रसखान- धारावाहिकता
- रसखान की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता उसकी धारावाहिकता है। अर्थ पर ध्यान दिये बिना भी इनके सवैयों को पढ़ने से एक प्रकार का आनन्द मिलता है। इस आनन्द का कारण प्रसन्न पदावली भाषा है। उन्होंने शब्दों को कुशलता से संजोया है कि उनमें अनवरुद्ध स्पंदन एवं गति है। 'लाल लसैं पग पाँवरिया[1] 'दे गयो भाक्तो भाँवरिया' में 'पौरी', 'भौंरी' के स्थान पर 'पाँवरिया' , 'भाँवरिया' होने से भाषा में स्वाभाविक प्रवाह आ गया है।
गुंज गरें सिर मौर पखा अरु चाल गयन्द की मो मन भावै।
साँवरो नन्द कुमार सबै ब्रजमण्डली में ब्रजराज कहावै।
साज समाज सब सिरताज औ छाज की बात नहीं कहि आवै।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥[2]
- रसखान प्रवाहमयी भाषा के प्रयोग में सफल हुए हैं। उनकी भाषा का प्रवाह और गतिमयता कुशल कला की परिचायक है। एक के बाद दूसरा शब्द धारावाहिकता के साथ संजोया हुआ प्रतीत होता है। निम्नलिखित पद में रसखान की भाषा की प्रवाहमयी गति देखने योग्य है—
नव रंग अनंग भरि छबि सौं वह मूरति आँखि गड़ी ही रहै।
बतिया मन की मन ही में रहै, छतिया उर बीच अड़ी ही रहै।
तबहूँ रसखानि सुजान अली नलिनी दल बूंद पड़ी ही रहै।
जिय की नहिं जानत हौं सजनी रजनी अँसुवान लड़ी ही रहै॥[3]
उपर्युक्त पंक्तियों में मधुर प्रवाह-लालित्य है। साथ ही शब्द योजना भी सर्वथा उपयुक्त और अनूठी है। अनुप्रास भी भाषा-प्रवाह में सहायक हुआ हैं किन्तु ऐसा कहीं प्रतीत नहीं होता कि रसखान अनुप्रास के आग्रह से लिख रहे हैं। मनोनुकूल स्थलो और प्रसंगों के चित्रण में रसखान ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह प्रवाहमयी है—
आली पगे रंगे जे रंग साँवरे मौपै न आवत लालची नैना।
धावत है उतही जित मोहन रोके रुकै नहिं घूँघट ऐना।
काननि कौं कल नाहिं परै सखी प्रेम सों भीजै सुने बिन बैना।
रसखानि भई मधु की मखियाँ अब नेह को बँधन क्यौ हूँ छुटैना॥[4]
- रसखान की भाषा का महत्त्वपूर्ण गुण उसका सहज स्वाभाविक प्रवाह है। रसखान की भाषा में यह प्रवाह किसी उद्दाम पर्वतीय नदी के समान दिखाई पड़ता है जिसके मार्ग में कहीं भी अटक, अवरोध या बाधा नहीं।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख