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[[भारतकोश सम्पादकीय 8 जुलाई 2012|मानसून का शंख]]
[[भारतकोश सम्पादकीय 8 जुलाई 2012|मानसून का शंख]]
           "मेरे अलावा कोई दूसरी इस कमबख्त नंदी पर बैठ कर घूमने को तैयार भी तो नहीं होगी... बताओ, हद हो गई... भला नंदी भी कोई सवारी हुई... ज़रा किसी दूसरी देवी को बिठा कर तो देखो नंदी पर... लक्ष्मी जी होतीं तो दो दिन में भाग जातीं... वो तो मैं ही हूँ जो तुम्हारे भूत-प्रेतों के साथ निभा रही हूँ।" अब तक साड़ी कमर में खोंसी जा चुकी थी। नंदी की आँखों में उदासी छा गई थी, दोनों कान लटक गए और गर्दन झुक गई... [[भारतकोश सम्पादकीय 8 जुलाई 2012|पूरा पढ़ें]]
           "आपको कुछ पता भी है कि दुनिया में क्या हो रहा है, अरे! दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी और एक हमारे ये हैं... भोले भंडारी... अरे महाराज समाधि लगाये ही बैठे रहोगे या कुछ मेरी भी सुनोगे ?" [[कैलास पर्वत]] पर [[पार्वती देवी|पार्वती मैया]] ग़ुस्से से भन्ना रही थीं। [[शिव|शंकर जी]] ने ध्यान भंग करना ही सही समझा और बोले-
"तुम्हारी ही तो सुनता हूँ भागवान... दूसरे देवता तो चार-चार... छह-छह ब्याह करके बैठे हैं और मैं तो सिर्फ़ तुम्हारी ही माला जपता रहता हूँ... अब हुआ क्या जो [[नंदी]] की तरह सींग समेत लड़ रही हो ?" [[भारतकोश सम्पादकीय 8 जुलाई 2012|पूरा पढ़ें]]
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15:23, 8 जुलाई 2012 का अवतरण

साप्ताहिक सम्पादकीय-आदित्य चौधरी

मानसून का शंख
          "आपको कुछ पता भी है कि दुनिया में क्या हो रहा है, अरे! दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी और एक हमारे ये हैं... भोले भंडारी... अरे महाराज समाधि लगाये ही बैठे रहोगे या कुछ मेरी भी सुनोगे ?" कैलास पर्वत पर पार्वती मैया ग़ुस्से से भन्ना रही थीं। शंकर जी ने ध्यान भंग करना ही सही समझा और बोले-
"तुम्हारी ही तो सुनता हूँ भागवान... दूसरे देवता तो चार-चार... छह-छह ब्याह करके बैठे हैं और मैं तो सिर्फ़ तुम्हारी ही माला जपता रहता हूँ... अब हुआ क्या जो नंदी की तरह सींग समेत लड़ रही हो ?" पूरा पढ़ें

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