जल प्रदूषण
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जल में किसी बाहरी पदार्थ की उपस्थिति, जो जल के स्वाभाविक गुणों को इस प्रकार परिवर्तित कर दे कि जल स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो जाए या उसकी उपयोगिता कम हो जाए, 'जल प्रदूषण' कहलाता है।
जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्र अधिनियम 1974 की धारा 2 (ङ) के अनुसार जल प्रदूषण का अर्थ - जल का इस प्रकार का संक्रमण या जल के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में इस प्रकार का परिवर्तन या किसी (व्यापारिक) औद्यौगिक बहिःस्राव का या किसी तरल वायु (गैसीय) या ठोस वस्तु का जल में विसर्जन जिससे उपताप हो रहा हो या होने की सम्भावना हो। अन्य शब्दों में ऐसे जल को नुकसानदेह तथा लोक स्वास्थ्य को या लोक सुरक्षा को या घरेलू, व्यापारिक, औद्योगिक, कृषीय या अन्य वैद्यपूर्ण उपयोग को या पशु या पौधों के स्वास्थ्य तथा जीव-जन्तु को या जलीय जीवन को क्षतिग्रस्त करें, जल प्रदूषण कहलाता है।
वे वस्तुएं एवं पदार्थ जो जल की शुद्धता एवं गुणों को नष्ट करते हों, प्रदूषक कहलाते हैं।
जल
जीवन के लिए स्वच्छ जल का होना आवश्यक है। मनुष्य के शरीर में वजन के अनुसार 60 फीसदी जल होता है। वनस्पतियों में भी काफी मात्रा में जल पाया जाता है। किसी-किसी वनस्पति में 95 प्रतिशत तक जल होता है। पृथ्वी पर जल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है परंतु ताजे जल की मात्रा के वल 2 से 7 प्रतिशत तक ही है, शेष समुद्रों में खारे जल के रूप में है। इस ताजे जल का तीन चैथाई हिमनदों तथा बर्फीली चोटियों के रूप में है। शेष एक चैथाई भाग सतही जल के रूप में है पृथ्वी पर जितना जल है उसका केवल 0.3 प्रतिशत भाग ही स्वच्छ एवं शुद्ध है।
जल की गुणवत्त के मानक
यह एक ऐसा रंगहीन द्रव है जो हाइड्रोजन का मोनो आक्साइड होता है। इसका सूत्र H2O है। 4° सेल्सियस पर इसका घनत्व अधिकतम होता है। हिमांक 0° सेल्सियस होता है एवं क्वथनांक 100° सेल्सियस होता है।
पेयजल के निए निर्धारित मानक
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1971 में जो मानक पेयजल के लिए निर्धारित किए हैं वे हैं -
- भौतिक मानक
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पेयजल ऐसा होना चाहिए जो स्वच्छ, शीतल, स्वादयुक्त तथा गंधरहित हो।
- रासायनिक मानक
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पेयजल का पीएच मान 7 से 8.5 के मध्य हो तथा उसमें निम्नलिखित से अधिक अशुद्धताएं नहीं होनी चाहिए।
जल प्रदूषण के स्रोत अथवा कारण
जल प्रदूषण के स्रोतों अथवा कारणों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है -
- प्राकृतिक स्रोत
- मानवीय स्रोत
प्राकृतिक स्रोत
भी-कभी भूस्खलन के दौरान खनिज पदार्थ, पेड़-पौधों की पत्तियाँ जल में मिलती है। जिससे जल प्रदूषण होता है। इसके अतिरिक्त नदियाँ, झरनों, कुओं, तालाबों का जल जिन स्थानों से बहकर आता है या इकठ्ठा रहता है, वहाँ की भूमि में यदि खनिज की मात्रा है तो वह जल में मिल जाती है। वैसे तो इसका कोई गम्भीर प्रभाव नहीं होता परंतु यदि जल में इसकी मात्रा बढ़ जाती है तो नुकसानदेह साबित हो सकते हैं। यही कारण है कि किसी क्षेत्र विशेष में एक बीमारी से बहुत से लोग पीड़ित होते हैं क्योंकि उस क्षेत्र विशेष के लोग एक जैसे प्राकृतिक रूप से प्रदूषित जल का उपयोग करते हैं। जल में जिन धातुओं का मिश्रण होता है उन्हें विषैले पदार्थ कहते हैं जैसे - सीसा, पारा, आर्सेनिक तथा कैडमियम। इसके अतिरिक्त जल में बेरियम, कोबाल्ट, निकिल एवं वैनेडियम जैसी विषैली धातुएँ भी अल्पमात्रा में पाई जाती हैं।
मानवीय स्रोत
जल प्रदूषण के मानवीय स्रोत अथवा कारण हैं
- घरेलू बहिःस्राव
- वाहित मल
- कृषि बहि स्राव
- औद्योगिक बहिस्राव
- तेल प्रदूषण
- तापीय प्रदूषण
- रेडियोधर्मी अपशिष्ट एवं अवपात
- अन्य कारण
घरेलू बहिःस्राव
जल प्रदूषण का एक कारण घरेलू कूड़ा-कचरा का जल में बहाया जाना अथवा फेंका जाना है। घरेलू कूड़े-कचरे से युक्त बहिःस्राव मलिन जल के नाम से भी जाना जाता है।
वाहित मल
घरेलू तथा सार्वजनि शौचालय से निकला मल-मूत्र जब नदी-नालों, तालाबों अथवा अन्य जल स्रोतों में मिल जाता है। तो वह जल प्रदूषण का कारण बन जाता है। यह भी देखा गया है कि जल संस्थानों द्वारा जल आपूर्ति के लिए जो पाइप लाइनें बिछाई जाती हैं, वे जगह-जगह फट जाती हैं और कहीं-कहीं सीवरों से इनका संपर्क हो जाता है, ऐसी स्थिति में जिन क्षेत्रों में इन पाइप लाइनों द्वारा पानी पहुँचता है वहाँ के निवासियों को गंदा जल पीना पड़ता है, जिसकी वजह से हैजा, आन्त्रशोध, पीलिया, पेचिस, बुखार जैसी बीमारियाँ हो जाती हैं। प्रदूषित जल से जलोद रोग होते ही हैं। साथ ही कुछ वायरस जन्य रोग भी हो सकते हैं, जैसे- पोलियो आदि।
कृषि बहिःस्राव
कृषि बहिःस्राव भी जल प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। कृषि बहिःस्राव तीन रूपों में हो सकता है-
- उर्वरकों के उपयोग में निरन्तर वृद्धि
- कीटनाशक एवं रोगनाशक दवाइयों का उपयोग
- दोषपूर्ण कृषि पद्धतियों के कारण मृदाक्षरण
- उर्वरकों के उपयोग में निरन्तर वृद्धि
कृषि उपज बढ़ाने के लिए उर्वरकों का उपयोग किया जाता है। उर्वरकों की अतिरिक्त मात्रा वर्षा जल के साथ धीरे-धीरे नदियों, तालाबों, झीलो एवं झरनों में पहुँच जाती है। जिससे शैवाल प्रस्फुटन होता है, परिणामस्वरूप जल के प्रदूषण में वृद्धि होती है।
- कीटनाशक एवं रोगनाशक दवाइयों का उपयोग
वर्तमान में कृषि कार्य में बहुत सारे कीटनाशकों एवं पेस्टीसाइड्स का उपयोग किया जाता है। ये अवशिष्ट पदार्थ बहकर नदी-नालों तथा अन्य जल स्रोतों में पहुँचकर जल प्रदूषण का कारण बनते है। ध्यातव्य है कि अधिकांश कीटनाशकों में पारा, संखिया, सीसा, क्लोरीन, फ्लोरीन, फास्फोरस, आर्सेनिक जैसे पदार्थों का प्रयोग किया जा सकता है। इससे जल प्रदूषण की गम्भीरता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार अण्डा, मक्खन, फल, सब्जी, वनस्पति तेल, बकरे, भैंस एवं भेड़ के मांस तथा मछली में कीटनाशक पाये गये हैं। खाने-पीने की वस्तुओं में इनकी उपस्थिति से कैंसर रोग का खतरा बढ़ रहा है।
- दोषपूर्ण कृषि पद्धतियों के कारण मृदाक्षरण
दोषपूर्ण कृषि पद्धतियों के कारण जल मृदाक्षरण होता है तो बहुत सी मिट्टी नदियों, तालाबों आदि जल स्रोतों में पहुँचकर उसके तल मे कीचड़ के रूप में बैठ जाती है। इस प्रकार कीचड़ से भी जल प्रदूषण होता है।
औधोगिक बहिःस्राव
अधिकांश संयंत्रों में जल का भारी मात्रा में उपयोग किया जाता है तथा इन संयंत्रों से भारी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ भी बहिःस्राव के रूप में निकलते हैं। संयन्त्रों में जल की आवश्यकता के कारण ही उद्योगों को नदियों एवं जलाशयों के किनारे स्थापित किया जाता रहा है। इससे न केवल उद्योगों के लिए जल की आपूर्ति आसानी से होती थी वरन् अपशिष्ट पदार्थों को जलाशयों में बहाने में भी आसानी होती थी। अपशिष्ट औद्यौगिक पदार्थों में अनेक प्रकार के धात्विक तत्व, लवण, क्षार, वसा, तैल आदि रासायनिक तत्व विद्यमान रहते है, जिनको जलाशयों में बहाने से जल प्रदूषण की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो जाती है
चमड़े के कारखानों, शराब बनाने के कारखानों, चीनी के कारखानों, कागज एवं लुग्दी के कारखानों, उर्वरको के कारखानो, कीटनाशी उद्योगों तथा खाद्य संस्करण उद्योगों आदि द्वारा भारी मात्रा मे अपशिष्ट पदार्थ जल स्रोतों यथा नदियों एवं जलाशयों में बहाये जाते हैं, जिससे अत्यधिक जल प्रदूषण उत्पन्न होता है। मिनीमाटा की घटना ने साबित कर दिया कि पारे से भी जल प्रदूषण होता है
तेल प्रदूषण
तेल से भी जल प्रदूषण होता है। यह प्रदूषण सामान्यतः तब होता है जब उद्योगों से तैलीय पदार्थ जल में छाड़े जाते हैं। तेल प्रदूषण नदियों की अपेक्षा समुद्र में अधिक होता है। समुद्र में तेल प्रदूषण अधिक होने के कारण हैं - तेल वाहक जलयानों पर तेल का चढ़ाया जाता है अथवा उतारा जाना तथा तेल वाहक जहाज का दुर्घटनाग्रस्त हो जाना। इसके अलावा जलयानों द्वारा अवशिष्ट तेल को समुद्र में ही छोड़ दिये जाने तथा समुद्र के किनारे स्थित तेल के कुएं में लीकेज हो जाने से भी तेल प्रदूषण की घटना को बढ़ावा मिलता है।
तापीय प्रदूषण
रियेक्टरों के अतितापन को कम करने के लिए जल का प्रयोग किया जाता है और उसे पुनः जल स्रोत मे छोड़ दिया जाता है, जिससे जल के ताप में हानिकारक वृद्धि हो जाती है। इसे तापीय प्रदूषण कहते है। यह प्रदूषण मुख्यतः रिएक्टरों, वाष्प या परमाणु चलित संयंत्रों द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त समुद्र में किए जाने वाले परमाणु विस्फोट सम्बन्धी परीक्षणों के अंतरिक्षयानों के समुद्र में उतरने के कारण भी यह प्रदूषण होता है।
रेडियोधर्मी अपशिष्ट एवं अवपात
विकसित एवं कुछ विकासशील देशों द्वारा विभिन्न उद्देश्यों के लिए परमाणु परीक्षण किए जा रहे हैं। परीक्षण के दौरान असंख्य छोटे-छोटे रेडियोधर्मी कण वायुमण्डल में दूर-दूर तक फैल जाते हैं और ये कण धीरे-धीरे जमीन पर गिरते हैं। इसे अवपात कहते हैं। ये रेडियोधर्मी अवपात पृथ्वी पर गिरकर अन्ततः जलस्रोतों मे पहुँच जाते हैं। इस प्रकार के दूषित जल का उपयोग मानव द्वारा करने पर रेडियोधर्मी पदार्थ शरीर के विभिन्न अंगों में जमा होकर हानिकारक प्रभाव दिखाते हे। रेडियोधर्मी अवपात में स्ट्रांशियम-90 विद्यमान रहता है। जो दूध के माध्यम से नवजाज शिशुओं मे पहुँचकर उनमें विकृति पैदा कर देता है। जब कोई गाय अवपात से प्रदूषित क्षेत्र में चरती है तो स्ट्रांशियम-90 गाय के शरीर में पहुँचकर कैल्शियम के साथ उसकी हड्डियों तथा दूध में संचित हो जाता है और जब ओग ऐसी गाय के दूध को पीते हैं तो वह उनके शरीर मे पहुँच जाता है। स्ट्रांशियम-90 के अतिरिक्त सीसियम-137, सीरियम-144, रेडियो आयोडीन-131, आयरन-59, कोबाल्ट-60 तथा जिंक-65 जैसे अन्य रेडियोधर्मी पदार्थ भी मानव के शरीर में पहुंच जाते हैं, जिनका प्रभाव निश्चित रूप से हानिकारक होता है।
प्रदूषण के अन्य कारण
जल प्रदूषण के अन्य कारणों में मृत जले, अधजले शवों को बहाना, अस्थि विसर्जन करना, साबुन लगाकर नहाना एवं कपड़े धोना, नदियों के किनारे मल मूत्र का त्याग करना तथा धार्मिक अन्धविश्वास आदि शामिल हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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