"प्रयोग:कविता बघेल 9": अवतरणों में अंतर
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{'श्रमिकों की तानाशाही' के सिद्धांत को किसने सुपरिष्कृत किया? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-53,प्रश्न-15 | {'श्रमिकों की तानाशाही' के सिद्धांत को किसने सुपरिष्कृत किया? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-53,प्रश्न-15 | ||
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-कार्ल मार्क्स ने 'दास-कैपिटल' में | -[[कार्ल मार्क्स]] ने 'दास-कैपिटल' में | ||
-कार्ल मार्क्स एव ऐंजिल्स ने 'कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो' में | -कार्ल मार्क्स एव ऐंजिल्स ने 'कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो' में | ||
-ऐंजिल्स ने 'आरिजिन ऑफ़ फैमिली | -ऐंजिल्स ने 'आरिजिन ऑफ़ फैमिली प्राइवेट प्रॉपर्टी एंड स्टेट' में | ||
+लेनिन ने 'स्टे एंड रिवोल्यूशन' में | +लेनिन ने 'स्टे एंड रिवोल्यूशन' में | ||
||लेनिन ने वर्ष 1917 में लिखी अपनी पुस्तक 'राज्य और क्रांति' में 'श्रमिक की तानाशाही' को स्पष्ट करने का प्रयास किया, लेकिन 1918 में लिखी अपनी पुस्तक 'प्रोलेलरिएड रेवोल्यूशन एंड रेनीगेड काउत्स्की' में उन्होंने सर्वहारा | ||लेनिन ने वर्ष [[1917]] में लिखी अपनी पुस्तक '[[राज्य]] और क्रांति' में 'श्रमिक की तानाशाही' को स्पष्ट करने का प्रयास किया, लेकिन [[1918]] में लिखी अपनी पुस्तक 'प्रोलेलरिएड रेवोल्यूशन एंड रेनीगेड काउत्स्की' में उन्होंने सर्वहारा अधिनायक वाद या श्रमिक वर्ग की तानाशाही संबंधी विस्तृत विवेचन की। | ||
{संरचनात्मक-प्रकार्यात्म क उपागम किसके नाम से जुड़ा है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-66,प्रश्न-15 | {संरचनात्मक-प्रकार्यात्म क उपागम किसके नाम से जुड़ा है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-66,प्रश्न-15 | ||
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-राबर्ट डाउल | -राबर्ट डाउल | ||
-ओ.आर. यंग | -ओ.आर. यंग | ||
||तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में व्यवस्था विश्लेषण का संरचात्मक प्रकार्यात्मक उपागम ईस्टन के निवेश निर्गत विश्लेषण से उत्पन्न असंतोष के कारण अस्तित्व में आया। इस उपागम का प्रयोग आमंड एवं पॉवेल ने किया है, इन्होंने राजनीतिक व्यवस्था के चार लक्षण माने हैं- | ||तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में व्यवस्था विश्लेषण का संरचात्मक प्रकार्यात्मक उपागम ईस्टन के निवेश निर्गत विश्लेषण से उत्पन्न असंतोष के कारण अस्तित्व में आया। इस उपागम का प्रयोग आमंड एवं पॉवेल ने किया है, इन्होंने राजनीतिक व्यवस्था के चार लक्षण माने हैं- (1) राजनीतिक व्यवस्था के भागों में अंत र्निर्भरता (2) राजनीतिक व्यवस्था की सीमा। (3) राजनीतिक व्यवस्था का पर्यवरण। (4) राजनीतिक व्यवस्था द्वारा बाध्यकारी शक्ति का प्रयोग। | ||
{कौन-सी सत्ता प्रत्यायोजित नहीं की जानी चाहिए? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-79,प्रश्न-94 | {कौन-सी सत्ता प्रत्यायोजित नहीं की जानी चाहिए? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-79,प्रश्न-94 | ||
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-नीति निर्धारित करने की शक्ति | -नीति निर्धारित करने की शक्ति | ||
+इनमें से कोई नहीं | +इनमें से कोई नहीं | ||
||वह आदेश, नियम तथा उपनियम, जो संसद की किसी विधि द्वारा प्रदत्त सत्ता के अंतर्गत कार्यपालिका अथवा प्रशासन के द्वारा जारी किए जाते हों, 'प्रत्यायोजित विधायन' कहलाते हैं। तीव्रगामी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिवर्तनों के कारण वर्तमान समय में प्रतिनिहित विधि निर्माण अपरिहार्य हो गया है। इसकी मात्रा में दिनो-दिन वृद्धि हो रही है। वर्तमान समय में वित्त संबंधी शक्ति, नियम बनाने की शक्ति तथा नीति निर्धारित करने की शक्ति प्रत्यायोजित की जा रही है। लेकिन भारत में प्रतिनिहित विधायन के क्षेत्र में संसदीय नियंत्रण के साथ न्यायिक नियंत्रण की व्यवस्था भी उभरी है। | ||वह आदेश, नियम तथा उपनियम, जो संसद की किसी विधि द्वारा प्रदत्त सत्ता के अंतर्गत कार्यपालिका अथवा प्रशासन के द्वारा जारी किए जाते हों, 'प्रत्यायोजित विधायन' कहलाते हैं। तीव्रगामी आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिवर्तनों के कारण वर्तमान समय में प्रतिनिहित विधि निर्माण अपरिहार्य हो गया है। इसकी मात्रा में दिनो-दिन वृद्धि हो रही है। वर्तमान समय में वित्त संबंधी शक्ति, नियम बनाने की शक्ति तथा नीति निर्धारित करने की शक्ति प्रत्यायोजित की जा रही है। लेकिन [[भारत]] में प्रतिनिहित विधायन के क्षेत्र में संसदीय नियंत्रण के साथ न्यायिक नियंत्रण की व्यवस्था भी उभरी है। | ||
{नकारात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा निम्नलिखित में से किस एक पर बल देती है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-83,प्रश्न-5 | {नकारात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा निम्नलिखित में से किस एक पर बल देती है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-83,प्रश्न-5 | ||
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{किसने कहा "राजनीति शास्त्र का राज्य से प्रारंभ और राज्य के साथ ही अंत होता है"? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-7,प्रश्न-16 | {किसने कहा "राजनीति शास्त्र का [[राज्य]] से प्रारंभ और राज्य के साथ ही अंत होता है"? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-7,प्रश्न-16 | ||
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-कोकर | -कोकर | ||
-सैबाइन | -सैबाइन | ||
+गार्नर | +गार्नर | ||
-अरस्तू | -[[अरस्तू]] | ||
||गार्नर ने अपनी पुस्तक 'Political Science and Government' में राजनीति विज्ञान की 'प्रकृति एवं विषय क्षेत्र' के संबंध में कहा है कि राज्य ही राजनीति विज्ञान का आरंभ और अंत है। इसका संबंध राज्य के सिद्धान्त, संगठन एवं व्यवहार से है। इसके साथ-साथ राज्य की उत्पत्ति एवं प्रकृति का परीक्षण, राजनीतिक संस्थाओं की प्रकृति, इतिहास एवं राज्य के रूपों की जांच पड़ताल, तथा जहां तक संभव हो राजनीतिक प्रगति एवं विकास के नियमों को निगमित करना इसके क्षेत्र में आते हैं। | ||गार्नर ने अपनी पुस्तक 'Political Science and Government' में राजनीति विज्ञान की 'प्रकृति एवं विषय क्षेत्र' के संबंध में कहा है कि राज्य ही राजनीति विज्ञान का आरंभ और अंत है। इसका संबंध [[राज्य]] के सिद्धान्त, संगठन एवं व्यवहार से है। इसके साथ-साथ राज्य की उत्पत्ति एवं प्रकृति का परीक्षण, राजनीतिक संस्थाओं की प्रकृति, [[इतिहास]] एवं राज्य के रूपों की जांच पड़ताल, तथा जहां तक संभव हो राजनीतिक प्रगति एवं विकास के नियमों को निगमित करना इसके क्षेत्र में आते हैं। | ||
{राज्य की उत्पत्ति के संबंध में कौन-सा सिद्धांत सर्वमान्य है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-19,प्रश्न-16 | {[[राज्य]] की उत्पत्ति के संबंध में कौन-सा सिद्धांत सर्वमान्य है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-19,प्रश्न-16 | ||
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-दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत | -दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत | ||
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+विकासवादी सिद्धांत | +विकासवादी सिद्धांत | ||
-सामाजिक समझौता सिद्धांत | -सामाजिक समझौता सिद्धांत | ||
|| | ||वर्तमान समय में राज्य की उत्पत्ति का विकासवादी अर्थात ऐतिहासिक सिद्धांत सबसे अधिक मान्य व सही है। इस सिद्धांत के अनुसार, राज्य समस्त अतीत में हुए विकास का फल है। यह अनेक तत्त्वों जैसे- सामाजिक भावना, रक्त बंधन, शक्ति, आर्थिक गतिविधियों, [[धर्म]] तथा राजनीतिक चेतना का फल है। राज्य का विकास धीरे-धीरे हुआ है। यह कबीली चरण से राष्ट्रीय और वैश्वीकरण की तरफ़ अग्रसर है। बर्गेस के अनुसार, 'मानव प्रकृति के सार्वभौम सिद्धांतों की क्रमिक पूर्णता ही राज्य है"। | ||
{जॉन राल्स ने अपने न्याय सिद्धांत को क्या संज्ञा दी है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-28,प्रश्न-6 | {जॉन राल्स ने अपने न्याय सिद्धांत को क्या संज्ञा दी है? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-28,प्रश्न-6 | ||
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-प्रत्ययात्मक न्याय | -प्रत्ययात्मक न्याय | ||
+शुद्ध प्रक्रियात्मक याय | +शुद्ध प्रक्रियात्मक याय | ||
|| | ||"एक बेहतर न्यायिक समाज की प्रकृति तथा उद्देश्य न्याय सिद्धान्त का मौलिक अंग है", यह कथन जॉन राल्स का है। जॉन राल्स ने अपनी कृति 'ए थ्योरी ऑफ़ जस्टिस' में सामाजिक संविदा और कांट के विधि-दर्शन को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है। जॉन राल्स ने अपने न्याय सिद्धांत को 'शुद्ध प्रक्रियात्मक न्याय' की संज्ञा प्रदान की है। | ||
{"शक्ति की राजनीति, लोक कल्याण की राजनीति, तकनीकी राजनीति तथा दलीय राजनीति की प्रवृत्ति केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति का मुख्य कारण रहा है"- किसने कहा? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-33,प्रश्न-16 | {"शक्ति की राजनीति, लोक कल्याण की राजनीति, तकनीकी राजनीति तथा दलीय राजनीति की प्रवृत्ति केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति का मुख्य कारण रहा है"- किसने कहा? (नागरिक शास्त्र ,पृ.सं-33,प्रश्न-16 |
12:48, 5 अप्रैल 2017 का अवतरण
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