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[[भारतकोश सम्पादकीय | [[भारतकोश सम्पादकीय 30 अक्टूबर 2012|उसके सुख का दु:ख]] | ||
ईर्ष्या के बारे में सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि ईर्ष्या 'की' नहीं जाती ईर्ष्या 'हो' जाती है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होता जो सोच समझकर ईर्ष्या कर पाये। ईर्ष्या मानव के सहज स्वभाव के मूल में निहित है। यह प्रकृति की देन है। इसी तरह ईर्ष्या सामाजिक शिक्षा या संस्था नहीं है, जिसके लिए किसी को प्रशिक्षित किया जा सके। [[भारतकोश सम्पादकीय 30 अक्टूबर 2012|...पूरा पढ़ें]] | |||
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| [[भारतकोश सम्पादकीय | | [[भारतकोश सम्पादकीय 4 सितम्बर 2012|शाप और प्रतिज्ञा]] | ||
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10:41, 30 अक्टूबर 2012 का अवतरण
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