सिंहासन बत्तीसी पंद्रह

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सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।

सिंहासन बत्तीसी पंद्रह

एक दिन राजा विक्रमादित्य अपनी सभा में बैठे हुए थे। कहीं से एक पंडित आया। उसने राजा को एक श्लोक सुनाया। उसका भाव था कि जब तक चांद और सूरज हैं, तब तक विद्रोही और विश्वासघाती कष्ट पायंगे। राजा ने उसे एक लाख रुपये दिये और कहा कि इसका मर्म मुझे समझाओ।
ब्राह्मण ने कहा: महाराज! एक बूढ़ा अज्ञानी राजा था। उसके एक रानी थी, जिसे वह बहुत प्यार करता था। हमेशा साथ रखता था। दरबार में भी उसे साथ बिठाता था। एक दिन उसके दीवान ने कहा, महाराज! ऐसा करना अच्छा नहीं है। लोग हंसते हैं। अच्छा हो कि आप रानी का एक चित्र बनवाकर सामने रख लें। राजा को यह सलाह पसन्द आयी। उसने एक बड़े होशियार चित्रकार को बुलवाया। वह चित्रकार ज्योतिष भी जानता था। उसने राजा के कहने पर एक बड़ा ही सुंदर चित्र बना दिया। राजा को वह बहुत पसंद आया। लेकिन जब उसकी निगाह टांग पर गई तो वहाँ एक तिल था। राजा को बड़ा गुस्सा आया कि रानी का यह तिल इसने कैसे देखा।
उसने उसी समय चित्रकार को बुलवाया और जल्लाद को आज्ञा दी कि जंगल में ले जाकर उसकी आँखेंं निकाल लाओ। जल्लाद लेकर चले। आगे जाकर दीवान ने जल्लादों को रोका और कहा कि इसे मुझे दे दो और हिरन की आँखेंं निकालकर राजा को दे दो। जल्लादों ने ऐसा ही किया। जब वे आँखेंं लेकर आया तो राजा ने कहा, "इन्हें नाली में फेंक दो।"
उधर एक दिन राजा का बेटा जंगल में शिकार खेलने गया। सामने एक शेर को देखकर वह डर के मारे पेड़ पर चढ़ गया। वहां पहले से ही एक रीछ बैठा था। उसे देखते ही उसके प्राण सूख गये।
रीछ ने कहा: तुम घबराओ नहीं। मैं तुम्हें नहीं, खाऊंगा, क्योंकि तुम मेरी शरण में आये हो।
जब रात हुई तो रीछ बोला: हम लोग दो-दो पहर जाग कर पहरा दें, तभी इस नाहर से बच सकेंगे। पहले तुम सो लो।
राजकुमार सो गया। रीछ चौकसी करने लगा।
शेर नीचे से बोला: तुम इस आदमी को नीचे फेंक दो। हम दोनों खा लेंगे। अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो जब इस आदमी की पहरा देने की बारी आयगी, तब यह तेरा सिर काटकर गिरा देगा।
रीछ ने कहा: राजा को मारने में, पेड़ के काटने में, गुरु से झूठ बोलने में, और जंगल जलाने में बड़ा पाप लगता है। उससे ज़्यादा पाप विद्रोह और विश्वासघात करने में लगता है। मैं ऐसा नहीं करुंगा।
आधी रात होने पर राजकुमार जागा और रीछ सोने लगा। शेर ने उससे भी वही बात कहीं।
वह बोला: तू इसका भरोसा मत कर। सवेरा होते ही यह तुझे खा जायगा।
राजकुमार उसकी बातों में आ गया और इतने ज़ोर से पेड़ को हिलाया कि रीछ गिर पड़ा। इतने में रीछ की आँखेंं खुल गईं और वह एक टहनी से लिपट गया।
बोला: तू बड़ा पापी है। मैंने तेरी जान बचाई और तू मुझे मारने को तैयार हो गया। अब मैं तुझे खा जाऊं तो तू क्या कर लेगा!
राजकुमार के हाथ-पांव फूल गये। खैर, सवेरे शेर तो चला गया और इधर रीछ राजकुमार को गूंगा-बहरा बनाकर चलता बना।
राजकुमार घर लौटा तो उसकी हालत देखकर राजा को बड़ा दु:ख हुआ। उसने बहुतेरा इलाज कराया, पर कोई फ़ायदा न हुआ।
तब एक दिन दीवान ने कहा: मेरे बेटे की बहू बहुत होशियार है।
राजा ने कहा: बुलाओ।
दीवान के यहां वह चित्रकार छिपा हुआ था। उसने उसका स्त्री का भेस बनवाया और दरबार में लाया। पर्दे की आड़ में वह स्त्री बैठी।
उसने राजकुमार से कहा: मेरी बात सुनो। विभीषण बड़ा शूरवीर था, पर दगा करके रामचन्द्र से जा मिला और राज्य का नाशक हुआ। भस्मापुर ने महादेव की तपस्या करके वर पाया, फिर उन्हीं के साथ विश्वासघात करके पार्वती को लेने की इच्छा की, सो भस्म हो गया। हे राजकुमार! रीछ ने तुम्हारे साथ इतना उपकार किया था, पर तुमने उसे धोखा दिया। पर इसमें दोष तुम्हारा नहीं है, तुम्हारे पिता का है। जैसा बीज बोयेगा, वैसा ही फल होगा।
इतनी बात सुनते ही राजकुमार उठ बैठा। राजा सब सुन रहा था।
वह बोला: रीछ की बात तुम्हें कैसे मालूम हुई?
उसने कहा: राजन्! जब मैं पढ़ने जाती थी तो मैंने अपने गुरु की बड़ी सेवा की थी। गुरु ने प्रसन्न होकर मुझे एक मंत्र दिया। उसे मैंने साधा। तब से सरस्वती मेरे मन में बसी हैं। जिस तरह रानी का तिल मैंने पहचान कर बनाया, वैसे ही रीछ बात जान ली।
यह सुनकर राजा सारी बात समझ गया। उसने पर्दा हटवा दिया। खुश होकर चित्रकार को आधा राज्य देकर अपना दीवान बना लिया।
इतना कहकर ब्राह्मण बोला: महाराज! मेरे श्लोक का यह मर्म है।
राजा विक्रमादित्य ने प्रसन्न होकर हज़ार गांव उसके लिए बांध दिये।
पुतली बोली: क्यों राजन्! है तुममें इतने गुण?
राजा बड़ी परेशानी में पड़ा दीवान ने कहा: महाराज! आप सिंहासन पर बैठेंगे तो ये पुतलियां रो-रोकर मर जायंगी। पर राजा न माना। अगले दिन फिर सिंहासन की ओर बढ़ा कि सोलहवीं पुतली सुन्दरवती बोल उठी, "है-है, ऐसा मत करना। पहले मेरी बात सुनो।

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