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'''यशदेव शल्य''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Yashdev Shalya'', जन्म- फरीदकोट, [[पंजाब]]) भारतीय लेखक थे जिन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का वर्ष [[2002]] का 16वां [[मूर्ति देवी पुरस्कार]] उनकी पुस्तक 'मूल तत्व मीमांसा' के लिए दिया गया था। उनकी पहली पुस्तक [[1951]] में प्रकाशित हुई थी। [[दर्शन]] पर अब तक उनकी करीब एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मनस्तत्व, संस्कृति, मनुष्य और जगत, विषय और आत्मा, समाज : दार्शनिक परिशीलन आदि उनकी प्रमुख कृतियां हैं। यशदेव शल्य दर्शन से संबंधित पत्रिका 'उन्मीलन' के संपादक थे। उन्हें 'अखिल भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद' और 'सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद' की सीनियर फेलोशिप भी प्राप्त हुई थी। [[उत्तर प्रदेश]] सरकार द्वारा उन्हें 'भगवान दास पुरस्कार' और 'अखिल भारतीय दर्शन परिषद' की ओर से 'प्रणवानंद पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।
#REDIRECT [[यशदेव शल्य]]
==परिचय==
[[पंजाब]] के फरीदकोट में जन्मे यश देव शल्य जी [[1949]] से [[1965]] तक यहीं के बलवीर हाईस्कूल में [[हिंदी]] के अध्यापक रहे। यहीं [[1951]] में एक दोस्त के पास उन्हें हेनरी बर्गसां की पुस्तक 'क्रिएटिव इवोल्यूशन्स' दिखी, जिसे पढ़ते हुए उनका दर्शन से रिश्ता बन गया, जो आजीवन रहा। यहीं बर्ट्रेंड रसेल, कांट उन्हें दर्शन की अंजान राहों पर ले जाते गए। यहीं रहते हुए [[1957]] में दर्शन की पहली पुस्तक लिखी। यहीं लिखी दूसरी पुस्तक दार्शनिक विश्लेषण पर बहुत लोगों का ध्यान गया और इसे हिंदी समिति उत्तर प्रदेश का डॉ. भगवान दास पुरस्कार मिला।<ref name="pp">{{cite web |url=https://www.mediavigil.com/op-ed/philosopher-yashdev-shalya-is-no-more/ |title=सूख गयी हिंदी की दर्शन धार|accessmonthday=0524 फ़रवरी|accessyear=2020 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=mediavigil.com |language=हिंदी}}</ref>
==संस्था निर्माण==
यहीं रहते हुए यश देव शल्य को लगा कि [[भारत]] में [[दर्शन]] की बातें मुख्यत: [[अंग्रेज़ी]] में और थोड़ी-बहुत [[संस्कृत]], [[पाली]] में होती हैं। यहीं रहते हुए वे चिट्ठी-पत्री के जरिए हिंदी में दर्शन पर केंद्रित संस्था के निर्माण के काम में लग गए। तब तक [[महाराष्ट्र]] के आमलनेर में 'इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फिलॉसफी' की स्थापना [[1916]] में ही हो गई थी। [[1917]] में कोल्हापुर में 'इंडियन फिलॉसफिकल रिव्यू' [[पत्रिका]] शुरू हो गई थी। [[1925]] में देश के प्राध्यापकों का पेशेवर संगठन 'इंडियन फिलॉसफिकल कांग्रेस' शुरू हो गया था, जो अंग्रेज़ी में सोचता, बोलता था। इन संस्थाओं से ही यश देव शल्य को [[हिंदी]] में यह उद्यम शुरू करने की चुनौती मिली।
==प्रकाशन व संपादन==
स्वतंत्र भारत में शल्य जी ने हिंदी में दर्शन की गतिविधियाँ शुरू करने का जो संकल्प लिया था, उसे समर्थन मिलना शुरू हुआ। डॉ. संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव, प्रभाकर माचवे जैसे नायकों का प्रोत्साहन मिला। [[1954]] में शल्य जी ने 'अखिल भारतीय दर्शन परिषद' की त्रैमासिक पत्रिका ‘दार्शनिक’ का प्रकाशन शुरू कर दिया। [[इलाहाबाद]] के प्रोफेसर संगमलाल पांडे के प्रयासों से [[1956]] में दर्शन परिषद का पहला अधिवेशन इलाहबाद में हुआ। शल्य जी व प्रो. संगमलाल शुरुआती सालों में दर्शन परिषद के आधार स्तंभ रहे। बाद में शल्य जी ने तत्त्व चिंतन, दर्शन समीक्षा और उन्मीलन पत्रिकाओं का संपादन भी किया।<ref name="pp"/>
 
शल्य जी के नाम के साथ हिंदी में दर्शनशास्त्र की विडंबना भी जुड़ी हुई हैं। उनकी एक दर्जन से ज्यादा पुस्तकें हैं। उनके द्वारा संपादित कई पत्रिकाएं हैं। अनेक लेख हैं। सभी हिंदी में। [[हिंदी]] में [[दर्शन]] और समाज विज्ञान को प्रतिष्ठित करने के तमाम उद्यम अब तक सिरे क्यों नहीं चढ़े, यह एक अलग ही और लंबी [[कहानी]] है। उसमें जाए बगैर शल्य जी के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि चंद व्यक्तियों और दर्शन विभागों को छोड़कर प्राध्यापकीय दर्शन जगत की हिंदी में मौलिक चिंतन, सृजन को बढ़ावा देने में कोई खास रुचि नहीं है। परीक्षापयोगी और सेमिनारोपयोगी सामग्री ज्यादा प्रचलित है। ज्यादा मौलिक काम नहीं है और स्वतंत्रता बाद अनुवादों की जो लहर आई थी, वह ठंडी पड़ गई है। इस दुनिया में शल्य जी एक औपचारिक उपस्थिति और ज्यादा हुआ तो श्रद्धा के पात्र भर हैं।
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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