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प्राचीनतम संकेत तैत्तिरीय संहिता<ref>तैत्तिरीय संहिता, 2.5.2.1</ref> में मिलता है-'निवीत शब्द मनुष्यों, प्राचीनावीत पितरों एवं उपवीत देवताओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त होता है; वह जो उपवीत ढंग से अर्थात् बायें कन्धे से लटकता है, अतः वह देवताओ के लिए संकेत करता है।'<ref>निवीतं मनुष्याणां प्राचीनावीतं पितृणामुपवीतं देवानाम्। उप व्ययते देवलक्ष्ममेव तत्कुरुते। तैत्तिरीय संहिता 2.5.11.1।</ref> [[तैत्तिरीय ब्राह्मण]]<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.6.8)</ref> में आया है-"प्राचीनतम ढंग से होकर वह दक्षिण की ओर आहुति देता है, क्योंकि पितरों के लिए कृत्य दक्षिण की ओर ही किए जाते हैं। इसके विपरीत उपवीत ढंग से उत्तर की ओर आहुति देनी चाहिए; देवता एवं पितर इसी प्रकार पूजित होते हैं।" निवीत, प्राचीनावीत एवं उपवीत शब्द गोभिलगृह्यसूत्र<ref>गोभिलगृह्यसूत्र (1.2.2-4)</ref> में समझाये गये हैं, यथा "दाहिने हाथ को उठाकर, सिर को (उपवीत के) बीच में डालकर वह सूत्र को बाँयें कंधे पर इस प्रकार लटकाता है कि वह दाहिनी और लटकता है; इस प्रकार वह यज्ञोपवीती हो जाता है। बाँये हाथ को निकालकर (उपवीत के) बीच में सिर को डालकर वह सूत्र को दाहिने कंधे पर इस प्रकार रखता है कि वह बाँयी ओर लटकता है, इस प्रकार वह प्राचीनावीती हो जाता है। जब पितरों को पिण्डदान किया जाता है, तभी प्राचीनावीती हुआ जाता है।" यही बात खादिर.<ref>खादिर. (1.1.8-9)</ref>, मनु<ref>मनु (2.63)</ref>, बौधायन–गृह्यपरि–भाषासूत्र<ref>बौधायन–गृह्यपरि–भाषासूत्र (2.2.7 एवं 10)</ref> तथा वैखानस<ref>वैखानस (1.5)</ref> में भी पायी जाती है। बौधायनगृह्यसूत्र<ref>बौधायनगृह्यसूत्र (2.2.3)</ref> का कहना है कि-'जब वह कंधों पर रखा जाता है, तो दोनों कंधे एवं छाती (ह्रदय के नीचे किन्तु नाभि के ऊपर) तक रहते हुए दोनों हाथों के अँगूठे से पकड़ा जाता है, इसे ही निवीत कहा जाता है। ऋषि–तर्पण में, सम्भोग में, बच्चों के संस्कारों के समय (किन्तु होम करते समय नहीं), मलमूत्र त्याग करते समय, शव ढोते समय, यानी केवल मनुष्यों के लिए किए जाने वाले कार्यों में निवीत का प्रयोग होता है। गर्दन में लटकने वाले को ही निवीत कहते हैं।' निवीत, प्राचीनावीत एवं उपवीत के विषय में शतपथ ब्राह्मण<ref>शतपथ ब्राह्मण, (2.4.2.1)</ref> भी अवलोकनीय है। यह बात जानने योग्य है कि उस समय इस ढंग से शरीर को परिधान से ढँका जाता था, यज्ञोपवीत या निवीत या प्राचीनावीत को (सूत्र) के रूप में पहनने के ढंग का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। इससे प्रकट होता है कि पुरुष लोग देवी की पूजा में परिधान धारण करते थे, न कि सूत्रों से बना हुआ कोई जनेऊ आदि पहनते थे। तैत्तिरीय ब्राह्मण<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.9)</ref> में आया है कि जब वाक् (वाणी) की देवी देवभाग गौतम के समक्ष उपस्थित हुई तो उन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया और '''नमो नमः''' शब्द के साथ देवी के समक्ष गिर पड़े, अर्थात् झुककर या दण्डवत गिरकर प्रणाम किया।<ref>एतावति ह गौतमो यज्ञोपवीतं कृत्वा अधो निपपात नमो नम इति। तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.10.9। [[सायण]] का कहना है—"स्वकीयेन वस्त्रेण यज्ञोपवीतं कृत्वा।"</ref>
 
संघीय मंत्रिपरिषद् (UNION COUNCIL OF MINISTERS)
 
अनुच्छेद 74(1) यह उपबंधित करता है कि राष्ट्रपति को उसके कृत्यों के संचालन एवं शक्तियों के प्रयोग में सहायता और मंत्रणा देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी। यह प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कार्य करती है।
गठन–
संघ मंत्रिपरिषद् का गठन प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति के द्वारा किया जाता है। मंत्रिमण्डल का गठन कैबिनेट स्तर के मंत्रियों से होता है। मूल संविधान में कैबिनेट शब्द का उल्लेख नहीं किया गया था। परन्तु बाद में 44वें संविधान संशोधन (1978) के द्वारा अनुच्छेद 352 के तहत कैबिनेट शब्द को सम्मिलित किया गया। जब मंत्रिमण्डल के सदस्यों को उनके कार्यों में सहायता देने के लिए राज्य मंत्रियों और उपमंत्रियों को नियुक्त किया जाता है, तब इन्हें मिलाकर मंत्रिमण्डल को मंत्रिपरिषद् की संज्ञा दी जाती है। मंत्रिपरिषद् तीन स्तरीय होता है, अर्थात् (1) कैबिनेट स्तर का मंत्री, (2) राज्य स्तर का मंत्री, तथा (3) उपमंत्री। कैबिनेट स्तर का मंत्री अपने विभाग का अध्यक्ष होता है तथा उसकी सहायता के लिए राज्यमंत्री तथा उपमंत्री नियुक्ति की जाती है। राज्यमंत्री को किसी विभाग का प्रभार स्वरूप रूप से सौंपा जा सकता है। सरकार की नीति का निर्णय मत्रिमंण्डल के सदस्यों के द्वारा किया जाता है लेकिन किसी विभाग के सम्बन्ध में मंत्रिमण्डल द्वारा नीति निर्धारण करते समय उस विभाग के राज्यमंत्री को विशेष आमंत्रित के रूप में नीति निर्धारण कार्यवाही में सम्मिलित किया जा सकता है।
 
मंत्रियों की संख्या–
मूल संविधान में मंत्रिपरिषद् में सदस्यों (मंत्रियों) की संख्या निर्धारित नहीं थी। प्रधानमंत्री अपने विवेकाधिकार के आधार पर मंत्रिपरिषद् के आकार को सुनिश्चित करता था। परन्तु 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2004 के द्वारा यह निर्धारित किया गया है कि केन्द्रीय मंत्रिपरिषद् में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या लोकसभा के कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। इन प्रकार प्रधानमंत्री अब मंत्रिपरिषद् में सदस्यों की अधिकतम संख्या के मामले में अपने विवेक का प्रयोग नहीं कर सकता है।
मंत्रिपरिषद् में उन्हीं व्यक्तियों को शामिल किया जाता है, जो संसद के सदस्य होते हैं। लेकिन संसद सदस्य न होने वाले व्यक्ति को भी मंत्रिपरिषद में शामिल किया जा सकता है। यदि ऐसे व्यक्ति को मंत्रिपरिषद में शामिल किया जाता है तो उसे 6 मास के अन्दर संसद के किसी सदन का सदस्य निर्वाचित होना पड़ता है। परन्तु संविधान में यह व्यवस्था नहीं दी गयी है कि ऐसा व्यक्ति इस्तीफ़ा देकर पुन: मंत्रिपरिषद का सदस्य बन सकता है या नहीं। सरकार ने इस अस्पष्ट प्रावधान का लाभ उठाते हुए उस व्यक्ति को पुन: मंत्रिपरिषद में शामिल कर लेते थे। अब 16 अगस्त, 2001 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए व्यवस्था दी कि विधायिका का सदस्य निर्वाचित हुए बिना कोई भी व्यक्ति 6 महीने से अधिक मंत्री पद धारण नहीं कर सकता। यदि इस व्यक्ति को 6 महीने के बाद विधायिका के उसी सत्र में मंत्री पद पर दोबारा बहाल किया जाता है तो आवश्यक है कि वह चुनाव जीत कर सदन का सदस्य बने। यदि मंत्री पद पर आसीन गैर निर्वाचित व्यक्ति दिये गये 6 महीने की अवधि में चुनाव जीतने में असफल रहता है और उस व्यक्ति को दोबारा मंत्री पद पर बहाल किया जाता है तो यह संविधान के अनुच्छेद 164(1) और 164(4) की योजना पर आघात जैसा होगा।
 
वेतन एवं भत्ते–
10 जनवरी, 2008 को लिये गये निर्णय के अनुसार कैबिनेट स्तर के मंत्री का वेतन 65,000 रुपये मासिक निर्धारित किया गया है। इसके अतिरिक्त उनके रहने के लिए सरकारी आवास तथा जब वे सरकारी कार्य के लिए बाहर जाते हैं तो यात्रा भत्ता भी मिलता है।  
 
कार्य–
संघ मंत्रिमण्डल में ही कार्यपालिका की वास्तविक शक्ति निहित है तथा राष्ट्रपति संघ मंत्रिमण्डल की सलाह के अनुसार अपनी शक्तियों का प्रयोग करता है। मंत्रिमण्डल देश के प्रशासन, आर्थिक सुधार, सुरक्षा तथा विदशी राज्यों के सम्बन्ध में नीति का निर्धारण करता है और मंत्रिमण्डल द्वारा निर्धारित नीति के अनुसार ही संघ का शासन संचालित होता है।
 
मंत्रिपरिषद का सामूहिक तथा व्यक्तिगत उत्तरदायित्व–
संघ मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होता है तथा मंत्रिपरिषद का प्रत्येक सदस्य मंत्रिमण्डल के निर्णय के लिए उत्तरदायी होता है। इसके अतिरिक्त मंत्री अपने विभाग के अधिकारियों के कार्य के लिए भी संसद के प्रति उत्तरदायी होता है। कोई भी मंत्री अपने विभाग के कार्यों के दायित्व से अधिकारियों पर दोष लगाकर बच नहीं सकता है। मंत्री के विभाग के मामलों के सम्बन्ध में संसद में उससे प्रश्न पूछा जा सकता है, जिसका उत्तर मंत्री को देना पड़ता है, लेकिन कभी-कभी वह लोकहित अथवा गोपनीयता के आधार पर उत्तर देने से इन्कार कर सकता है। इस प्रकार से मंत्री का दोहरा उत्तरदायित्व है। अपने विभाग के लिए वह व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी है। जबकि अन्य मंत्रियों के विभागों के लिए अन्य मंत्रियों के साथ सामूहिक रूप से उत्तदायी है।
 
मंत्रिपरिषद् की पदावधि–
मंत्रिपरिषद् तब तक अपने पद पर बना रहता है, जब तक की उसे लोकसभा से बहुमत प्राप्त रहता है तथा लोकसभा के नये चुनाव के बाद नये मंत्रिमण्डल का गठन नहीं हो जाता। मंत्रिपरिषद् का कोई भी सदस्य प्रधानमंत्री के साथ मतभेद होने के कारण त्यागपत्र दे सकता है या प्रधानमंत्री राष्ट्रपति से सिफ़ारिश कर उसे बर्ख़ास्त कर सकता है। यदि कोई मंत्री संसद का सदस्य नहीं रह जाता, तो उसे त्यागपत्र देना पड़ता है। लेकिन कोई मंत्री संसद का सदस्य न रहते हुए भी मंत्री के पद पर रह सकता है, बशर्ते वह 6 महीने के भीतर संसद के किसी सदन का सदस्य बन जाए। यदि मंत्रिपरिषद् लोकसभा में विश्वास का मत प्राप्त करने में असफल रहने के बावजूद त्यागपत्र नहीं देता, तो उसे राष्ट्रपति बर्ख़ास्त कर सकता है।
यू. एन. राव बनाम इंदिरा गांधी मामले में उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि लोकसभा के विघटन हो जाने पर भी मंत्रिमण्डल समाप्त नहीं होगा और वह राष्ट्रपति को सलाह देता रहेगा। यदि राष्ट्रपति मंत्रिमण्डल की सलाह के बिना कार्य करता है तो वह अनुच्छेद 53(1) के विपरीत होगा। केन्द्र में कार्यवाहक सरकार का उपबंध नहीं किया गया है। अत: जो मंत्रिमण्डल पहले से ही कार्य कर रहा होता है, लोकसभा के विघटन की स्थिति में भी वह पूर्ण मंत्रिमण्डल होता है। इसका अस्तित्व तब तक बना रहता है जब तक कि नई लोकसभा के गठन के पश्चात् नई मंत्रिपरिषद् कर्यभार ग्रहण नहीं कर लेती।
 
संघ के मंत्रालय एवं विभाग–
संघ मंत्रालय में अनेक विभाग हैं, जिनकी संख्या समयानुसार परिवर्तित होती रहती है। 15 अगस्त, 1947 को संघ मंत्रालयों की संख्या 18 थी, जिसे 13 सितम्बर, 2008 को बढ़ाकर 55 कर दिया गया। ये मंत्रालय तथा इनके विभाग निम्न प्रकार से हैं–
(1)कृषि विभाग
(क)कृषि तथा सहकारिता विभाग
(ख)कृषि अनुसंधान और शिक्षा विभाग
(ग)पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन विभाग
 
(2)वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय
(क)वाणिज्य विभाग
(ख)औद्योगिक नीति और संवर्द्धन विभाग
 
(3)संचार और सूचना प्रौद्यागिकी मंत्रालय
(क)डाक विभाग
(ख)दूर संचार विभाग
(ग)रक्षा अनुसंधान तथा विकास विभाग
 
(4)रक्षा मंत्रायलय
(क)रक्षा विभाग
(ख)रक्षा उत्पादन तथा आपूर्ति विभाग
(ग)रक्षा अनुसंधान तथा विकास विभाग
 
(5)कोयला मंत्रालय
(6)पर्यावरण तथा वन मंत्रालय
(7)विदेश मंत्रालय
(8)वित्त मंत्रालय
(क) आर्थिक कार्य विभाग
(ख)व्यय विभाग
(ग)विनिवेश विभाग
(घ)राजस्व विभाग
(ड)वित्तीय सेवाएं विभाग
 
(9)उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय
(क)खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग
(ख)उपभोक्ता मामले विभाग
 
(10)स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय
(क) स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग
(ख)भारतीय चिकित्सा पद्धति एवं होमियोपैथी विभाग (आयुष)
 
(11)गृह मंत्रालय
(क)आन्तरिक सुरक्षा विभाग
(ख)राज्य विभाग
(ग)राजभाषा विभाग
(घ)गृह विभाग
(ड)जम्मू कश्मीर विभाग
(च)सीमा प्रबंधन विभाग
 
(12)मानव संसाधन विकास मंत्रालय
(क)स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग
(ख)उच्चतर शिक्षा विभाग
 
(13)भारी उद्योग और लोक उद्यम मंत्रालय
(क)भारी उद्योग विभाग
(ख)लोक उद्यम विभाग
 
(14)सूचना और प्रसारण मंत्रालय
(15)श्रम और रोज़गार मंत्रालय
(16)विधि और न्याय विभाग
(क)विधि कार्य विभाग
(ख)विधायी विभाग
(ग)न्याय विभाग
(17)संसदीय कार्य मंत्रालय


(18)कार्मिक, सार्वजनिक शिकायत तथा पेंशन मंत्रालय
तैत्तिरीय आरण्यक<ref>तैत्तिरीय आरण्यक, (2.1)</ref> से पता चलता है कि प्राचीन काल में उपवीत के लिए काले हरिण का चर्म या वस्त्र उपयोग में लाया जाता था। ऐसा आया है- 'जो यज्ञोपवीत धारण करके [[यज्ञ]] करता है, उसका यज्ञ फलता है, जो यज्ञोपवीत नहीं धारण करता, उसका यज्ञ ऐसा नहीं होता है। यज्ञोपवीत धारण करके, ब्राह्मण जो कुछ भी पढ़ता है, वह यज्ञ है। अतः अध्ययन, यज्ञ या आचार्य–कार्य करते समय यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। मृगचर्म या वस्त्र दाहिनी ओर धारण कर दाहिना हाथ उठाकर तथा बाँयाँ गिराकर ही यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। जब यह ढंग उलट दिया जाता है तो इसे प्राचीनावीत कहते हैं और संवीत स्थिति मनुष्यों के लिए ही होती है।' स्पष्ट है कि यहाँ पर उपवीत के लिए कोई सूत्र नहीं है, 'प्रत्युत मृगचर्म या वस्त्र है'। पराशरमाधवीय<ref>पराशरमाधवीय, (भाग 1, पृ0 173)</ref> ने उपर्युक्त कथन का एक भाग उदधृत करते हुए लिखा है कि तैत्तिरीयारण्यक के अनुसार मृगचर्म या रुई के वस्त्र में से कोई एक धारण करने पर कोई उपवीती बन सकता है। कुछ सूत्रकारों एवं टीकाकारों से संकेत मिलता है कि उपवीत में वस्त्र का प्रयोग होता था। [[आपस्तम्ब धर्मसूत्र]]<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.22-23)</ref> का कहना है कि गृहस्थ को उत्तरीय धारण करना चाहिए, किन्तु वस्त्र के अभाव में सूत्र भी उपयोग में लाए जा सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि मौलिक रूप में उपवीत का तात्पर्य था ऊपरी, न की केवल सूत्रों की डोरी। एक स्थान पर<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.8.19.12)</ref> इसी सूत्र ने यह भी लिखा है–'(जो श्राद्ध का भोजन खाये) उसे बाँयें कंधे पर उत्तरीय डालकर उसे दाहिनी ओर लटकाकर खाना चाहिए।' हरदत्त ने इसकी व्याख्या दो प्रकार से की है-
()कार्मिक तथा प्रशिक्षण विभाग
#श्राद्ध–भोजन करते समय यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए अर्थात् उसे उत्तरीय बाँय कंधे पर तथा दाहिने हाथ के नीचे लटकता हुआ रखना चाहिए; इसका यह तात्पर्य हुआ कि ब्राह्मण को आपस्तम्ब धर्मसूत्र<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.23)</ref> पर विश्वास करके श्राद्ध–भोजन के समय पवित्र सूत्र धारण नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उसे उसी रूप में वस्त्र धारण करना चाहिए और सूत्र का त्याग कर देना चाहिए।
()प्रशासनिक सुधार तथा सार्वजनिक शिकायत विभाग
#दूसरा मत यह है कि उसे उपवीत ढंग से पवित्र सूत्र एवं वस्त्र दोनों धारण करने चाहिए। आपस्तम्ब धर्मसूत्र<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (1.5.15.1)</ref> ने व्यवस्था दी है कि एक व्यक्ति को गुरुजनों, श्रद्धास्पदों की प्रतीक्षा करते समय या उनकी पूजा करते समय, होम के समय, जप करते हुए, भोजन, आचमन एवं वैदिक अध्ययन के समय यज्ञोपवीत होना चाहिए। इस पर हरदत्त ने यों व्याख्या की है- 'यज्ञोपवीत का अर्थ है एक विशिष्ट ढंग से उत्तरीय धारण करना, यदि किसी के पास उत्तरीय (ऊपरी अंग के लिए) न हो तो उसे आपस्तम्ब धर्मसूत्र<ref>आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.23)</ref> में वर्णित ढंग से काम करना चाहिए; अन्य समयों में यज्ञोपवीत की आवश्यकता नहीं है।<ref>नित्यमुत्तरं वासः कार्यम्। अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्थे। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 2.2.4.22-23; सोत्तराच्छादनश्चैव यज्ञोपवीती भुञ्जीत। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 2.8.19.12; हरदत्त ने व्याख्या की है- 'उत्तराच्छादनमुपरिवासः, तेन यज्ञोपवीतेन यज्ञोपवीतं कृत्वा भुञ्जीत। नास्य भोजने 'अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्ये' इत्ययं कल्पो भवतीत्ययेके। समुच्चय इत्यन्ये'; यज्ञोपवीती द्विवस्त्रः। अधोनिवीतस्त्वेकवस्त्रः। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1.2.6.18-19; उपासने गुरूणां वृद्धानाम–तिथिनां होमे जप्यकर्मणि भोजने आचमने स्वाध्याये च यज्ञोपवीती स्यात्। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1.5.15.1, हरदत्त ने लिखा है-
 
<poem>'वासोविन्यासविशेषो यज्ञोपवीतम्।
(19)पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस मंत्रालय
दक्षिणं बाहुमृद्धरत इति ब्राह्मणविहितम्।
(20)योजना मंत्रालय
वाससोऽसंभवेऽनुकल्पं वक्ष्यति-अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्थ इति।
(21)शहरी आवास और शहरी गरीबी उपशमन मंत्रालय
एषु विधानात् कालान्तरे नावश्यंभावः।'</poem> देखिए औशनसस्मृति-
<poem>'अग्न्यगारे गवां गोष्ठे होमे जप्ये तथैव च।
स्वाध्याये भोजने नित्यं ब्राह्मणानां च संनिधौ।
उपासने गुरूणां च संध्ययोरुभयोरपि।
उपवीती भवेन्नित्यं विधिरेष सनातनः।।'</ref></poem>
गोभिल गृह्यसूत्र<ref>गोभिल गृह्यसूत्र, (1.2.1)</ref> में आया है कि विद्यार्थी यज्ञोपवीत के रूप में सूत्रों की डोरी, वस्त्र या कुश की रस्सी धारण करता है।<ref>यज्ञोपवीतं कुरुते वस्त्रं वापि वा कुशरज्जुमेव। गोभिल गृह्यसूत्र, (1.2.1);
<poem>सूत्रमपि वस्त्राभावाद्धेदितव्यभिति।
अपि वाससा यज्ञोपवीतार्थान् कुर्यात्तदभावे त्रिवृता सूत्रेणेति ऋष्यशृंगस्मरणात्।</poem>
स्मृतिचन्द्रिका, जिल्द 1, पृ0 32।</ref> इससे स्पष्ट है कि गोभिल के काल में जनेऊ का रूप प्रचलित था और वह यज्ञोपवीत का उचित रूप माना जाने लगा था, किन्तु वही अन्तिम रूप नहीं था, उसके स्थान पर वस्त्र भी धारण किया जा सकता था। बहुत–से गृहसूत्रों में सूत्र रूप में यज्ञोपवीत का वर्णन नहीं मिलता और न उसे पहनते समय किसी वैदिक मन्त्र की आवश्यकता ही समझी गयी।<ref>(जबकि [[उपनयन]]–सम्बन्धी अन्य कृत्यों के लिए वैदिक मन्त्रों की भरमार पायी जाती है)</ref> अतः ऐसी कल्पना करना उचित ही है कि बहुत प्राचीन काल में सूत्र धारण नहीं किया जाता था। आरम्भ में उत्तरीय ही धारण किया जाता था। आगे चलकर सूत्र भी, जिसे हम जनेऊ कहते हैं, प्रयोग में आने लगा। '''यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम्''' वाला मन्त्र केवल बौधायन गृह्यसूत्र<ref>बौधायन गृह्यसूत्र, 2.5.7-8</ref> एवं वैखानस<ref>वैखानस, 2.|5</ref> में मिलता है। यह प्राचीनतम धर्मशास्त्र ग्रन्थों में नहीं पाया जाता। मनु<ref>मनु, (2.44)</ref> ने भी उपवीत के विषय में चर्चा चलायी है।


(22)विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय
यज्ञोपवीत के विषय में कई नियम बने हैं।<ref>देखिए स्मृत्यर्थसार, पृ0 4 एवं संस्कारप्रकाश, पृ0 416-418, जहाँ उपवीत के निर्माण एवं निर्माता के विषय में चर्चा की गयी है। सौभाग्यवती नारी के द्वारा निर्मित उपवीत विधवा द्वारा निर्मित उपवीत से अच्छा माना जाता था। आचाररत्न में उद्धृत मदनरत्न ने मनु, (2.44) के ऊर्ध्ववृत को इस प्रकार समझाया है- 'करेण दक्षिणेनोर्ध्वगतेन त्रिगुणीकृतम्। वलितं मानवे शास्त्रे सूत्रभूर्ध्ववृतं स्मृतम्।।' (पृ0 2)।</ref> यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं, जिनमें प्रत्येक सूत्र में नौ धागे (तन्तु) होते हैं, जो भली भाँति बँटे एवं माँजे हुए रहते हैं।<ref>कौशं सूत्रं वा त्रिस्त्रिवृद्यज्ञोपवीतम्। आ नाभेः। [[बौधायन धर्मसूत्र]] 1.5.5; उक्तं देवलेन-यज्ञोपवीतं कुर्वीत सूत्रेण नवतन्तुकम्-इति। स्मृतिचन्द्रिका, भाग 1, पृष्ठ 31।</ref> देवल ने नौ तन्तुओं (धागों) के नौ देवताओं के नाम लिखे हैं, यथा ओंकार, [[अग्नि देव|अग्नि]], नाग, सोम, पितर, प्रजापति, वायु, सूर्य एवं विश्वेदेव।<poem><ref>अत्र प्रतितन्तु देवताभेदमाह देवलः।
(क)विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग
ओंकारः प्रथमस्तन्तुर्द्धियीयोऽग्निस्तथैवच।
(ख)विज्ञान तथा औद्योगिक विकास विभाग
तृतीयो नागदैववत्यश्चतुर्थो सोमदेववतः।
(ग)बायो-टैक्नोलॉजी विभाग
पञ्चमः पितृदैवत्यः षष्ठश्चैव प्रजापतिः।
 
सप्तमी वायुदैवत्यः सूर्यश्चाष्टम एव च।।
(23)इस्पात मंत्रालय
नवमः सर्वदैवत्य इत्येते नज तन्तवः।।
(24)नागर विमानन मंत्रालय
स्मृतिच0, भाग 1, पृ0 31।</ref></poem> यज्ञोपवीत केवल नाभि तक, उसके आगे नहीं और न छाती के ऊपर तक होना चाहिए।<poem><ref>कात्यायनस्तु परिमाणान्तमाह।
 
पृष्ठवंशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम।
(25)रसायन और उर्वरक मंत्रालय
तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम्.....देवल।
(क) रसायन और पेट्रो-रसायन विभाग
स्तनादूर्ध्वमधो नाभेर्न कर्तव्यं कथंचन।
()उर्वरक विभाग
स्मृतिचन्द्रिका, वही पृ0 31।</ref></poem> मनु<ref>मनु, (2|44)</ref> एवं विष्णुधर्मसूत्र (27|19) के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रीय एवं वैश्य के लिए यज्ञोपवीत क्रम से रुई, शण (सन) एवं ऊन का होना चाहिए। बौधायनधर्मसूत्र (1|5|5) एवं गोभिलगृह्यसूत्र (1|2|1) के अनुसार यज्ञोपवीत रुई या कुश का होना चाहिए; किन्तु देवल के अनुसार सभी द्विजातियों का यज्ञोपवीत कपास (रुई), क्षुमा (अलसी या तीसी), गाय की पूँछ के बाल, पटसन वृक्ष की छाल या कुश का होना चाहिएं इनमें से जो भी सुविधा से प्राप्त हो सके उसका यज्ञोपवीत बन सकता है।<ref>कार्पासक्षौमगोबालशणवल्कतृणोद्भवम्। सदा सम्भवतः कार्यमुपवीतं द्विजातिभिः।। पराशरमाधवीय (1|2) एवं वृद्ध हारीत (7|47-48) में यही बात पायी जाती है।</ref>
 
यज्ञोपवीत की संख्या में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन पाया जाता है। ब्रह्मचारी केवल एक यज्ञोपवीत धारण करता था और संन्यासी, यदि वह पहने तो, केवल एक ही धारण कर सकता था। स्नातक (जो ब्रह्मचर्य के पश्चात् गुरुगेह से अपने माता–पिता के घर चला जाता था) एवं गृहस्थ दो यज्ञोपवीत तथा जो दीर्ष जीवन चाहे वह दो से अधिक यज्ञोपवीत पहन सकता था।<ref>स्नातकानां तु नित्यं स्यादन्तर्वासस्तथोत्तरम।यज्ञोपवीते द्वे यष्टिःसोदकश्च कमण्डलुः।। वसिष्ठ 12|14; विष्णुधर्मसूत्र 71|13-15 में भी यही बात है। मिताक्षरा ने याज्ञवल्क्य (1|133) की व्याख्या में वसिष्ठ को उद्धृत किया है। मिलाइए मनु 4-36; एकैकमुपवीतं तु यतीनां ब्रह्मचारिणाम्। गृहिणां च वनस्थानामुपवीतद्वयं स्मृतम्।। सोत्तरीयं त्रयं वापि विभृयाच्छुभतन्तु वा। वृद्ध हारीत 8|44-45। देखिए देवल (स्मृतिच0 में उद्धृत, भाग 1, पृ0 32) श्रीणि चत्वारि पञ्चाष्ट गृहिणः स्युर्दशापि वा। सर्वेर्वा शुत्तिभिर्धार्यमु पवीतं द्विजातिभिः।। संस्कारमयूख में उद्धृत कश्यप। </ref> जिस प्रकार से आज हम यज्ञोपवीत धारण करते हैं, वैसा प्राचीनकाल में नियम था ही नहीं, स्पष्ट रूप से कह नहीं सकते, किन्तु ईसा के बहुत पहले यह ब्राह्मणों के लिए अपरिहार्य नियम था कि वे कोई कृत्य करते समय यज्ञोपवीत को धारण करें, अपनी शिखा को बाँधे रखें, क्योंकि बिना इसके किया हुआ कर्म मान्य नहीं हो सकता। वसिष्ठ (8|9) एवं बौधायनधर्मसूत्र (2|2|1) के अनुसार पुरुष को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। उद्योगवर्व (महाभारत) का 40|25 भी पठनीय है।<ref>नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नितयस्वाध्यायी पतितान्नवर्जी। ऋतो च गच्छन् विधिवच्च जुह्वन्न ब्राह्मण–श्च्चवते ब्रह्मलोकात्।। वसिष्ठ</ref> ref></ref>
(26)ग्रामीण विकास मंत्रालय
==Tikaa tipani==
(क)ग्रामीण विकास विभाग
<references/>
(ख)भूमि संरक्षण विभाग
(ग)पेयजल आपूर्ति विभाग
 
(27)वस्त्र मंत्रालय
(28)खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय
(29)नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय
 
(30)पोत परिवहन, सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय
(क)पोत परिवहन विभाग
(ख)सड़क परिवहन और राजमार्ग विभाग
 
(31)रेल मंत्रालय
(32)विद्युत मंत्रालय
(33)पर्यटन मंत्रालय
(34)सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय
(35)जल संसाधन मंत्रालय
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(40)युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय
(41)मंत्रिमण्डल सचिवालय
(42)राष्ट्रपति का सचिवालय
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(44)योजना आयोग
(45)सूक्ष्म, लघु और मध्यम अद्यम मंत्रालय
(46)उत्तर पूर्वी क्षेत्र विकास मंत्रालय
(47)संस्कृति मंत्रालय
(48)निगम (कारपोरेट) कार्य मंत्रालय
(49)अप्रवासी भारतीयों के मामलों को मंत्रालय
(50)खान मंत्रालय
(51)भू-विज्ञान मंत्रालय
(52)अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय
(53)पंचायती राज मंत्रालय
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(55)महिला और बाल विकास मंत्रालय
 
 
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|}

12:17, 5 सितम्बर 2010 का अवतरण

प्राचीनतम संकेत तैत्तिरीय संहिता[1] में मिलता है-'निवीत शब्द मनुष्यों, प्राचीनावीत पितरों एवं उपवीत देवताओं के सम्बन्ध में प्रयुक्त होता है; वह जो उपवीत ढंग से अर्थात् बायें कन्धे से लटकता है, अतः वह देवताओ के लिए संकेत करता है।'[2] तैत्तिरीय ब्राह्मण[3] में आया है-"प्राचीनतम ढंग से होकर वह दक्षिण की ओर आहुति देता है, क्योंकि पितरों के लिए कृत्य दक्षिण की ओर ही किए जाते हैं। इसके विपरीत उपवीत ढंग से उत्तर की ओर आहुति देनी चाहिए; देवता एवं पितर इसी प्रकार पूजित होते हैं।" निवीत, प्राचीनावीत एवं उपवीत शब्द गोभिलगृह्यसूत्र[4] में समझाये गये हैं, यथा "दाहिने हाथ को उठाकर, सिर को (उपवीत के) बीच में डालकर वह सूत्र को बाँयें कंधे पर इस प्रकार लटकाता है कि वह दाहिनी और लटकता है; इस प्रकार वह यज्ञोपवीती हो जाता है। बाँये हाथ को निकालकर (उपवीत के) बीच में सिर को डालकर वह सूत्र को दाहिने कंधे पर इस प्रकार रखता है कि वह बाँयी ओर लटकता है, इस प्रकार वह प्राचीनावीती हो जाता है। जब पितरों को पिण्डदान किया जाता है, तभी प्राचीनावीती हुआ जाता है।" यही बात खादिर.[5], मनु[6], बौधायन–गृह्यपरि–भाषासूत्र[7] तथा वैखानस[8] में भी पायी जाती है। बौधायनगृह्यसूत्र[9] का कहना है कि-'जब वह कंधों पर रखा जाता है, तो दोनों कंधे एवं छाती (ह्रदय के नीचे किन्तु नाभि के ऊपर) तक रहते हुए दोनों हाथों के अँगूठे से पकड़ा जाता है, इसे ही निवीत कहा जाता है। ऋषि–तर्पण में, सम्भोग में, बच्चों के संस्कारों के समय (किन्तु होम करते समय नहीं), मलमूत्र त्याग करते समय, शव ढोते समय, यानी केवल मनुष्यों के लिए किए जाने वाले कार्यों में निवीत का प्रयोग होता है। गर्दन में लटकने वाले को ही निवीत कहते हैं।' निवीत, प्राचीनावीत एवं उपवीत के विषय में शतपथ ब्राह्मण[10] भी अवलोकनीय है। यह बात जानने योग्य है कि उस समय इस ढंग से शरीर को परिधान से ढँका जाता था, यज्ञोपवीत या निवीत या प्राचीनावीत को (सूत्र) के रूप में पहनने के ढंग का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। इससे प्रकट होता है कि पुरुष लोग देवी की पूजा में परिधान धारण करते थे, न कि सूत्रों से बना हुआ कोई जनेऊ आदि पहनते थे। तैत्तिरीय ब्राह्मण[11] में आया है कि जब वाक् (वाणी) की देवी देवभाग गौतम के समक्ष उपस्थित हुई तो उन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया और नमो नमः शब्द के साथ देवी के समक्ष गिर पड़े, अर्थात् झुककर या दण्डवत गिरकर प्रणाम किया।[12]

तैत्तिरीय आरण्यक[13] से पता चलता है कि प्राचीन काल में उपवीत के लिए काले हरिण का चर्म या वस्त्र उपयोग में लाया जाता था। ऐसा आया है- 'जो यज्ञोपवीत धारण करके यज्ञ करता है, उसका यज्ञ फलता है, जो यज्ञोपवीत नहीं धारण करता, उसका यज्ञ ऐसा नहीं होता है। यज्ञोपवीत धारण करके, ब्राह्मण जो कुछ भी पढ़ता है, वह यज्ञ है। अतः अध्ययन, यज्ञ या आचार्य–कार्य करते समय यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। मृगचर्म या वस्त्र दाहिनी ओर धारण कर दाहिना हाथ उठाकर तथा बाँयाँ गिराकर ही यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। जब यह ढंग उलट दिया जाता है तो इसे प्राचीनावीत कहते हैं और संवीत स्थिति मनुष्यों के लिए ही होती है।' स्पष्ट है कि यहाँ पर उपवीत के लिए कोई सूत्र नहीं है, 'प्रत्युत मृगचर्म या वस्त्र है'। पराशरमाधवीय[14] ने उपर्युक्त कथन का एक भाग उदधृत करते हुए लिखा है कि तैत्तिरीयारण्यक के अनुसार मृगचर्म या रुई के वस्त्र में से कोई एक धारण करने पर कोई उपवीती बन सकता है। कुछ सूत्रकारों एवं टीकाकारों से संकेत मिलता है कि उपवीत में वस्त्र का प्रयोग होता था। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[15] का कहना है कि गृहस्थ को उत्तरीय धारण करना चाहिए, किन्तु वस्त्र के अभाव में सूत्र भी उपयोग में लाए जा सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि मौलिक रूप में उपवीत का तात्पर्य था ऊपरी, न की केवल सूत्रों की डोरी। एक स्थान पर[16] इसी सूत्र ने यह भी लिखा है–'(जो श्राद्ध का भोजन खाये) उसे बाँयें कंधे पर उत्तरीय डालकर उसे दाहिनी ओर लटकाकर खाना चाहिए।' हरदत्त ने इसकी व्याख्या दो प्रकार से की है-

  1. श्राद्ध–भोजन करते समय यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए अर्थात् उसे उत्तरीय बाँय कंधे पर तथा दाहिने हाथ के नीचे लटकता हुआ रखना चाहिए; इसका यह तात्पर्य हुआ कि ब्राह्मण को आपस्तम्ब धर्मसूत्र[17] पर विश्वास करके श्राद्ध–भोजन के समय पवित्र सूत्र धारण नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उसे उसी रूप में वस्त्र धारण करना चाहिए और सूत्र का त्याग कर देना चाहिए।
  2. दूसरा मत यह है कि उसे उपवीत ढंग से पवित्र सूत्र एवं वस्त्र दोनों धारण करने चाहिए। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[18] ने व्यवस्था दी है कि एक व्यक्ति को गुरुजनों, श्रद्धास्पदों की प्रतीक्षा करते समय या उनकी पूजा करते समय, होम के समय, जप करते हुए, भोजन, आचमन एवं वैदिक अध्ययन के समय यज्ञोपवीत होना चाहिए। इस पर हरदत्त ने यों व्याख्या की है- 'यज्ञोपवीत का अर्थ है एक विशिष्ट ढंग से उत्तरीय धारण करना, यदि किसी के पास उत्तरीय (ऊपरी अंग के लिए) न हो तो उसे आपस्तम्ब धर्मसूत्र[19] में वर्णित ढंग से काम करना चाहिए; अन्य समयों में यज्ञोपवीत की आवश्यकता नहीं है।[20]</poem>

गोभिल गृह्यसूत्र[21] में आया है कि विद्यार्थी यज्ञोपवीत के रूप में सूत्रों की डोरी, वस्त्र या कुश की रस्सी धारण करता है।[22] इससे स्पष्ट है कि गोभिल के काल में जनेऊ का रूप प्रचलित था और वह यज्ञोपवीत का उचित रूप माना जाने लगा था, किन्तु वही अन्तिम रूप नहीं था, उसके स्थान पर वस्त्र भी धारण किया जा सकता था। बहुत–से गृहसूत्रों में सूत्र रूप में यज्ञोपवीत का वर्णन नहीं मिलता और न उसे पहनते समय किसी वैदिक मन्त्र की आवश्यकता ही समझी गयी।[23] अतः ऐसी कल्पना करना उचित ही है कि बहुत प्राचीन काल में सूत्र धारण नहीं किया जाता था। आरम्भ में उत्तरीय ही धारण किया जाता था। आगे चलकर सूत्र भी, जिसे हम जनेऊ कहते हैं, प्रयोग में आने लगा। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम् वाला मन्त्र केवल बौधायन गृह्यसूत्र[24] एवं वैखानस[25] में मिलता है। यह प्राचीनतम धर्मशास्त्र ग्रन्थों में नहीं पाया जाता। मनु[26] ने भी उपवीत के विषय में चर्चा चलायी है।

यज्ञोपवीत के विषय में कई नियम बने हैं।[27] यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं, जिनमें प्रत्येक सूत्र में नौ धागे (तन्तु) होते हैं, जो भली भाँति बँटे एवं माँजे हुए रहते हैं।[28] देवल ने नौ तन्तुओं (धागों) के नौ देवताओं के नाम लिखे हैं, यथा ओंकार, अग्नि, नाग, सोम, पितर, प्रजापति, वायु, सूर्य एवं विश्वेदेव।

यज्ञोपवीत केवल नाभि तक, उसके आगे नहीं और न छाती के ऊपर तक होना चाहिए।

मनु[31] एवं विष्णुधर्मसूत्र (27|19) के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रीय एवं वैश्य के लिए यज्ञोपवीत क्रम से रुई, शण (सन) एवं ऊन का होना चाहिए। बौधायनधर्मसूत्र (1|5|5) एवं गोभिलगृह्यसूत्र (1|2|1) के अनुसार यज्ञोपवीत रुई या कुश का होना चाहिए; किन्तु देवल के अनुसार सभी द्विजातियों का यज्ञोपवीत कपास (रुई), क्षुमा (अलसी या तीसी), गाय की पूँछ के बाल, पटसन वृक्ष की छाल या कुश का होना चाहिएं इनमें से जो भी सुविधा से प्राप्त हो सके उसका यज्ञोपवीत बन सकता है।[32]

यज्ञोपवीत की संख्या में परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन पाया जाता है। ब्रह्मचारी केवल एक यज्ञोपवीत धारण करता था और संन्यासी, यदि वह पहने तो, केवल एक ही धारण कर सकता था। स्नातक (जो ब्रह्मचर्य के पश्चात् गुरुगेह से अपने माता–पिता के घर चला जाता था) एवं गृहस्थ दो यज्ञोपवीत तथा जो दीर्ष जीवन चाहे वह दो से अधिक यज्ञोपवीत पहन सकता था।[33] जिस प्रकार से आज हम यज्ञोपवीत धारण करते हैं, वैसा प्राचीनकाल में नियम था ही नहीं, स्पष्ट रूप से कह नहीं सकते, किन्तु ईसा के बहुत पहले यह ब्राह्मणों के लिए अपरिहार्य नियम था कि वे कोई कृत्य करते समय यज्ञोपवीत को धारण करें, अपनी शिखा को बाँधे रखें, क्योंकि बिना इसके किया हुआ कर्म मान्य नहीं हो सकता। वसिष्ठ (8|9) एवं बौधायनधर्मसूत्र (2|2|1) के अनुसार पुरुष को सदा यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। उद्योगवर्व (महाभारत) का 40|25 भी पठनीय है।[34] ref></ref>

Tikaa tipani

  1. तैत्तिरीय संहिता, 2.5.2.1
  2. निवीतं मनुष्याणां प्राचीनावीतं पितृणामुपवीतं देवानाम्। उप व्ययते देवलक्ष्ममेव तत्कुरुते। तैत्तिरीय संहिता 2.5.11.1।
  3. तैत्तिरीय ब्राह्मण (1.6.8)
  4. गोभिलगृह्यसूत्र (1.2.2-4)
  5. खादिर. (1.1.8-9)
  6. मनु (2.63)
  7. बौधायन–गृह्यपरि–भाषासूत्र (2.2.7 एवं 10)
  8. वैखानस (1.5)
  9. बौधायनगृह्यसूत्र (2.2.3)
  10. शतपथ ब्राह्मण, (2.4.2.1)
  11. तैत्तिरीय ब्राह्मण (3.10.9)
  12. एतावति ह गौतमो यज्ञोपवीतं कृत्वा अधो निपपात नमो नम इति। तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.10.9। सायण का कहना है—"स्वकीयेन वस्त्रेण यज्ञोपवीतं कृत्वा।"
  13. तैत्तिरीय आरण्यक, (2.1)
  14. पराशरमाधवीय, (भाग 1, पृ0 173)
  15. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.22-23)
  16. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.8.19.12)
  17. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.23)
  18. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (1.5.15.1)
  19. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, (2.2.4.23)
  20. नित्यमुत्तरं वासः कार्यम्। अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्थे। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 2.2.4.22-23; सोत्तराच्छादनश्चैव यज्ञोपवीती भुञ्जीत। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 2.8.19.12; हरदत्त ने व्याख्या की है- 'उत्तराच्छादनमुपरिवासः, तेन यज्ञोपवीतेन यज्ञोपवीतं कृत्वा भुञ्जीत। नास्य भोजने 'अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्ये' इत्ययं कल्पो भवतीत्ययेके। समुच्चय इत्यन्ये'; यज्ञोपवीती द्विवस्त्रः। अधोनिवीतस्त्वेकवस्त्रः। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1.2.6.18-19; उपासने गुरूणां वृद्धानाम–तिथिनां होमे जप्यकर्मणि भोजने आचमने स्वाध्याये च यज्ञोपवीती स्यात्। आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 1.5.15.1, हरदत्त ने लिखा है-

    'वासोविन्यासविशेषो यज्ञोपवीतम्।
    दक्षिणं बाहुमृद्धरत इति ब्राह्मणविहितम्।
    वाससोऽसंभवेऽनुकल्पं वक्ष्यति-अपि वा सूत्रमेवोपवीतार्थ इति।
    एषु विधानात् कालान्तरे नावश्यंभावः।'

    देखिए औशनसस्मृति-

    'अग्न्यगारे गवां गोष्ठे होमे जप्ये तथैव च।
    स्वाध्याये भोजने नित्यं ब्राह्मणानां च संनिधौ।
    उपासने गुरूणां च संध्ययोरुभयोरपि।
    उपवीती भवेन्नित्यं विधिरेष सनातनः।।'


  21. गोभिल गृह्यसूत्र, (1.2.1)

  22. यज्ञोपवीतं कुरुते वस्त्रं वापि वा कुशरज्जुमेव। गोभिल गृह्यसूत्र, (1.2.1);
    <poem>सूत्रमपि वस्त्राभावाद्धेदितव्यभिति।
    अपि वाससा यज्ञोपवीतार्थान् कुर्यात्तदभावे त्रिवृता सूत्रेणेति ऋष्यशृंगस्मरणात्।

स्मृतिचन्द्रिका, जिल्द 1, पृ0 32।

  • (जबकि उपनयन–सम्बन्धी अन्य कृत्यों के लिए वैदिक मन्त्रों की भरमार पायी जाती है)
  • बौधायन गृह्यसूत्र, 2.5.7-8
  • वैखानस, 2.|5
  • मनु, (2.44)
  • देखिए स्मृत्यर्थसार, पृ0 4 एवं संस्कारप्रकाश, पृ0 416-418, जहाँ उपवीत के निर्माण एवं निर्माता के विषय में चर्चा की गयी है। सौभाग्यवती नारी के द्वारा निर्मित उपवीत विधवा द्वारा निर्मित उपवीत से अच्छा माना जाता था। आचाररत्न में उद्धृत मदनरत्न ने मनु, (2.44) के ऊर्ध्ववृत को इस प्रकार समझाया है- 'करेण दक्षिणेनोर्ध्वगतेन त्रिगुणीकृतम्। वलितं मानवे शास्त्रे सूत्रभूर्ध्ववृतं स्मृतम्।।' (पृ0 2)।
  • कौशं सूत्रं वा त्रिस्त्रिवृद्यज्ञोपवीतम्। आ नाभेः। बौधायन धर्मसूत्र 1.5.5; उक्तं देवलेन-यज्ञोपवीतं कुर्वीत सूत्रेण नवतन्तुकम्-इति। स्मृतिचन्द्रिका, भाग 1, पृष्ठ 31।
  • अत्र प्रतितन्तु देवताभेदमाह देवलः।
    ओंकारः प्रथमस्तन्तुर्द्धियीयोऽग्निस्तथैवच।
    तृतीयो नागदैववत्यश्चतुर्थो सोमदेववतः।
    पञ्चमः पितृदैवत्यः षष्ठश्चैव प्रजापतिः।
    सप्तमी वायुदैवत्यः सूर्यश्चाष्टम एव च।।
    नवमः सर्वदैवत्य इत्येते नज तन्तवः।।
    स्मृतिच0, भाग 1, पृ0 31।
  • कात्यायनस्तु परिमाणान्तमाह।
    पृष्ठवंशे च नाभ्यां च धृतं यद्विन्दते कटिम।
    तद्धार्यमुपवीतं स्यान्नातिलम्बं न चोच्छ्रितम्.....देवल।
    स्तनादूर्ध्वमधो नाभेर्न कर्तव्यं कथंचन।
    स्मृतिचन्द्रिका, वही पृ0 31।
  • मनु, (2|44)
  • कार्पासक्षौमगोबालशणवल्कतृणोद्भवम्। सदा सम्भवतः कार्यमुपवीतं द्विजातिभिः।। पराशरमाधवीय (1|2) एवं वृद्ध हारीत (7|47-48) में यही बात पायी जाती है।
  • स्नातकानां तु नित्यं स्यादन्तर्वासस्तथोत्तरम।यज्ञोपवीते द्वे यष्टिःसोदकश्च कमण्डलुः।। वसिष्ठ 12|14; विष्णुधर्मसूत्र 71|13-15 में भी यही बात है। मिताक्षरा ने याज्ञवल्क्य (1|133) की व्याख्या में वसिष्ठ को उद्धृत किया है। मिलाइए मनु 4-36; एकैकमुपवीतं तु यतीनां ब्रह्मचारिणाम्। गृहिणां च वनस्थानामुपवीतद्वयं स्मृतम्।। सोत्तरीयं त्रयं वापि विभृयाच्छुभतन्तु वा। वृद्ध हारीत 8|44-45। देखिए देवल (स्मृतिच0 में उद्धृत, भाग 1, पृ0 32) श्रीणि चत्वारि पञ्चाष्ट गृहिणः स्युर्दशापि वा। सर्वेर्वा शुत्तिभिर्धार्यमु पवीतं द्विजातिभिः।। संस्कारमयूख में उद्धृत कश्यप।
  • नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नितयस्वाध्यायी पतितान्नवर्जी। ऋतो च गच्छन् विधिवच्च जुह्वन्न ब्राह्मण–श्च्चवते ब्रह्मलोकात्।। वसिष्ठ