"वो तुम ही थी -किरण मिश्रा": अवतरणों में अंतर
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तुम्हे सुना था मैं ने | |||
सावन की गीली हवाओं में | |||
जब रोपती थी तुम कोई गीत नया | |||
जब साँझ पड़े अँधेरा हाथ पसारे | |||
भर रहा होता बाँहों में दिन को | |||
दिया जला प्रकाश को रस्ता दिखाती | |||
वो तुम ही थी | |||
अशोक को साक्षी बना | |||
अस्तित्व की रक्षा करती | |||
वो भी तुम थी | |||
इतिहास में मानवता की लाज बचाती | |||
तुम ही थी कोई और नहीं | |||
फिर आज तुम क्यों भूल बैठी हो खुद को | |||
तोड़ दो वक्त की बाड़ें | |||
बिछा लो समय को अपने लिए | |||
विकसित करो अपने अन्दर | |||
जीवन कर्म का सौन्दर्य | |||
फिर से सुनाओ संभावनाओं के गीत | |||
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10:58, 10 अप्रैल 2015 का अवतरण
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तुम्हे सुना था मैं ने |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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