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06:36, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
काका-काकी के लव लैटर्स -काका हाथरसी
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कवि | काका हाथरसी |
मूल शीर्षक | काका-काकी के लव लैटर्स |
प्रकाशक | डायमंड पॉकेट बुक्स |
ISBN | 81-288-1024-3 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 164 |
भाषा | हिन्दी |
शैली | हास्य |
विशेष | महाकवि काका हाथरसी द्वारा काकी को लिखे तमाम लव लैटर्स पुस्तक 'काका-काकी के लव लैटर्स' में प्रकाशित किया गया है। |
काका-काकी के लव लैटर्स नामक पुस्तक में हिन्दी के महान् हास्य कवि काका हाथरसी के तमाम लव लैटर्स को प्रकाशित किया गया है, जो दुर्लभ है। काका हाथरसी को हिन्दी हास्य व्यंग्य कविताओं का पर्याय माना जाता है। काका हाथरसी की शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर भी पड़ी है। उनकी रचनाएँ समाज में व्याप्त दोषों, कुरीतियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन की ओर सबका ध्यान आकृष्ट करती हैं।
परिचय
विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी काका हाथरसी अपने अनूठे अंदाज़के लिए प्रसिद्ध रहे थे। अपने खा़स अंदाज़में कभी-कभी वे काकी के लव लैटर्स के बारे में कहा करते थे। अपनी अलग काव्य-शैली में आम आदमी की समझ में आ सकने वाली बात कहना उनकी विशेषता थी। बनावटीपन और शब्द जाल से कोसों दूर काका जी की आसान भाषा ने उन्हें जनप्रिय कवि बना दिया था। उनकी कविता में जनता को बांध लेने की असाधारण क्षमता थी। महाकवि काका हाथरसी द्वारा काकी को लिखे तमाम लव लैटर्स पुस्तक 'काका-काकी के लव लैटर्स' में प्रकाशित किया गया है, जो दुर्लभ हैं।
पुस्तक अंश
- काकी का पर्स - लव लैटर्स
‘कॉफ़ी मिलेगी बाद में, पहले अंदर आओ। सफ़ाई में कुछ हाथ बँटाओ।’
हमने कुर्ता उतारकर खूँटी पर टाँग दिया। धोती को लंगोटी की तरह लपेट लिया और देने लगे अर्धांगिनी का साथ।
‘तुम हमारे कमरे की सफ़ाई करो, हम तुम्हारे की करेंगे।’
‘नहीं-नहीं, अपना-अपना कमरा ठीक करो। मेरी चीज़ों को हाथ मत लगाना, तितर-बितर कर दोगे।’
हमने कहा, ‘तुम जैसा चाहोगी, वैसा ही करेंगे। बाज़ार से थके-माँदे आए हैं। पहले एक-एक कप कॉफ़ी हो जाए, फिर सफ़ाई करेंगे।’ वे कॉफ़ी बनाने चली गईं और हम चुपचाप उनके कमरे में घुस गए। एक ढीला-ढाला बक्सा, जिसका ताला सौभाग्य से खुला हुआ था, उसकी गर्द झाड़ी और खोलकर देखा। बीस-इक्कीस साबुन की बट्टियाँ भिन्न-भिन्न रंगों की इधर-उधर पड़ी हुई थीं, जबकि कल ही उन्होंने कहा था कि एक भी साबुन की बट्टी नहीं है। हमारी जिज्ञासा बढ़ गई और नीयत भी बिगड़ गई। चार बट्टियाँ निकालकर धोती में खोंस लीं। तलाश जारी रखी।
रसोई से आवाज़ आई, ‘कॉफ़ी बन गई है, आ जाओ।’ हमने फौरन बक्सा बंद किया। उन्होंने आहट सुनी और फटाफट अंदर आकर बोलीं, ‘क्या कर रहे थे ?’
‘क्या कर रहे थे ! इस बक्से के ऊपर ढेरों गर्द जमा रखी थी, उसे साफ़ कर रहे थे।’
‘फिर खोला क्यों था ?’
‘इसमें ताला नहीं था इसलिए खोल लिया।’
‘कुछ निकाला है क्या, इसमें से ? चलो, चलो कॉफ़ी पिओ ?
इस तरह हमें बाहर भेज दिया। रसोई में बैठे-बैठे ही हमने ताला लगाने की खटक सुनी। यह अच्छा हुआ कि उन्होंने उस समय उसे खोलकर नहीं देखा, वरना सामान की उलट-पलट देखकर उबल पड़तीं।
‘कल मैंने कहा था साबुन लाए ?’
हमने अंटी में से चारों टिकियाँ निकालकर कहा, ‘यह लो दो लक्स, दो हमाम। बन गया काम ! लाओ इनके दाम।’
‘मैंने दस रुपए दिए थे। उसमें से बचे होंगे?’
‘बचे होंगे ! खील, बताशे और खिलौने क्या मुफ़्त में देता दुकानदार ?’
थोड़ी देर को चुप हो गई। फिर तत्काल बोलीं, तब तो कम पड़ गए होंगे ! दस रुपए में सब सामान आ गया ?
हमने कहा, ‘साबुन वाले का उधार कर आए हैं।’
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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