एक दिन
इस देह पर
जलती चिता होगी भयावह
जिस हृदय में तुम बसे थे
धूल में होगा मिला वह
देख जलती देह को तुम
सहज अपना मान लोगे ?
क्या मुझे पहचान लोगे ?
जब प्रभंजन में उड़ेंगे
उस चिता के धूल कण वे
तब छुऎंगे
तव चरण मृतिका विकल हो
विकल कण वे
उस समय क्या उन कणों में
रूप को अनुमान लोगे ?
क्या मुझे पहचान लोगे ?
विरह आतप से जला मन
वेदना रोता फिरेगा
त्रसित चाहों का निरंतर
भार सा ढोता फिरेगा
उस समय
क्या तुम मुझे
दो आँसुओं का दान दोगे ?
-चन्द्रकान्ता चौधरी (सन् 1954)
यह कविता अम्माजी (मेरी माँ) ने सन् 1954 में लिखी थी वे अभी भी भारतकोश के कई लेखों का सम्पादन कर देती हैं। हाँ ! उनको काग़ज़ पर प्रिंट निकाल कर देना होता है। अपनी स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन भी आधी से ज़्यादा भारतकोश को दे देती हैं (उनकी पेंशन क़रीब 25 हज़ार रुपये महीने है) -आदित्य चौधरी