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[[भारतकोश सम्पादकीय 25 जून 2012|विज्ञापन लोक]]
[[भारतकोश सम्पादकीय 25 जून 2012|विज्ञापन लोक]]
           एक उपभोक्ता यूँही उपभोक्ता नहीं बनता, बल्कि उसे पहले ग्राहक बनने का संकल्प करके 'विज्ञापन-लोक' में अपनी जगह बनानी पड़ती है। हज़ारों विज्ञापनों से गुज़र कर, ग्राहक बनते ही लोग उसे उपभोक्ता बनाने का मिशन शुरू कर देते हैं। कितना भी चालाक ग्राहक हो, उसे बेचारा और मासूम उपभोक्ता बनना ही पड़ता है।
           जैसे नेताओं को हम वोटर और वकीलों को हम क्लाइंट दिखाई देते हैं, वैसे ही विज्ञापन एजेंसियों और विक्रेता को हम ग्राहक और उपभोक्ता दिखाई देते हैं। हरेक दुकानदार मरने से पहले अपनी औलाद को वसीयत के साथ साथ एक नसीहत भी देकर मरता है-
जब आप ग्राहक होते हैं, तब तो आप आदर के पात्र होते हैं, लोग आपको हाथों-हाथ लेते हैं-
"मेरे बच्चों हमेशा ध्यान रखना कि मौत और ग्राहक का क्या पता कब आ जाये।"
"यस सर ! कॅन आई हॅल्प यू ?" जैसी बातें सुनने को मिलती हैं। [[भारतकोश सम्पादकीय 25 जून 2012|पूरा पढ़ें]]
जब हम ग्राहक बनकर किसी दुकान पर जाते हैं तो दुकानदार जो हमसे बहुत अच्छा व्यवहार करता है उसका मतलब आप लगा सकते हैं कि वो हमें अपने बाप की नसीहत के हिसाब से हमें 'क्या' समझ रहा होता है। [[भारतकोश सम्पादकीय 25 जून 2012|पूरा पढ़ें]]
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14:53, 25 जून 2012 का अवतरण

साप्ताहिक सम्पादकीय-आदित्य चौधरी

विज्ञापन लोक
          जैसे नेताओं को हम वोटर और वकीलों को हम क्लाइंट दिखाई देते हैं, वैसे ही विज्ञापन एजेंसियों और विक्रेता को हम ग्राहक और उपभोक्ता दिखाई देते हैं। हरेक दुकानदार मरने से पहले अपनी औलाद को वसीयत के साथ साथ एक नसीहत भी देकर मरता है-
"मेरे बच्चों हमेशा ध्यान रखना कि मौत और ग्राहक का क्या पता कब आ जाये।"
जब हम ग्राहक बनकर किसी दुकान पर जाते हैं तो दुकानदार जो हमसे बहुत अच्छा व्यवहार करता है उसका मतलब आप लगा सकते हैं कि वो हमें अपने बाप की नसीहत के हिसाब से हमें 'क्या' समझ रहा होता है। पूरा पढ़ें

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