"रज़िया सुल्तान": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "महत्वपूर्ण" to "महत्त्वपूर्ण") |
||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
'''इल्तुतमिश के इस फ़ैसले''' से उसके दरबार के सरदार अप्रसन्न थे। वे एक स्त्री के समक्ष नतमस्तक होना अपने अंहकार के विरुद्ध समझते थे। उन लोगों ने मृतक सुल्तान की इच्छाओं का उल्लघंन करके उसके सबसे बड़े पुत्र [[रुकनुद्दीन फ़िरोज़]] को, जो अपने पिता के जीवन काल में [[बदायूँ]] तथा कुछ वर्ष बाद [[लाहौर]] का शासक रह चुका था, सिंहासन पर बैठा दिया। यह चुनाव दुर्भाग्यपूर्ण था। रुकनुद्दीन शासन के बिल्कुल अयोग्य था। वह नीच रुचि का था। वह राजकार्य की उपेक्षा करता था तथा राज्य के धन का अपव्यय करता था। उसकी माँ [[शाह तुर्ख़ान]] के, जो एक निम्न उदभव<ref>वह मूल रूप से एक तुर्क़ी दासी थी</ref> की महत्वाकांक्षापूर्ण महिला थी, कार्यों से बातें बिगड़ती ही जा रही थीं। उसने सारी शक्ति को अपने अधिकार में कर लिया, जबकि उसका पुत्र रुकनुद्दीन भोग-विलास में ही डूबा रहता था। सारे राज्य में गड़बड़ी फैल गई। बदायूँ, [[मुल्तान]], [[हाँसी]], लाहौर, [[अवध]] एवं बंगाल में केन्द्रीय सरकार के अधिकार का तिरस्कार होने लगा। [[दिल्ली]] के सरदारों ने, जो राजमाता के अनावश्यक प्रभाव के कारण असन्तोष से उबल रहे थे, उसे बन्दी बना लिया तथा रज़िया को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया। रुकनुद्दीन फ़िरोज़ को, जिसने [[लोखरी]] में शरण ली थी, क़ारावास में डाल दिया गया। जहाँ 1266 ई. में 9 नवम्बर को उसके जीवन का अन्त हो गया। | '''इल्तुतमिश के इस फ़ैसले''' से उसके दरबार के सरदार अप्रसन्न थे। वे एक स्त्री के समक्ष नतमस्तक होना अपने अंहकार के विरुद्ध समझते थे। उन लोगों ने मृतक सुल्तान की इच्छाओं का उल्लघंन करके उसके सबसे बड़े पुत्र [[रुकनुद्दीन फ़िरोज़]] को, जो अपने पिता के जीवन काल में [[बदायूँ]] तथा कुछ वर्ष बाद [[लाहौर]] का शासक रह चुका था, सिंहासन पर बैठा दिया। यह चुनाव दुर्भाग्यपूर्ण था। रुकनुद्दीन शासन के बिल्कुल अयोग्य था। वह नीच रुचि का था। वह राजकार्य की उपेक्षा करता था तथा राज्य के धन का अपव्यय करता था। उसकी माँ [[शाह तुर्ख़ान]] के, जो एक निम्न उदभव<ref>वह मूल रूप से एक तुर्क़ी दासी थी</ref> की महत्वाकांक्षापूर्ण महिला थी, कार्यों से बातें बिगड़ती ही जा रही थीं। उसने सारी शक्ति को अपने अधिकार में कर लिया, जबकि उसका पुत्र रुकनुद्दीन भोग-विलास में ही डूबा रहता था। सारे राज्य में गड़बड़ी फैल गई। बदायूँ, [[मुल्तान]], [[हाँसी]], लाहौर, [[अवध]] एवं बंगाल में केन्द्रीय सरकार के अधिकार का तिरस्कार होने लगा। [[दिल्ली]] के सरदारों ने, जो राजमाता के अनावश्यक प्रभाव के कारण असन्तोष से उबल रहे थे, उसे बन्दी बना लिया तथा रज़िया को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया। रुकनुद्दीन फ़िरोज़ को, जिसने [[लोखरी]] में शरण ली थी, क़ारावास में डाल दिया गया। जहाँ 1266 ई. में 9 नवम्बर को उसके जीवन का अन्त हो गया। | ||
====अमीरों से संघर्ष==== | ====अमीरों से संघर्ष==== | ||
'''अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए रज़िया को''' न केवल अपने सगे भाइयों, बल्कि शक्तिशाली तुर्की सरदारों का भी मुक़ाबला करना पड़ा और वह केवल तीन वर्षों तक ही शासन कर सकी। यद्यपि उसके शासन की अवधि बहुत कम थी, तथापि उसके कई | '''अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए रज़िया को''' न केवल अपने सगे भाइयों, बल्कि शक्तिशाली तुर्की सरदारों का भी मुक़ाबला करना पड़ा और वह केवल तीन वर्षों तक ही शासन कर सकी। यद्यपि उसके शासन की अवधि बहुत कम थी, तथापि उसके कई महत्त्वपूर्ण पहलू थे। रज़िया के शासन के साथ ही सम्राट और तुर्की सरदारों, जिन्हें '''चहलग़ानी''' (चालीस) कहा जाता है, के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया। | ||
====रज़िया की चतुराई व कूटनीति==== | ====रज़िया की चतुराई व कूटनीति==== | ||
'''युवती बेगम के समक्ष कोई कार्य सुगम नहीं था'''। राज्य के वज़ीर [[मुहम्मद जुनैदी]] तथा कुछ अन्य सरदार एक स्त्री के शासन को सह न सके और उन्होंने उसके विरुद्ध विरोधियों को जमा किया। परन्तु रज़िया में शासन के लिए | '''युवती बेगम के समक्ष कोई कार्य सुगम नहीं था'''। राज्य के वज़ीर [[मुहम्मद जुनैदी]] तथा कुछ अन्य सरदार एक स्त्री के शासन को सह न सके और उन्होंने उसके विरुद्ध विरोधियों को जमा किया। परन्तु रज़िया में शासन के लिए महत्त्वपूर्ण सभी गुणों का अभाव नहीं था। उसने चतुराई एवं उच्चतर कूटनीति से शीघ्र ही अपने शत्रुओं को परास्त कर दिया। हिन्दुस्तान (उत्तरी [[भारत]]) एवं [[पंजाब]] पर उसका अधिकार स्थापित हो गया तथा [[बंगाल]] एवं [[सिन्ध]] के सुदूरवर्ती प्रान्तों के शासकों ने भी उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जैसा कि मिनहाजस्सिराज ने लिखा है, '''लखनौती से लेकर देवल तथा दमरीला तक सभी मलिकों एवं अमीरों ने उसकी आज्ञाकारिता को स्वीकार किया।''' रज़िया के राज्यकाल के आरम्भ में [[नरुद्दीन]] नामक एक तुर्क के नेतृत्व में किरामित और अहमदिया नामक सम्प्रदायों के कतिपय पाखण्डियों द्वारा उपद्रव कराने का संगठित प्रयास किया गया। उनके एक हज़ार व्यक्ति तलवारों और ढालों के साथ पहुँचे और बड़ी मस्ज़िद में एक निश्चित दिन को प्रवेश किया; परन्तु वे राजकीय सेना द्वारा तितर-बितर कर दिये गये तथा विद्रोह एक भद्दी असफलता बनकर रह गया। | ||
====तुर्कों का संगठन==== | ====तुर्कों का संगठन==== | ||
{{highright}}समकालीन मुस्लिम इतिहासकार मिनहाजस्सिराज ने लिखा है कि, '''वह महती सम्राज्ञी चतुर, न्यायी, दानशील, विद्वानों की आश्रयदायी, न्याय वितरण करने वाली, अपनी प्रजा से स्नेह रखनेवाली, युद्ध कला में प्रवीण तथा राजाओं के सभी आवश्यक प्रशंसनीय विशेषणों एवं गुणों से सम्पन्न थी।''' वह स्वयं सेना लेकर शत्रुओं के सम्मुख जाती थी। स्त्रियों के वस्त्र को छोड़ तथा बुर्के का परित्याग कर वह '''झिल्ली पहनती थी तथा पुरुष का शिरोवस्त्र धारण करती थी।''' वह खुले दरबार में अत्यन्त योग्यता के साथ शासन-कार्य का सम्पादन करती थी। इस प्रकार हर सम्भव तरीक़े से वह '''राजा का अभिनय''' करने का प्रयत्न करती थी।{{highclose}} | {{highright}}समकालीन मुस्लिम इतिहासकार मिनहाजस्सिराज ने लिखा है कि, '''वह महती सम्राज्ञी चतुर, न्यायी, दानशील, विद्वानों की आश्रयदायी, न्याय वितरण करने वाली, अपनी प्रजा से स्नेह रखनेवाली, युद्ध कला में प्रवीण तथा राजाओं के सभी आवश्यक प्रशंसनीय विशेषणों एवं गुणों से सम्पन्न थी।''' वह स्वयं सेना लेकर शत्रुओं के सम्मुख जाती थी। स्त्रियों के वस्त्र को छोड़ तथा बुर्के का परित्याग कर वह '''झिल्ली पहनती थी तथा पुरुष का शिरोवस्त्र धारण करती थी।''' वह खुले दरबार में अत्यन्त योग्यता के साथ शासन-कार्य का सम्पादन करती थी। इस प्रकार हर सम्भव तरीक़े से वह '''राजा का अभिनय''' करने का प्रयत्न करती थी।{{highclose}} |
13:48, 4 जनवरी 2011 का अवतरण
रज़िया का पूरा नाम-रज़िया अल्-दीन (1205– अक्टूबर 14/15, 1240), सुल्तान जलालत उद-दीन रज़िया था। वह इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी।
रज़िया को उत्तराधिकार
अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नासिरुद्दीन मुहम्मद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ई. को अप्रैल में मृत्यु हो गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के किसी भी प्रकार से योग्य नहीं थे। अत: इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। उसने अपने सरदारों और उल्माओं को इस बात के लिए राज़ी किया। यद्यपि स्त्रियों ने प्राचीन मिस्र और ईरान में रानियों के रूप में शासन किया था और इसके अलावा शासक राजकुमारों के छोटे होने के कारण राज्य का कारोबार सम्भाला था, तथापि इस प्रकार पुत्रों के होते हुए सिंहासन के लिए स्त्री को चुनना एक नया क़दम था।
सरदारों की मनमानी
इल्तुतमिश के इस फ़ैसले से उसके दरबार के सरदार अप्रसन्न थे। वे एक स्त्री के समक्ष नतमस्तक होना अपने अंहकार के विरुद्ध समझते थे। उन लोगों ने मृतक सुल्तान की इच्छाओं का उल्लघंन करके उसके सबसे बड़े पुत्र रुकनुद्दीन फ़िरोज़ को, जो अपने पिता के जीवन काल में बदायूँ तथा कुछ वर्ष बाद लाहौर का शासक रह चुका था, सिंहासन पर बैठा दिया। यह चुनाव दुर्भाग्यपूर्ण था। रुकनुद्दीन शासन के बिल्कुल अयोग्य था। वह नीच रुचि का था। वह राजकार्य की उपेक्षा करता था तथा राज्य के धन का अपव्यय करता था। उसकी माँ शाह तुर्ख़ान के, जो एक निम्न उदभव[1] की महत्वाकांक्षापूर्ण महिला थी, कार्यों से बातें बिगड़ती ही जा रही थीं। उसने सारी शक्ति को अपने अधिकार में कर लिया, जबकि उसका पुत्र रुकनुद्दीन भोग-विलास में ही डूबा रहता था। सारे राज्य में गड़बड़ी फैल गई। बदायूँ, मुल्तान, हाँसी, लाहौर, अवध एवं बंगाल में केन्द्रीय सरकार के अधिकार का तिरस्कार होने लगा। दिल्ली के सरदारों ने, जो राजमाता के अनावश्यक प्रभाव के कारण असन्तोष से उबल रहे थे, उसे बन्दी बना लिया तथा रज़िया को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया। रुकनुद्दीन फ़िरोज़ को, जिसने लोखरी में शरण ली थी, क़ारावास में डाल दिया गया। जहाँ 1266 ई. में 9 नवम्बर को उसके जीवन का अन्त हो गया।
अमीरों से संघर्ष
अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए रज़िया को न केवल अपने सगे भाइयों, बल्कि शक्तिशाली तुर्की सरदारों का भी मुक़ाबला करना पड़ा और वह केवल तीन वर्षों तक ही शासन कर सकी। यद्यपि उसके शासन की अवधि बहुत कम थी, तथापि उसके कई महत्त्वपूर्ण पहलू थे। रज़िया के शासन के साथ ही सम्राट और तुर्की सरदारों, जिन्हें चहलग़ानी (चालीस) कहा जाता है, के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया।
रज़िया की चतुराई व कूटनीति
युवती बेगम के समक्ष कोई कार्य सुगम नहीं था। राज्य के वज़ीर मुहम्मद जुनैदी तथा कुछ अन्य सरदार एक स्त्री के शासन को सह न सके और उन्होंने उसके विरुद्ध विरोधियों को जमा किया। परन्तु रज़िया में शासन के लिए महत्त्वपूर्ण सभी गुणों का अभाव नहीं था। उसने चतुराई एवं उच्चतर कूटनीति से शीघ्र ही अपने शत्रुओं को परास्त कर दिया। हिन्दुस्तान (उत्तरी भारत) एवं पंजाब पर उसका अधिकार स्थापित हो गया तथा बंगाल एवं सिन्ध के सुदूरवर्ती प्रान्तों के शासकों ने भी उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जैसा कि मिनहाजस्सिराज ने लिखा है, लखनौती से लेकर देवल तथा दमरीला तक सभी मलिकों एवं अमीरों ने उसकी आज्ञाकारिता को स्वीकार किया। रज़िया के राज्यकाल के आरम्भ में नरुद्दीन नामक एक तुर्क के नेतृत्व में किरामित और अहमदिया नामक सम्प्रदायों के कतिपय पाखण्डियों द्वारा उपद्रव कराने का संगठित प्रयास किया गया। उनके एक हज़ार व्यक्ति तलवारों और ढालों के साथ पहुँचे और बड़ी मस्ज़िद में एक निश्चित दिन को प्रवेश किया; परन्तु वे राजकीय सेना द्वारा तितर-बितर कर दिये गये तथा विद्रोह एक भद्दी असफलता बनकर रह गया।
तुर्कों का संगठन
|
समकालीन मुस्लिम इतिहासकार मिनहाजस्सिराज ने लिखा है कि, वह महती सम्राज्ञी चतुर, न्यायी, दानशील, विद्वानों की आश्रयदायी, न्याय वितरण करने वाली, अपनी प्रजा से स्नेह रखनेवाली, युद्ध कला में प्रवीण तथा राजाओं के सभी आवश्यक प्रशंसनीय विशेषणों एवं गुणों से सम्पन्न थी। वह स्वयं सेना लेकर शत्रुओं के सम्मुख जाती थी। स्त्रियों के वस्त्र को छोड़ तथा बुर्के का परित्याग कर वह झिल्ली पहनती थी तथा पुरुष का शिरोवस्त्र धारण करती थी। वह खुले दरबार में अत्यन्त योग्यता के साथ शासन-कार्य का सम्पादन करती थी। इस प्रकार हर सम्भव तरीक़े से वह राजा का अभिनय करने का प्रयत्न करती थी।
|}
फिर भी बेगम के भाग्य में शान्तिपूर्ण शासन नहीं था। वह अबीसीनिया के एक दास जलालुद्दीन याक़ूत के प्रति अनुचित कृपा दिखलाने लगी तथा उसने उसे अश्वशालाध्यक्ष का ऊँचा पद दे दिया। इससे क्रुद्ध होकर तुर्की सरदार एक छोटे संघ में संघठित हुए।
दार्शनिकों के विचार
इब्न बतूता का यह कहना ग़लत है कि अबीसीनियन के प्रति उसका चाव (लगाव) अपराधात्मक था। समकालीन मुस्लिम इतिहासकार मिनहाज़ ने इस तरह का कोई आरोप नहीं लगाया है। वह केवल इतना ही लिखता है कि अबीसीनियन ने सुल्ताना की सेवा कर (उसकी) कृपा प्राप्त कर ली[2]
फ़रिश्ता का उसके ख़िलाफ़ एकमात्र आरोप यह है कि, अबीसीनियन और बेगम के बीच अत्यधिक परिचय देखा गया, यहाँ तक की जब वह घोड़े पर सवार रहती थी, तब वह बाहों से उसे (रानी को) उठाकर बराबर घोड़े पर बिठा लेता था[3]।
जैसा की मेजर रैवर्टी ने बतलाया है, टॉमस ने उचित कारण न रहने पर भी इस बेगम के चरित्र पर इन शब्दों में आक्षेप किया है, यह बात नहीं थी कि एक अविवाहिता बेगम को प्यार करने की मनाही थी-वह किसी भी जी-हुज़ूर वाले शाहज़ादे से शादी कर उसके साथ प्रेम के ग़ोते लगा सकती थी, अथवा राजमहल के हरम (ज़नानख़ाने) के अन्धेरे कोने में क़रीब-क़रीब बिना रोकथाम के आमोद-प्रमोद कर सकती थी; लेकिन राह चलते प्रेम दिखलाना एक ग़लत दिशा की ओर संकेत कर रहा था और इस कारण उसने (बेगम ने) एक ऐसे आदमी को पसन्द किया, जो कि उसके दरबार में नौकरी कर रहा था तथा वह एक अबीसीनियन भी था। जिसके प्रति दिखलाई गई कृपाओं का तुर्की सरदारों ने एक स्वर से विरोध किया[4]।
अल्तूनिया से विवाह
सबसे पहले सरहिन्द के शासक इख़्तियारुद्दीन अल्तूनिया ने खुले तौर पर विद्रोह किया, जिसे दरबार के कुछ सरदार गुप्त रूप से उभाड़ रहे थे। बेगम एक बड़ी सेना लेकर विद्रोह का दमन करने के लिए चली। किन्तु इस युद्ध में विद्रोही सरदारों ने याक़ूत को मार डाला तथा बेगम को क़ैद कर लिया। वह इख़्तियारुद्दीन अल्तूनिया के संरक्षण में रख दी गई। रज़िया ने अल्तूनिया से विवाह करके इस परिस्थिति से छुटकारा पाने का प्रयत्न किया, परन्तु यह व्यर्थ ही सिद्ध हुआ। वह अपने पति के साथ दिल्ली की ओर बढ़ी। लेकिन कैथल के निकट पहुँचकर अल्तूनिया के समर्थकों ने उसका साथ छोड़ दिया तथा 13 अक्टूबर, 1240 ई. को मुइज़ुद्दीन बहराम ने उसे पराजित कर दिया। दूसरे दिन रज़िया की उसके पति के साथ हत्या कर दी गई। इस तरह तीन वर्ष तथा कुछ महीनों के राज्यकाल के बाद कष्टपूर्वक रज़िया बेग़म के जीवन का अन्त हो गया।
रज़िया के गुण
रज़िया में अदभुत गुण थे। फ़रिश्ता लिखता है कि, वह शुद्ध उच्चारण करके क़ुरान का पाठ करती थी तथा अपने पिता के जीवन काल में शासन कार्य किया करती थी। बेगम की हैसियत से उसने अपने गुणों को अत्यधिक विशिष्टता से प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया। समकालीन मुस्लिम इतिहासकार मिनहाजुस्सिराज ने लिखा है कि, वह महती सम्राज्ञी चतुर, न्यायी, दानशील, विद्वानों की आश्रयदायी, न्याय वितरण करने वाली, अपनी प्रजा से स्नेह रखनेवाली, युद्ध कला में प्रवीण तथा राजाओं के सभी आवश्यक प्रशंसनीय विशेषणों एवं गुणों से सम्पन्न थी। वह स्वयं सेना लेकर शत्रुओं के सम्मुख जाती थी। स्त्रियों के वस्त्र को छोड़ तथा बुर्के का परित्याग कर वह झिल्ली पहनती थी तथा पुरुष का शिरोवस्त्र धारण करती थी। वह खुले दरबार में अत्यन्त योग्यता के साथ शासन-कार्य का सम्पादन करती थी। इस प्रकार हर सम्भव तरीक़े से वह राजा का अभिनय करने का प्रयत्न करती थी। किन्तु अहंकारी तुर्की सरदार एक महिला के शासन को नहीं सह सके। उन्होंने घृणित रीति से उसका अन्त कर दिया। रज़िया के दु:खद अन्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि अंधविश्वासों पर विजय प्राप्त करना सदैव ज़्यादा आसान नहीं होता।
रज़िया के पश्चात
रज़िया की मृत्यु के पश्चात कुछ काल तक अव्यवस्था एवं गड़बड़ी फैली रही। दिल्ली की गद्दी पर उसके उत्तराधिकारी मुइज़ुद्दीन बहराम तथा अलाउद्दीन मसूद गुणहीन एवं अयोग्य थे तथा उनके छ: वर्षों के शासनकाल में देश में शान्ति एवं स्थिरता का नाम भी न रहा। बाहरी आक्रमणों से हिन्दुस्तान (उत्तरी भारत) का दु:ख और भी बढ़ गया। 1241 ई. में मंगोल पंजाब के मध्य में पहुँच गए तथा लाहौर का सुन्दर नगर उनके निर्मम पंजे में पड़ गया। 1245 ई. में वे उच्च तक बढ़ आये। लेकिन उनकी बड़ी क्षति हुई और उन्हें पीछे हटना पड़ा। मसूद शाह के शासनकाल के अन्तिम वर्षों में असन्तोष अधिक प्रचण्ड एवं विस्तृत हो गया। अमीरों तथा मलिकों ने 10 जून, 1246 ई. को इल्तुतमिश के एक कनिष्ठ पुत्र नासिरुद्दीन महमूद को सिंहासन पर बैठा दिया।
|
|
|
|
|