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[[भारतीय संविधान]] की [[आठवीं अनुसूची]] [[भारत]] की भाषाओं से संबंधित है। इस अनुसूची में 22 भारतीय भाषाओं को शामिल किया गया है।
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आठवीं अनुसूची में संविधान द्वारा मान्यताप्राप्त 22 प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है। इस अनुसूची में आरम्भ में 14 भाषाएँ (असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु, उर्दू) थीं। बाद में सिंधी को तत्पश्चात् कोंकणी, मणिपुरी<ref>(21वाँ संशोधन, 1967 ई.)</ref>, नेपाली को शामिल किया गया <ref>(71वाँ संशोधन, 1992 ई.)</ref>, जिससे इसकी संख्या 18 हो गई। तदुपरान्त बोडो, डोगरी, मैथिली, संथाली को शामिल किया गया<ref>(92वाँ संशोधन, 2003)</ref> और इस प्रकार इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गईं।
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====संघ की भाषा की समीक्षा====
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*'''अनुच्छेद 343 के सन्दर्भ में'''- संविधान के अनुच्छेद 343(1) के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी घोषित की गई है। इससे देश के बहुमत की इच्छा ही प्रतिध्वनित होती है।
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अनुच्छेद 343 (2) के अनुसार इसे भारतीय संविधान लागू होने की तारीख़ अर्थात् 26 जनवरी, 1950 ई. से लागू नहीं किया जा सकता था,
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अनुच्छेद 343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रख सकती है। रही–सही क़सर, बाद में राजभाषा अधिनियम, 1963 ने पूरी कर दी, क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य को साफ़ कर दिया कि अंग्रेज़ी की हुक़ूमत देश पर अनन्त काल तक बनी रहेगी।
  
#[[बांग्ला भाषा|बांग्ला]]
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इस प्रकार, संविधान में की गई व्यवस्था 343 (1) हिन्दी के लिए वरदान थी। परन्तु 343 (2) एवं 343 (3) की व्यवस्थाओं ने इस वरदान को अभिशाप में बदल दिया। वस्तुतः संविधान निर्माणकाल में संविधान निर्माताओं में जन साधारण की भावना के प्रतिकूल व्यवस्था करने का साहस नहीं था, इसलिय 343 (1) की व्यवस्था की गई। परन्तु अंग्रेज़ीयत का वर्चस्व बनाये रखने के लिए 343 (2) एवं 343 (3) से उसे प्रभावहीन कर देश पर मानसिक गुलामी लाद दी गई।
#[[बोडो]]
 
#[[डोगरी]]
 
#[[गुजराती]]
 
#[[हिन्दी]]
 
#[[कन्नड़]]
 
#[[कश्मीरी]]
 
#[[कोंकणी]]
 
#[[मैथिली]]
 
#[[मलयालम भाषा|मलयालम]]
 
#[[मणिपुरी]]
 
#[[मराठी भाषा|मराठी]]
 
#[[नेपाली]]
 
#[[उड़िया]]
 
#[[पंजाबी भाषा|पंजाबी]]
 
#[[संस्कृत]]
 
#[[संथाली]]
 
#[[सिंधी भाषा|सिंधी]]
 
#[[तमिल]]
 
#[[तेलुगु]]
 
#[[उर्दू]]
 
#[[असमिया]]
 
  
[[श्रेणी:भारतीय संविधान]]
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*'''अनुच्छेद 344 के सन्दर्भ में'''- अनुच्छेद 344 के अधीन प्रथम राजभाषा आयोग/बी. जी. खेर आयोग का 1955 में तथा संसदीय राजभाषा समिति/जी. बी. पंत समिति का 1957 में गठन हुआ। जहाँ खेर आयोग ने हिन्दी को एकान्तिक व सर्वश्रेष्ठ स्थिति में पहुँचाने पर ज़ोद दिया, वहीं पर पंत समिति ने हिन्दी को प्रधान राजभाषा बनाने पर ज़ोर तो दिया, लेकिन अंग्रेज़ी को हटाने के बजाये उसे सहायक राजभाषा बनाये रखने की वक़ालत की। हिन्दी के दुर्भाग्य से सरकार ने खेर आयोग को महज औपचारिक माना और हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाए; जबकि सरकार ने पंत समिति की सिफ़ारिशों को स्वीकार किया, जो आगे चलकर राजभाषा अधिनियम 1963/67 का आधार बनी, जिसने हिन्दी का सत्यानाश कर दिया।
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समग्रता से देखें तो स्वतंत्रता–संग्राम काल में हिन्दी देश में राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक थी, अतएव राष्ट्रभाषा बनी, और राजभाषा अधिनियम 1963 के बाद यह केवल सम्पर्क भाषा होकर ही रह गयी।
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====प्रादेशिक भाषाएँ एवं 8वीं अनुसूची की समीक्षा====
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अनुच्छेद 345, 346 से स्पष्ट है कि भाषा के सम्बन्ध में राज्य सरकारों को पूरी छूट दी गई। संविधान की इन्हीं अनुच्छेदों के अधीन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी राजभाषा बनी। हिन्दी इस समय नौं राज्यों—"उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश—तथा एक केन्द्र शासित प्रदेश—दिल्ली"—की राजभाषा है। उक्त प्रदेशों में आपसी पत्र व्यवहार की भाषा हिन्दी है। दिनोंदिन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी का प्रयोग सभी सरकारी परियोजनाओं के लिए बढ़ता जा रहा है। इनके अतिरिक्त, अहिन्दी भाषी राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब की एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में चंडीगढ़ व अंडमान निकोबार की सरकारों ने हिन्दी को द्वितीय राजभाषा घोषित कर रखा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों से पत्र–व्यवहार के लिए हिन्दी को स्वीकार कर लिया है।
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अनुच्छेद 347 के अनुसार यदि किसी राज्य का पर्याप्त अनुपात चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली कोई भाषा राज्य द्वारा अभिज्ञात की जाय तो राष्ट्रपति उस भाषा को अभिज्ञा दे सकता है। समय–समय पर राष्ट्रपति ऐसी अभिज्ञा देते रहे हैं, जो कि आठवीं अनुसूची में स्थान पाते रहे हैं। जैसे—1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली एवं 2003 में बोडो, डोगरी, मैथिली व संथाली। यही कारण है कि संविधान लागू होने के समय जहाँ 14 प्रादेशिक भाषाओं को मान्यता प्राप्त थी, वहीं अब यह संख्या बढ़कर 22 हो गई है।
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====SC, HC आदि की भाषा की समीक्षा====
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अनुच्छेद 348, 349 से स्पष्ट हो जाता है कि न्याय व क़ानून की भाषा, उन राज्यों में भी जहाँ हिन्दी को राजभाषा मान लिया गया है, अंग्रेज़ी ही है। नियम, अधिनियम, विनियम तथा विधि का प्राधिकृत पाठ अंग्रेज़ी में होने के कारण सारे नियम अंग्रेज़ी में ही बनाए जाते हैं। बाद में उनका अनुवाद मात्र कर दिया जाता है। इस प्रकार, न्याय व क़ानून के क्षेत्र में हिन्दी का समुचित प्रयोग हिन्दी राज्यों में भी अभी तक नहीं हो सका है।
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====विशेष निदेश की समीक्षा====
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'''अनुच्छेद 350'''—भले ही संवैधानिक स्थिति के अनुसार व्यक्ति को अपनी व्यथा के निवारण हेतु किसी भी भाषा में अभ्यावेदन करने का हक़दार माना गया है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति यही है कि आज भी अंग्रेज़ी में अभ्यावेदन करने पर ही अधिकारी तवज्जों/ध्यान देना गवारा करते हैं।
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'''अनुच्छेद 351'''— (हिन्दी के विकास के लिए निदेश)—अनुच्छेद 351 राजभाषा विषयक उपबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें हिन्दी के भावी स्वरूप के विकास की परिकल्पना सन्निहित है। हिन्दी को विकसित करने की दिशाओं का इसमें संकेत है। इस अनुच्छेद के अनुसार संघ सरकार का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दी भाषा के विकास और प्रसार के लिए समुचित प्रयास करे ताकि भारत में राजभाषा हिन्दी के ऐसे स्वरूप का विकास हो, जो कि समूचे देश में प्रयुक्त हा सके और जो भारत को मिली–जुली संस्कृति की अभिव्यक्ति की वाहिका बन सके। इसके लिए संविधान में इस बात का भी निर्दश दिया गया है, कि हिन्दी में हिन्दुस्तानी और मान्यताप्राप्त अन्य भारतीय भाषाओं की शब्दावली और शैली को भी अपनाया जाए और मुख्यतः संस्कृत तथा गौणतः अन्य भाषाओं (विश्व की किसी भी भाषा) से शब्द ग्रहण कर उसके शब्द–भंडार को समृद्ध किया जाए।
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संविधान के निर्मताओं की यह प्रबल इच्छा थी कि हिन्दी भारत में ऐसी सर्वमान्य भाषा के स्वरूप को ग्रहण करे, जो कि सब प्रान्तों के निवासियों को स्वीकार्य हो। संविधान के निर्मताओं को यह आशा थी कि हिन्दी अपने स्वाभाविक विकास में भारत की अन्य भाषाओं से वरिष्ठ सम्पर्क स्थापित करेगी और हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच में साहित्य का आदान–प्रदान भी होगा।
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संविधान के निर्माताओं ने उचित ढंग से यह आशा की थी कि राजभाषा हिन्दी अपने भावी रूप का विकास करने में अन्य भारतीय भाषाओं का सहारा लेगी। यह इसीलिए था कि राजभाषा हिन्दी को सबके लिए सुलभ और ग्राह्य रूप धारण करना है।
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====1950 ई. के बाद हिन्दी की संवैधानिक प्रगति====
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*राष्ट्रपति का संविधान आदेश, 1952—राज्यपालों, SC एवं HC के न्यायधीशों की नियुक्ति के अधिपत्रों के लिए हिन्दी का प्रयोग प्राधिकृत।
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*राष्ट्रपति का संविधान आदिश, 1955— कुछ प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी के साथ–साथ हिन्दी का प्रयोग निर्धारित, जैसे
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#जनता के साथ पत्र व्यवहार में
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#प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी पत्रिकाओं व संसदीय रिपोर्ट में
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#संकल्पों (Resolution) व विधायी नियमों में
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#हिन्दी को राजभाषा मान चुके राज्यों के साथ पत्र व्यवहार में
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#संधिपत्र और क़रार में
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#राजनयिक व अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारतीय प्रतिनिधियों के नाम जारी किए जाने वाले पत्रों में।
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*प्रथम राजभाषा आयोग/बाल गंगाधर (बी. जी.) खेर आयोग—जून, 1955 (गठन); जुलाई, 1956 (प्रतिवेदन)
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====आयोग की सिफ़ारिशें====
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#सारे देश में माध्यमिक स्तर तक हिन्दी अनिवार्य की जाएँ।
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#देश में न्याय देश की भाषा में किया जाए।
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#जनतंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेज़ी का प्रयोग सम्भव नहीं। अधिक लोगों के द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी भाषा समस्त भारत के लिए उपयुक्त है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेज़ी का प्रयोग ठीक है, किन्तु शिक्षा, प्रशासन, सार्वजनिक जीवन तथा दैनिक कार्यकलापों में विदेशी भाषा का व्यवहार अनुचित है।
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टिप्पणी—आयोग के दो सदस्यों ने—बंगाल के सुनीति कुमार चटर्जी व तमिलनाडु के पी. सुब्बोरोयान— ने आयोग की सिफ़ारिशों से असहमति प्रकट की और आयोग के सदस्यों पर हिन्दी का पक्ष लेने का आरोप लगाया। जो भी हो, प्रथम राजभाषा आयोग/खेर आयोग ने हिन्दी के अधिकाधिक और प्रगामी प्रयोग पर बल दिया था। खेर आयोग ने जो ठोस सुझाव रखे थे, सरकार ने उन्हें महज औपचारिक मानते हुए राजभाषा हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाए।
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*संसदीय राजभाषा समिति/गोविन्द बल्लभ (जी. बी.) पंत समिति—नवम्बर, 1957 (गठन); फ़रवरी, 1959 (प्रतिवेदन)
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पंत समिति ने कहा कि राष्ट्रीय एकता को द्योतित करने के लिए एक भाषा को स्वीकार कर लेने का स्वतंत्रता पूर्व का जोश ठंडा पड़ गया है।
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====सिफ़ारिशें====
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#हिन्दी संघ की राजभाषा का स्थान जल्दी–से–जल्दी ले। लेकिन इस परिवर्तन के लिए कोई निश्चित् तारीख़ (जैसे–26 जनवरी, 1965 ई.) नहीं दी जा सकती, यह परिवर्तन धीरे–धीरे स्वाभाविक रीति से होना चाहिए।
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#1965 ई. तक अंग्रेज़ी प्रधान राजभाषा और हिन्दी सहायक राजभाषा रहनी चाहिए। 1965 के बाद जब हिन्दी संघ की प्रधान राजभाषा हो जाए, अंग्रेज़ी संघ की सहायक/सह राजभाषा रहनी चाहिए।
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'''पंत समिति के सिफ़ारिशों से राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और सेठ गोविन्द दास असहमत व असंतुष्ट थे और उन्होंने यह आरोप लगाया कि सरकार ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रास्थापित करने के लिए आवश्यक क़दम नहीं उठाए हैं। इन दोनों नेताओं ने समिति के द्वारा अंग्रेज़ी को राजभाषा बनाये रखने का भी धीरे–धीरे विरोध किया। जो भी हो, सरकार ने पंत समिति की सिफ़ारिशों को स्वीकार कर लिया।'''
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*'''राष्ट्रपति का आदेश,(1960)'''— शिक्षा मंत्रालय, विधि मंत्रालय, वैज्ञानिक अनुसंधान व सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय को हिन्दी को राजभाषा के रूप में विकसित करने हेतु विभिन्न निर्देश।
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*'''राजभाषा अधिनियम, 1963(1967 में संशोधित)'''— संविधान के अनुसार 15 वर्ष के बाद अर्थात् 1965 ई. से सारा काम–काज हिन्दी में शुरू होना था, परन्तु सरकार की ढुल–मुल नीति के कारण यह सम्भव नहीं हो सका। अहिन्दी क्षेत्रों में, विशेषतः बंगाल और [[तमिलनाडु]] (DMK द्वारा) में हिन्दी का घोर विरोध हुआ। इसकी प्रतिक्रिया हिन्दी क्षेत्र में हुई। जनसंघ <ref>(स्थापना—1951 ई., संस्थापक–श्यामा प्रसाद मुखर्जी)</ref> एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/पी. एस. पी. <ref>(स्थापना—1952 ई., संस्थापक–लोहिया)</ref> द्वारा हिन्दी का घोर समर्थन किया गया। हिन्दी के घोर कट्टरपंथी समर्थकों ने भाषायी उन्मादों को उभारा, जिसके कारण हिन्दी की प्रगति के बदले हिन्दी को हानि पहुँची। इस भाषायी कोलाहल के बीच प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आश्वासन दिया कि हिन्दी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करने से पहले अहिन्दी क्षेत्रों की सम्मति प्राप्त की जाएगी और तब तक अंग्रेज़ी को नहीं हटाया जाएगा। राजभाषा विधेयक को गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने प्रस्तुत किया। राजभाषा विधेयक का उद्देश्य—जहाँ राजकीय प्रयोजनों के लिए 15 वर्ष के बाद यानी 1965 से हिन्दी का प्रयोग आरम्भ होना चाहिए था, वहाँ व्यवस्था को पूर्ण रूप से लागू न करके उस अवधि के बाद भी संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी का प्रयोग बनाये रखना।
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[[category:भारतीय संविधान]][[category:हिन्दी भाषा]]
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08:13, 25 दिसम्बर 2010 का अवतरण

आठवीं अनुसूची में संविधान द्वारा मान्यताप्राप्त 22 प्रादेशिक भाषाओं का उल्लेख है। इस अनुसूची में आरम्भ में 14 भाषाएँ (असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, तमिल, तेलुगु, उर्दू) थीं। बाद में सिंधी को तत्पश्चात् कोंकणी, मणिपुरी[1], नेपाली को शामिल किया गया [2], जिससे इसकी संख्या 18 हो गई। तदुपरान्त बोडो, डोगरी, मैथिली, संथाली को शामिल किया गया[3] और इस प्रकार इस अनुसूची में 22 भाषाएँ हो गईं।

संघ की भाषा की समीक्षा

  • अनुच्छेद 343 के सन्दर्भ में- संविधान के अनुच्छेद 343(1) के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी घोषित की गई है। इससे देश के बहुमत की इच्छा ही प्रतिध्वनित होती है।

अनुच्छेद 343 (2) के अनुसार इसे भारतीय संविधान लागू होने की तारीख़ अर्थात् 26 जनवरी, 1950 ई. से लागू नहीं किया जा सकता था, अनुच्छेद 343 (3) के द्वारा सरकार ने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि वह इस 15 वर्ष की अवधि के बाद भी अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रख सकती है। रही–सही क़सर, बाद में राजभाषा अधिनियम, 1963 ने पूरी कर दी, क्योंकि इस अधिनियम ने सरकार के इस उद्देश्य को साफ़ कर दिया कि अंग्रेज़ी की हुक़ूमत देश पर अनन्त काल तक बनी रहेगी।

इस प्रकार, संविधान में की गई व्यवस्था 343 (1) हिन्दी के लिए वरदान थी। परन्तु 343 (2) एवं 343 (3) की व्यवस्थाओं ने इस वरदान को अभिशाप में बदल दिया। वस्तुतः संविधान निर्माणकाल में संविधान निर्माताओं में जन साधारण की भावना के प्रतिकूल व्यवस्था करने का साहस नहीं था, इसलिय 343 (1) की व्यवस्था की गई। परन्तु अंग्रेज़ीयत का वर्चस्व बनाये रखने के लिए 343 (2) एवं 343 (3) से उसे प्रभावहीन कर देश पर मानसिक गुलामी लाद दी गई।

  • अनुच्छेद 344 के सन्दर्भ में- अनुच्छेद 344 के अधीन प्रथम राजभाषा आयोग/बी. जी. खेर आयोग का 1955 में तथा संसदीय राजभाषा समिति/जी. बी. पंत समिति का 1957 में गठन हुआ। जहाँ खेर आयोग ने हिन्दी को एकान्तिक व सर्वश्रेष्ठ स्थिति में पहुँचाने पर ज़ोद दिया, वहीं पर पंत समिति ने हिन्दी को प्रधान राजभाषा बनाने पर ज़ोर तो दिया, लेकिन अंग्रेज़ी को हटाने के बजाये उसे सहायक राजभाषा बनाये रखने की वक़ालत की। हिन्दी के दुर्भाग्य से सरकार ने खेर आयोग को महज औपचारिक माना और हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाए; जबकि सरकार ने पंत समिति की सिफ़ारिशों को स्वीकार किया, जो आगे चलकर राजभाषा अधिनियम 1963/67 का आधार बनी, जिसने हिन्दी का सत्यानाश कर दिया।

समग्रता से देखें तो स्वतंत्रता–संग्राम काल में हिन्दी देश में राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक थी, अतएव राष्ट्रभाषा बनी, और राजभाषा अधिनियम 1963 के बाद यह केवल सम्पर्क भाषा होकर ही रह गयी।

प्रादेशिक भाषाएँ एवं 8वीं अनुसूची की समीक्षा

अनुच्छेद 345, 346 से स्पष्ट है कि भाषा के सम्बन्ध में राज्य सरकारों को पूरी छूट दी गई। संविधान की इन्हीं अनुच्छेदों के अधीन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी राजभाषा बनी। हिन्दी इस समय नौं राज्यों—"उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड, राजस्थान, हरियाणा व हिमाचल प्रदेश—तथा एक केन्द्र शासित प्रदेश—दिल्ली"—की राजभाषा है। उक्त प्रदेशों में आपसी पत्र व्यवहार की भाषा हिन्दी है। दिनोंदिन हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी का प्रयोग सभी सरकारी परियोजनाओं के लिए बढ़ता जा रहा है। इनके अतिरिक्त, अहिन्दी भाषी राज्यों में महाराष्ट्र, गुजरात व पंजाब की एवं केन्द्र शासित प्रदेशों में चंडीगढ़ व अंडमान निकोबार की सरकारों ने हिन्दी को द्वितीय राजभाषा घोषित कर रखा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों से पत्र–व्यवहार के लिए हिन्दी को स्वीकार कर लिया है।

अनुच्छेद 347 के अनुसार यदि किसी राज्य का पर्याप्त अनुपात चाहता है कि उसके द्वारा बोली जाने वाली कोई भाषा राज्य द्वारा अभिज्ञात की जाय तो राष्ट्रपति उस भाषा को अभिज्ञा दे सकता है। समय–समय पर राष्ट्रपति ऐसी अभिज्ञा देते रहे हैं, जो कि आठवीं अनुसूची में स्थान पाते रहे हैं। जैसे—1967 में सिंधी, 1992 में कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली एवं 2003 में बोडो, डोगरी, मैथिली व संथाली। यही कारण है कि संविधान लागू होने के समय जहाँ 14 प्रादेशिक भाषाओं को मान्यता प्राप्त थी, वहीं अब यह संख्या बढ़कर 22 हो गई है।

SC, HC आदि की भाषा की समीक्षा

अनुच्छेद 348, 349 से स्पष्ट हो जाता है कि न्याय व क़ानून की भाषा, उन राज्यों में भी जहाँ हिन्दी को राजभाषा मान लिया गया है, अंग्रेज़ी ही है। नियम, अधिनियम, विनियम तथा विधि का प्राधिकृत पाठ अंग्रेज़ी में होने के कारण सारे नियम अंग्रेज़ी में ही बनाए जाते हैं। बाद में उनका अनुवाद मात्र कर दिया जाता है। इस प्रकार, न्याय व क़ानून के क्षेत्र में हिन्दी का समुचित प्रयोग हिन्दी राज्यों में भी अभी तक नहीं हो सका है।

विशेष निदेश की समीक्षा

अनुच्छेद 350—भले ही संवैधानिक स्थिति के अनुसार व्यक्ति को अपनी व्यथा के निवारण हेतु किसी भी भाषा में अभ्यावेदन करने का हक़दार माना गया है, लेकिन व्यावहारिक स्थिति यही है कि आज भी अंग्रेज़ी में अभ्यावेदन करने पर ही अधिकारी तवज्जों/ध्यान देना गवारा करते हैं।

अनुच्छेद 351— (हिन्दी के विकास के लिए निदेश)—अनुच्छेद 351 राजभाषा विषयक उपबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें हिन्दी के भावी स्वरूप के विकास की परिकल्पना सन्निहित है। हिन्दी को विकसित करने की दिशाओं का इसमें संकेत है। इस अनुच्छेद के अनुसार संघ सरकार का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दी भाषा के विकास और प्रसार के लिए समुचित प्रयास करे ताकि भारत में राजभाषा हिन्दी के ऐसे स्वरूप का विकास हो, जो कि समूचे देश में प्रयुक्त हा सके और जो भारत को मिली–जुली संस्कृति की अभिव्यक्ति की वाहिका बन सके। इसके लिए संविधान में इस बात का भी निर्दश दिया गया है, कि हिन्दी में हिन्दुस्तानी और मान्यताप्राप्त अन्य भारतीय भाषाओं की शब्दावली और शैली को भी अपनाया जाए और मुख्यतः संस्कृत तथा गौणतः अन्य भाषाओं (विश्व की किसी भी भाषा) से शब्द ग्रहण कर उसके शब्द–भंडार को समृद्ध किया जाए। संविधान के निर्मताओं की यह प्रबल इच्छा थी कि हिन्दी भारत में ऐसी सर्वमान्य भाषा के स्वरूप को ग्रहण करे, जो कि सब प्रान्तों के निवासियों को स्वीकार्य हो। संविधान के निर्मताओं को यह आशा थी कि हिन्दी अपने स्वाभाविक विकास में भारत की अन्य भाषाओं से वरिष्ठ सम्पर्क स्थापित करेगी और हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के बीच में साहित्य का आदान–प्रदान भी होगा।

संविधान के निर्माताओं ने उचित ढंग से यह आशा की थी कि राजभाषा हिन्दी अपने भावी रूप का विकास करने में अन्य भारतीय भाषाओं का सहारा लेगी। यह इसीलिए था कि राजभाषा हिन्दी को सबके लिए सुलभ और ग्राह्य रूप धारण करना है।

1950 ई. के बाद हिन्दी की संवैधानिक प्रगति

  • राष्ट्रपति का संविधान आदेश, 1952—राज्यपालों, SC एवं HC के न्यायधीशों की नियुक्ति के अधिपत्रों के लिए हिन्दी का प्रयोग प्राधिकृत।
  • राष्ट्रपति का संविधान आदिश, 1955— कुछ प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी के साथ–साथ हिन्दी का प्रयोग निर्धारित, जैसे
  1. जनता के साथ पत्र व्यवहार में
  2. प्रशासनिक रिपोर्ट, सरकारी पत्रिकाओं व संसदीय रिपोर्ट में
  3. संकल्पों (Resolution) व विधायी नियमों में
  4. हिन्दी को राजभाषा मान चुके राज्यों के साथ पत्र व्यवहार में
  5. संधिपत्र और क़रार में
  6. राजनयिक व अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारतीय प्रतिनिधियों के नाम जारी किए जाने वाले पत्रों में।
  • प्रथम राजभाषा आयोग/बाल गंगाधर (बी. जी.) खेर आयोग—जून, 1955 (गठन); जुलाई, 1956 (प्रतिवेदन)

आयोग की सिफ़ारिशें

  1. सारे देश में माध्यमिक स्तर तक हिन्दी अनिवार्य की जाएँ।
  2. देश में न्याय देश की भाषा में किया जाए।
  3. जनतंत्र में अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेज़ी का प्रयोग सम्भव नहीं। अधिक लोगों के द्वारा बोली जानेवाली हिन्दी भाषा समस्त भारत के लिए उपयुक्त है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेज़ी का प्रयोग ठीक है, किन्तु शिक्षा, प्रशासन, सार्वजनिक जीवन तथा दैनिक कार्यकलापों में विदेशी भाषा का व्यवहार अनुचित है।

टिप्पणी—आयोग के दो सदस्यों ने—बंगाल के सुनीति कुमार चटर्जी व तमिलनाडु के पी. सुब्बोरोयान— ने आयोग की सिफ़ारिशों से असहमति प्रकट की और आयोग के सदस्यों पर हिन्दी का पक्ष लेने का आरोप लगाया। जो भी हो, प्रथम राजभाषा आयोग/खेर आयोग ने हिन्दी के अधिकाधिक और प्रगामी प्रयोग पर बल दिया था। खेर आयोग ने जो ठोस सुझाव रखे थे, सरकार ने उन्हें महज औपचारिक मानते हुए राजभाषा हिन्दी के विकास के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाए।

  • संसदीय राजभाषा समिति/गोविन्द बल्लभ (जी. बी.) पंत समिति—नवम्बर, 1957 (गठन); फ़रवरी, 1959 (प्रतिवेदन)

पंत समिति ने कहा कि राष्ट्रीय एकता को द्योतित करने के लिए एक भाषा को स्वीकार कर लेने का स्वतंत्रता पूर्व का जोश ठंडा पड़ गया है।

सिफ़ारिशें

  1. हिन्दी संघ की राजभाषा का स्थान जल्दी–से–जल्दी ले। लेकिन इस परिवर्तन के लिए कोई निश्चित् तारीख़ (जैसे–26 जनवरी, 1965 ई.) नहीं दी जा सकती, यह परिवर्तन धीरे–धीरे स्वाभाविक रीति से होना चाहिए।
  2. 1965 ई. तक अंग्रेज़ी प्रधान राजभाषा और हिन्दी सहायक राजभाषा रहनी चाहिए। 1965 के बाद जब हिन्दी संघ की प्रधान राजभाषा हो जाए, अंग्रेज़ी संघ की सहायक/सह राजभाषा रहनी चाहिए।

पंत समिति के सिफ़ारिशों से राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और सेठ गोविन्द दास असहमत व असंतुष्ट थे और उन्होंने यह आरोप लगाया कि सरकार ने हिन्दी को राजभाषा के रूप में प्रास्थापित करने के लिए आवश्यक क़दम नहीं उठाए हैं। इन दोनों नेताओं ने समिति के द्वारा अंग्रेज़ी को राजभाषा बनाये रखने का भी धीरे–धीरे विरोध किया। जो भी हो, सरकार ने पंत समिति की सिफ़ारिशों को स्वीकार कर लिया।

  • राष्ट्रपति का आदेश,(1960)— शिक्षा मंत्रालय, विधि मंत्रालय, वैज्ञानिक अनुसंधान व सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय तथा गृह मंत्रालय को हिन्दी को राजभाषा के रूप में विकसित करने हेतु विभिन्न निर्देश।
  • राजभाषा अधिनियम, 1963(1967 में संशोधित)— संविधान के अनुसार 15 वर्ष के बाद अर्थात् 1965 ई. से सारा काम–काज हिन्दी में शुरू होना था, परन्तु सरकार की ढुल–मुल नीति के कारण यह सम्भव नहीं हो सका। अहिन्दी क्षेत्रों में, विशेषतः बंगाल और तमिलनाडु (DMK द्वारा) में हिन्दी का घोर विरोध हुआ। इसकी प्रतिक्रिया हिन्दी क्षेत्र में हुई। जनसंघ [4] एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/पी. एस. पी. [5] द्वारा हिन्दी का घोर समर्थन किया गया। हिन्दी के घोर कट्टरपंथी समर्थकों ने भाषायी उन्मादों को उभारा, जिसके कारण हिन्दी की प्रगति के बदले हिन्दी को हानि पहुँची। इस भाषायी कोलाहल के बीच प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने आश्वासन दिया कि हिन्दी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करने से पहले अहिन्दी क्षेत्रों की सम्मति प्राप्त की जाएगी और तब तक अंग्रेज़ी को नहीं हटाया जाएगा। राजभाषा विधेयक को गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने प्रस्तुत किया। राजभाषा विधेयक का उद्देश्य—जहाँ राजकीय प्रयोजनों के लिए 15 वर्ष के बाद यानी 1965 से हिन्दी का प्रयोग आरम्भ होना चाहिए था, वहाँ व्यवस्था को पूर्ण रूप से लागू न करके उस अवधि के बाद भी संघ के सभी सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेज़ी का प्रयोग बनाये रखना।
  1. (21वाँ संशोधन, 1967 ई.)
  2. (71वाँ संशोधन, 1992 ई.)
  3. (92वाँ संशोधन, 2003)
  4. (स्थापना—1951 ई., संस्थापक–श्यामा प्रसाद मुखर्जी)
  5. (स्थापना—1952 ई., संस्थापक–लोहिया)