों, और सैर सपाटों एवं विशेष अवसरों पर यह भोजन तैयार किया जाता है और लोग इसका आनन्द लेते हैं। यह भोजन पूरी तरह से देशी घी में तैयार होता है। इसके अलावा मिस्सी रोटी (गुड़चनी), मालपुआ, आदि भी बहुतायत में खाया जाता है।
==ब्रज की वेशभूषा==
परम्परागत रूप से धार्मिकता और सादगी [[ब्रज]] की जीवनशैली का अंग है। बुजुर्गों में पुरुषों को श्वेत धोती–कुर्ता कंधे पर गमछा या शाल और सर पर पगड़ी तथा नारियों को लहंगा–चुनरी अथवा साड़ी ब्लाउज सहित बच्चों को झंगा-झंगली, झबला पहनावों में सामान्य रूप से देखा जाता है। सर्दियों में रूई की बण्डी, खादी के बन्द गले का कोट, सदरी और ऊनी स्वेटर भी परम्परागत पुरुषों के पहनावे हैं। अधिक सर्दी के दिनों में पुरुष लोई अथवा कम्बल भी ओढ़ते हैं। महिलायें स्वेटर पहनने के अलावा शॉल ओढ़ती हैं। पैरों में सामान्यत: जूते, चप्पल पहने जाते हैं। आधुनिकता के दौर में युवक जीन्स, पेन्ट–शर्ट, सूट और युवतियों पर मिडी, सलवार सूट, टी–शर्ट आदि आधुनिक पहनावों का असर है। साधुओं की वेशभूषा में सामान्यत: केसरिया, श्वेत अथवा पीत वस्त्रों का चलन है। सर्दी के दिनों में ये गर्म कपड़ों का भी प्रयोग करते हैं और पैरों में खड़ाऊ अथवा कन्तान की जूती पहनते हैं।
==ब्रजभाषा==
ब्रजभाषा मूलत: ब्रजक्षेत्र की बोली है। विक्रम की 13वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी तक भारत में साहित्यिक भाषा रहने के कारण ब्रज की इस जनपदीय बोली ने अपने विकास के साथ  भाषा नाम प्राप्त किया और ब्रजभाषा नाम से जानी जाने लगी। शुद्ध रूप में यह आज भी [[मथुरा]], [[आगरा]], [[धौलपुर]] और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा भी कह सकते हैं। प्रारम्भ में ब्रजभाषा में ही काव्य रचना हुई। [[भक्तिकाल]] के कवियों ने अपनी रचनाएं ब्रजभाषा में ही लिखी हैं जिनमें [[सूरदास]], [[रहीम]], [[रसखान]], [[बिहारी]], [[केशव]], [[घनानन्द]] आदि कवि प्रमुख हैं। हिन्दी फिल्मों और फिल्मी गीतों में भी ब्रजभाषा के शब्दों का बहुत प्रयोग होता है। आधुनिक ब्रजभाषा 1 करोड़ 23 लाख जनता के द्वारा बोली जाती है और लगभग 38,000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली हुई है।
 
==ब्रजभाषा का विस्तार==
शुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी मथुरा, अलीगढ़, आगरा, [[भरतपुर]] और धौलपुर जिलों में बोली जाती है। ब्रजभाषा का कुछ मिश्रित रुप [[जयपुर]] राज्य के पूर्वी भाग तथा बुलंदशहर, मैनपुरी, एटा, बरेली और बदायूं जिलों तक बोला जाता है।
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ग्रिर्यसन महोदय ने अपने भाषा सर्वे में पीलीभीत, शाहजहाँपुर, फर्रूखाबाद, हरदोई, इटावा तथा कानपुर की बोली को कन्नौजी नाम दिया है, किन्तु वास्तव में यहाँ की बोली मैनपुरी, एटा बरेली और बदायूं की बोली से भिन्न नहीं हैं। अधिक से अधिक हम इन सब जिलों की बोली को 'पूर्वी ब्रज' कह सकते हैं। सच तो यह है कि बुन्देलखंड की बुन्देली बोली भी ब्रजभाषा का ही रुपान्तरण है। बुन्देली 'दक्षिणी ब्रज' कहला सकती है। <balloon title="(ब्रजभाषा व्याकरण, (प्रथम संस्करण 1937 ई.) पृ. 13)" style="color:blue">*</balloon>
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डॉ. गुलाबराय के अनुसार ब्रजभाषा का क्षेत्र निम्न प्रकार है- मथुरा, आगरा, अलीगढ़ जिलों को केन्द्र मानकर उत्तर में यह अलमोड़ा, नैनीताल और बिजनौर जिलों तक फैली है। दक्षिण में धौलपुर, [[ग्वालियर]] तक, पूर्व में [[कन्नौज]] और कानपुर जिलों तक, पश्चिम में भरतपुर और गुडगाँव जिलों तक इसकी सीमा है।
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भाषायी सर्वेक्षण तथा अन्य अनुवेषणों के आधार पर श्रीकृष्णदत्त वाजपेयी ने ब्रजभाषा-भाषी क्षेत्र निम्नलिखित है- मथुरा ज़िला, राजस्थान का भरतपुर ज़िला तथा करौली का उत्तरी अंश जो भरतपुर एंव धौलपुर की सीमाओं से मिला-जुला है। सम्पूर्ण धौलपुर ज़िला, मध्य भारत में मुरैना से भिण्ड ज़िले और गिर्द ग्वालियर का लगभग 26 अक्षांश से ऊपर का उत्तरी भाग (यहाँ की ब्रजबोली में बुंदेली की झलक है), सम्पूर्ण आगरा ज़िला, इटावा ज़िले का पश्चिमी भाग (लगभग इटावा शहर की सीध देशान्तर 79 तक), मैनपुरी ज़िला तथा एटा ज़िला (पूर्व के कुछ अंशों को छोड़कर, जो फर्रूखाबाद ज़िले की सीमा से मिले-जुले है), अलीगढ़ ज़िला (उत्तर पूर्व में [[गंगा]] नदी की सीमा तक), बुलंदशहर का दक्षिणी आधा भाग (पूर्व में अनूप शहर की सीध से लेकर), गुड़गाँव ज़िले का दक्षिणी अंश, (पलवल की सीध से) तथा अलवर ज़िले का पूर्वी भाग जो गुडगाँव ज़िले की दक्षिणी तथा भरतपुर की पश्चिमी सीमा से मिला-जुला है। <balloon title="(वाजपेयी, के. डी., ब्रज का इतिहास प्रथम खंड, प्रथम संस्करण, 1955 ई., पृ. 3-4)" style="color:blue">*</balloon>
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भाषायी ब्रज के सम्बंध में भाषाविद् डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है- अपने विशुद्ध रूप में ब्रजभाषा आज भी आगरा, धौलपुर, मथुरा और अलीगढ़ जिलों में बोली जाती है। इसे हम केंद्रीय ब्रजभाषा के नाम से भी पुकार सकते हैं। केंद्रीय ब्रजभाषा क्षेत्र के उत्तर पश्चिम की ओर बुलंदशहर ज़िले की उत्तरी पट्टी से इसमें खड़ी बोली की लटक आने लगती है। उत्तरी-पूर्वी जिलों अर्थात् बदायूँ और एटा जिलों में इस पर कन्नौजी का प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। डा. धीरेंद्र वर्मा, कन्नौजी को ब्रजभाषा का ही एक रूप मानते हैं। दक्षिण की ओर ग्वालियर में पहुँचकर इसमें बुंदेली की झलक आने लगती है। पश्चिम की ओर गुड़गाँवा तथा भरतपुर का क्षेत्र राजस्थानी से प्रभावित है।
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वर्तमान समय में ब्रज भाषा एक ग्रामीण भाषा है, जो मथुरा-आगरा केन्द्रित ब्रजक्षेत्र में बोली जाती है। यह निम्न जिलों की प्रधान भाषा है:
*मथुरा
*आगरा
*एटा
*हाथरस
*बुलंदशहर
*अलीगढ़
गंगा पार बदायूं, बरेली, नैनीताल की तराई से होते हुए उत्तराखंड़ में उधमसिंह नगर और राजस्थान के भरतपुर, धौलपुर, करौली और पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गाँव, दिल्ली के कुछ भाग और मेवात जिलों के पूर्वी भाग में ब्रजभाषा का प्रभाव है।
 
==ब्रजभाषा का विकास==
इसका विकास मुख्यत: पश्चिमी उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश में हुआ। मथुरा, अलीगढ़, आगरा, भरतपुर और धौलपुर जिलों में आज भी यह संवाद की भाषा है। पूरे क्षेत्र में ब्रजभाषा हल्के से परिवर्तन के साथ विद्यमान है। इसीलिये इस क्षेत्र के एक बड़े भाग को ब्रजांचल या ब्रजभूमि भी कहा जाता है। भारतीय आर्य भाषाओं की परंपरा में विकसित होने वाली "ब्रजभाषा" शौरसेनी भाषा की कोख से जन्मी है। [[गोकुल]] के [[वल्लभ-सम्प्रदाय]] का केन्द्र बनने के बाद से ब्रजभाषा में कृष्ण साहित्य लिखा जाने लगा और इसी के प्रभाव से ब्रज की बोली साहित्यिक भाषा बन गई। भक्तिकाल के प्रसिद्ध महाकवि सूरदास से आधुनिक काल के श्री वियोगी हरि तक ब्रजभाषा में प्रबंध काव्य और मुक्तक काव्यों की रचना होती रही।
 
==ब्रजभाषा का स्वरूप==
ब्रजभाषा में अपना रूपगत प्रकृति औकारांत है यानि कि इसकी एकवचनीय पुंलिंग संज्ञा और विशेषण प्राय: औकारांत होते हैं; जैसे खुरपौ, यामरौ, माँझौ आदि संज्ञा शब्द औकारांत हैं। इसी प्रकार कारौ, गोरौ, साँवरौ आदि विशेषण पद औकारांत है। क्रिया का सामान्य भूतकाल का एकवचन पुंलिंग रूप भी ब्रजभाषा में प्रमुख रूप से औकारांत ही रहता है। कुछ क्षेत्रों में "य्" श्रुति का आगम भी मिलता है। अलीगढ़ की तहसील कोल की बोली में सामान्य भूतकालीन रूप "य्" श्रुति से रहित मिलता है, लेकिन ज़िला मथुरा तथा दक्षिणी बुलंदशहर की तहसीलों में "य्" श्रुति अवश्य पाई जाती है। कन्नौजी की अपनी प्रकृति ओकारांत है। संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया के रूपों में ब्रजभाषा जहाँ औकारांतता लेकर चलती है वहाँ कन्नौजी ओकारांत है। भविष्यत्कालीन क्रिया ब्रजभाषा में कृदंत पाई जाती है। यदि हम "लड़का जाएगा" और "लड़की जाएगी" वाक्यों को कन्नौजी तथा ब्रजभाषा में रूपांतरित करके बोलें तो यह इस प्रकार रहेगी:
*कन्नौजी में - (1) लरिका जइहै । (2) बिटिया जइहै ।
*ब्रजभाषा में - (1) छोरा जाइगौ । (2) छोरी जाइगी ।
 
ब्रजभाषा के सामान्य भविष्यतकाल रूप में क्रिया कर्ता के लिंग के अनुसार परिवर्तित होती है, जब कि कन्नौजी में एक रूप रहती है। इसके अतिरिक्त कन्नौजी में अवधि की भाँति विवृति भी पाई जाती है जिसका ब्रजभाषा में सर्वथा अभाव है। कन्नौजी के संज्ञा, सर्वनाम आदि वाक्य पदों में संधिरहित मिलते हैं, किंतु ब्रजभाषा में वे ही पद संधिगत अवस्था में मिलते हैं। उदाहरण:
*कन्नौजी - ""बउ गओ"" (उ वह गया)।
*ब्रजभाषा - ""बो गयौ"" (उ वह गया)।
उपर्युक्त वाक्यों के सर्वनाम पद "बउ" तथा "बो" में संधिराहित्य तथा संधि की अवस्थाएँ दोनों भाषाओं की प्रकृतियों को स्पष्ट करती हैं।
 
==ब्रजभाषा का क्षेत्र विभाजन==
ब्रजभाषा क्षेत्र की भाषागत विभिन्नता को दृष्टि में रखते हुए हम उसका विभाजन निम्नांकित रूप में कर सकते हैं:
*आदर्श ब्रजभाषा - अलीगढ़, मथुरा तथा पश्चिमी आगरा की ब्रजभाषा को "आदर्श ब्रजभाषा" कहा जा सकता है।
*बुंदेली ब्रजभाषा - ग्वालियर के उत्तर-पश्चिम में बोली जाने वाली भाषा को कहा जा सकता है।
*राजस्थानी से प्रभावित ब्रजभाषा - यह भरतपुर और उसके दक्षिणी भाग में बोली जाती है।
*सिकरवारी ब्रजभाषा - यह ग्वालियर के उत्तर पूर्व में जहाँ सिकरवार राजपूत हैं, पाई जाती है।
*जादौबारी ब्रजभाषा - करौली और चंबल के मैदान में बोली जाने वाली भाषा को "जादौबारी ब्रजभाषा" नाम कहा जाता है। जादौ (यादव) राजपूतों की बस्तियाँ हैं।
*कन्नौजी ब्रजभाषा -  एटा, अनूपशहर, और अतरौली की भाषा कन्नौजी भाषा से प्रभावित है।
 
==टीका टिप्पणी==
<references/>
==सम्बंधित लिंक==
{{ब्रज के प्रमुख स्थल2}}
{{ब्रज के वन}}
{{ब्रज के वन2}}
[[Category:उत्तर_प्रदेश_के_ऐतिहासिक_स्थान]][[Category:उत्तर_प्रदेश_के_धार्मिक_स्थल]][[Category:उत्तर_प्रदेश_के_पर्यटन_स्थल]][[Category:कृष्ण]]
[[Category:पर्यटन कोश]]
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08:02, 27 जून 2011 के समय का अवतरण

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