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"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 13-23" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  द्वादशोऽध्यायः श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  द्वादशोऽध्यायः श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
[[परीक्षित]]! इसी समय अघासुर नाम का महान दैत्य आ धमका। उससे [[श्रीकृष्ण]] और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीडा देखी न गयी। उसके  
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[[परीक्षित]]! इसी समय अघासुर नाम का महान् दैत्य आ धमका। उससे [[श्रीकृष्ण]] और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीडा देखी न गयी। उसके  
 
हृदय में जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करने के लिए चिन्तित रहा करते थे और इस बात की बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाय। अघासुर [[पूतना]] और [[बकासुर]] का छोटा भाई तथा [[कंस]] का भेजा था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालों को देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिन को मारने वाला है। इसलिए आज मैं इन ग्वालबालों के साथ इसे मार डालूँगा। जब से सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनों के मृततर्पण की तिलांजलि बन जायँगे, तब ब्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। सन्तान ही प्राणियों के प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्यु से ब्रजवासी अपने-आप मर जायँगे’।  
 
हृदय में जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करने के लिए चिन्तित रहा करते थे और इस बात की बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाय। अघासुर [[पूतना]] और [[बकासुर]] का छोटा भाई तथा [[कंस]] का भेजा था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालों को देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिन को मारने वाला है। इसलिए आज मैं इन ग्वालबालों के साथ इसे मार डालूँगा। जब से सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनों के मृततर्पण की तिलांजलि बन जायँगे, तब ब्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। सन्तान ही प्राणियों के प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्यु से ब्रजवासी अपने-आप मर जायँगे’।  
  

11:27, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः(12) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद

परीक्षित! इसी समय अघासुर नाम का महान् दैत्य आ धमका। उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीडा देखी न गयी। उसके हृदय में जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करने के लिए चिन्तित रहा करते थे और इस बात की बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाय। अघासुर पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालों को देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिन को मारने वाला है। इसलिए आज मैं इन ग्वालबालों के साथ इसे मार डालूँगा। जब से सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनों के मृततर्पण की तिलांजलि बन जायँगे, तब ब्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। सन्तान ही प्राणियों के प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्यु से ब्रजवासी अपने-आप मर जायँगे’।

ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगर का रूप धारण कर मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था। वह बहुत ही अद्भुत था। उसकी नीयत सब बालकों को निगल जाने की थी, इसलिए उसने गुफा से समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था। उसका नीचे का होंठ पृथ्वी से और ऊपर का होंठ बादलों से लग रहा था। उस के जबड़े कन्दराओं के समान थे और दाढ़े पर्वत के शिखर-सी जान पड़ती थीं। मुँह के भीतर घोर-अन्धकार था। जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी दीखती थी। सांस आँधी के सामान थी और आँखें दावानल के समान दहक रही थीं।

अघासुर का ऐसा रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृन्दावन की कोई शोभा है। वे कौतुहलवश खेल-ही-खेल में उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगर का खुला हुआ मुँह है। कोई कहता - 'मित्रों! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलने के लिए खुले हुए किसी अजगर के मुँह-जैसा नहीं है?’

दूसरे ने कहा - ‘सचमुच सूर्य की किरणें पड़ने से ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों ठीक-ठीक उसका ऊपरी होंठ ही हो। और इन्हीं बादलों की परछाईं से यह जो नीचे की भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचे का होंठ जान पड़ता है’।

तीसरे ग्वालबालक ने कहा - ‘हाँ, सच तो है। देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओर की गिरी-कन्दराएँ अजगर के जबड़ों की होड़ नहीं करतीं? और ये ऊँची-ऊँची शिखर पंक्तियाँ तो साफ़-साफ़ इसकी दाढ़े मालूम पड़ती हैं।'

चौथे ने कहा—‘अरे भाई! यह लम्बी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगर की जीभ-सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरीश्रृंगों के बीच का अन्धकार तो उसके मुँह के भीतरी भाग को भी मात करता है।'

किसी दूसरे ग्वालबाल ने कहा - ‘देखो, देखो! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगल में आग लगी है। इसी से यह गरम और तीखी हवा आ रही है। परन्तु अजगर की सांस के साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है और उसी आग में जले हुए प्राणियों की दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है मानो अजगर के पेट में मरे हुए जीवों के मांस की ही दुर्गन्ध हो।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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