डाक टिकट

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डाक टिकट

डाक टिकट चिपकने वाले कागज से बना एक साक्ष्य है जो यह दर्शाता है कि, डाक सेवाओं के शुल्क का भुगतान हो चुका है। आम तौर पर यह एक छोटा आयताकार कागज का टुकड़ा होता है जो एक लिफाफे पर चिपका रहता है, यह यह दर्शाता है कि प्रेषक ने प्राप्तकर्ता को सुपुर्दगी के लिए डाक सेवाओं का पूरी तरह से या आंशिक रूप से भुगतान किया है। डाक टिकट, डाक भुगतान करने का सबसे लोकप्रिय तरीका है; इसके अलावा इसके विकल्प हैं, पूर्व प्रदत्त-डाक लिफाफे, पोस्टकार्ड, हवाई पत्र आदि। डाक टिकटों को डाक घर से खरीदा जा सकता है। डाक टिकटों के संग्रह को डाक टिकट संग्रह या फिलेटली कहा जाता है। डाक टिकट इकट्ठा करना एक शौक है।

डाक टिकट का इतिहास

पहले-पहल इंग्लैंड में वर्ष 1840 में डाक-टिकट बेचने की व्यवस्था शुरू की गई। हालाँकि इसके पहले ही डाक वितरण व्यवस्था शुरू हो चुकी थी परंतु पत्र पहुँचाने के लिए पत्र भेजने वाले को पोस्ट ऑफिस तक जाना ही पड़ता था। पहले किसी भी पत्र भेजने वाले को पोस्ट-ऑफिस जाकर पत्र पर पोस्ट मास्टर के दस्तख्त करवाने पड़ते थे पर डाक-टिकटों के बेचे जाने ने इस परेशानी से मुक्ति दिला दी। जब डाक-टिकट बिकने लगे तो लोग उन्हें खरीद कर अपने पास रख लेते थे और फिर जरूरत पड़ने पर उनका उपयोग कर लेते थे। 1840 में ही सबसे पहले जगह-जगह लेटर-बॉक्स भी टाँगे जाने लगे ताकि पत्र भेजने वाले उनके जरिए पत्र भेज सकें और पोस्ट-ऑफिस जाने से छुट्टी मिल गई। सोचो पहले पत्र भेजने में कितनी तकलीफ आती थी आज पत्र भेजना कितना आसान हो गया है। अब तो संदेश भेजने के लिए पत्र से बहुत तेज सुविधाएँ भी हमें उपलब्ध हैं।

विश्व में पहला डाक टिकट आज से डेढ़ सौ साल से पहले ब्रिटेन ( इंग्लैंड ) में जारी हुआ था। उस समय इंग्लैंड के राजसिंहासन पर महारानी विक्टोरिया विराजमान थीं, इसलिए स्वाभाविक रूप से इंग्लैंड अपने डाक टिकटों पर महारानी विक्टोरिया के चित्रों को प्रमुखता देता रहा। पहले डाक टिकटों पर रानी विक्टोरिया के चित्र छपने के कारण वहाँ की महिलाओं में अपनी रानी के चित्रवाले डाक टिकटों को इकट्ठा करने का जुनून सवार हो गया। ये महिलाएँ ही डाक टिकट संग्रह के शौक की जननी बनीं। इंग्लैंड में राजा विलियम प्रथम (सन् 1066-1087) से राजशाही का दौर चला आ रहा है। विश्व का पहला डाक टिकट 1 मई 1840 को ग्रेट ब्रिटेन में जारी किया गया था, जिसके ऊपर ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया का चित्र छपा था। यह डाक टिकट काले रंग में एक छोटे से चौकोर कागज पर छपा था और उसकी कीमत एक पेनी रखी गई थी। यह डाक टिकट पेनी ब्लैक के नाम से मशहूर हुआ। एक पेनी मूल्य के इस टिकट के किनारे सीधे थे यानी टिकटों को अलग करने के लिए जो छोटे छोटे छेद बनाए जाते हैं, वे प्राचीन डाक टिकटों में नहीं थे। इस समय तक उनमें लिफाफे पर चिपकाने के लिए गोंद भी नहीं लगा होता था। यह डाक टिकट हालांकी पहली मई 1840 को बिक्री के लिए जारी किया गया था, लेकिन डाक शुल्क के लिए इसे 6 मई 1840 से बैध माना गया। ये डाक टिकट विश्व के भी पहले डाक टिकट थे। इंग्लैंड के इन डाक टिकटों को निकालने के श्रेय सर रॉलैंड हिल (सन् 1795-1878) को जाता है। टिकट संग्रह करने में रूचि रखने वालों के लिए इस टिकट का बहुत महत्व है, क्योंकि इस टिकट से ही डाक-टिकट संग्रह का इतिहास भी शुरू होता है। इस डाक टिकट की कहानी अत्यंत रोचक है। यहीं से डाक टिकटों की परंपरा शुरू होती है।

1837 में रोलैंड हिल ने डाक व्यवस्था में सुधार और डाक टिकटों द्वारा डाक शुल्क की वसूली के बारे में दो शोधपत्र प्रकाशित किए। इन शोधपत्रों में उन्होंने यह सुझाव दिया कि प्रत्येक आधे औंस के वजन के पत्र पर एक पेनी की समान डाक शुल्क दर लगाई जाए चाहे वह पत्र कितनी ही दूर जाता हो और यह डाक शुल्क पेशगी अदा की जाए। जहां तक डाक शुल्क का भूगतान करने का संबंध है, इस बारे में हिल ने मोहर लगे छोटे-छोटे लेबल जारी करने का सुझाव दिया, लेबल सिर्फ इतने बड़े होने चाहिए कि उन पर मुहर लग सके।

गोंद लगे डाक टिकटों का उचित डिजाइन तैयार करने के लिए ब्रिटेन की सरकार ने प्रतियोगिता आयोजित की। इस प्रतियोगिता में 2,600 प्रविष्टियां प्राप्त हुईं लेकिन इनमें से कोई भी डिजाइन उपयुक्त नहीं पाई गई। अंततः हिल ने महारानी के चित्र को डाक टिकट पर छापने का निर्णय किया। इस चित्र के लिए उन्होंने महारानी के उस चित्र को चुना जिसे विलियम वायन ने 1837 में नगर की स्थापना की यादगार के रूप में जारी किए गए मेडल पर अंकित किया था। उन्होंने इसका आकार टैक्स लेबलों पर इस्तेमाल किए जाने वाले चित्रों के आकार जैसा रखा। वायन के मेडल पर अंकित चित्र के आधार पर डाक टिकट तैयार करने के लिए लंदन के हैनरी कारबोल्ड नामक चित्रकार को उसे वाटर कलर पर उतारने के लिए कहा गया। एक पेनी का डाक टिकट काले रंग में और दो पेंस का डाक टिकट नीले रंग में छापा गया। हालांकि, दो पेंस के डाक टिकट 8 मई 1840 तक जारी नहीं हुए।

लैटर शीट्स, रैपर्स और लिफाफे आदि डाक स्टेशनरी भी पेनी ब्लैक के साथ-साथ छप कर जारी हुईं। इनमें से मुलरेडी लिफाफे (जिनका नाम इनका डिजाइन बनानेवाले विलियम मुलरेडी के नाम पर रखा गया था) मशहूर हैं। यह डिजाइन काफी मशहूर हुआ लेकिन लिफाफे लोकप्रिय नहीं हुए। पेनी ब्लैक टिकट एक वर्ष से भी कम समय तक प्रयोग में रहा और 1841 में इसका स्थान पेनी रेड टिकट ने ले लिया।

रानी विक्टोरिया के समय में ही इंग्लैंड का विश्व के अधिकतर देशों पर शासन था। इंग्लैंड ही नहीं, बल्कि इंग्लैंड शासित विश्व के अनेक देशों के डाक टिकटों पर इंग्लैंड के शासकों के ही चित्र छपते थे। इससे डाक टिकटों के मध्य डिजाइन में अजीब-सी नीरसता भरती चली गई। ये बेहद उबाऊ होते जा रहे थे; लेकिन इंग्लैंड में ही पहली बार जुलाई 1913 में जारी एक डाक टिकट ‘ब्रिटेनिका’ (मूल्य आधा क्राउन) पर आश्चर्यजनक रूप से मध्य डिजाइन में परिवर्तन नजर आता है। इसके बाद तो टिकटों पर इतिहास, भूगोल, राजनीति, व्यक्ति, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य-विज्ञान, जीव-जंतु, खेल-कूद, स्थापत्य-मूर्ति, चित्र-कलाओं आदि के विविध रंग-रूप देखने को मिलने लगते हैं।

भारत में पहला डाक-टिकट

जहाँ तक भारत का संबंध है, भारत में डाक टिकटों की शुरुआत 1852 में हुई। 1 जुलाई 1852 में सिंध प्रांत में और मुंबई कराची रूट पर प्रयोग के लिए सिंध डाक नामक डाक टिकट जारी किया गया। आधे आने मूल्य के इस टिकट को भूरे कागज पर लाख की लाल सील चिपका कर जारी किया गया था। यह टिकट बहुत सफल नहीं रहा क्योंकि लाख टूटकर झड़ जाने के कारण इसको संभालकर रखना संभव नहीं था। फिर भी ऎसा अनुमान किया जाता है कि इस टिकट की लगभग 100 प्रतियां विभिन्न संग्रहकर्ताओं के पास सुरक्षित हैं। डाक-टिकटों के इतिहास में इस टिकट को सिंध डाक के नाम से जाना जाता है। बाद में सफेद और नीले रंग के इसी प्रकार के दो टिकट वोव कागज पर जारी किए गए लेकिन इनका प्रयोग बहुत कम दिनों तक रहा, क्योंकि 30 सितंबर 1854 को सिंध प्रांत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार होने के बाद इन्हें बंद कर दिया गया। ये एशिया के पहले डाक-टिकट तो थे ही, विश्व के पहले गोलाकार टिकट भी थे। संग्रहकर्ता इस प्रकार के टिकटों को महत्वपूर्ण समझते हैं और आधे आने मूल्य के इन टिकटों को आज सबसे बहुमूल्य टिकटों में गिनते हैं।

भारत में सन् 1854 से 1931 तक डाक टिकटों पर रानी विक्टोरिया, राजा एडवर्ड सप्तम, जॉर्ज पंचम, जार्ज छठे के चित्रवाले डाक टिकट ही निकलते रहे हैं। अपने प्रेम के लिए सिंहासन त्यागनेवाले राजा एडवर्ड अष्टम (सन् 1936) पर यहाँ कोई डाक टिकट नहीं निकला था। सन् 1929 (हवाई डाक टिकट), 1931 (नई दिल्ली उद्घाटन) से भारतीय डाक टिकटों में विविधता आती गई।

डाक टिकट संग्रह

संग्रह करना बहुत से बच्चों की हॉबी का हिस्सा होता है, कोई अखबार में छपी रेसीपीज तो कोई विभिन्न देशों की मुद्राएं इकटी करने में लगा रहता है। डाक-टिकटों का संग्रह विश्व के सबसे लोकप्रिय शौकों में से एक है। डाक-टिकटों का संग्रह हमें स्वाभाविक रूप से सीखने को प्रेरित करता है, इसलिए इसे प्राकृतिक शिक्षा-उपकरण कहा जाता है। डाक-टिकट किसी भी देश की विरासत की चित्रमय कहानी हैं। डाक टिकटों का एक संग्रह विश्वकोश की तरह है, जिसके द्वारा हम अनेक देशों के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, ऎतिहासिक घटनाएं, भाषाएं, मुद्राएं, पशु-पक्षी, वनस्पतियों और लोगों की जीवनशैली एवं देश के महारथियों के बारे में बहुत सारी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

समय के साथ जैसे-जैसे टिकटों का प्रचलन बढ़ा टिकट संग्रह का शौक भी पनपने लगा। 1860 से 1880 के बीच बच्चों और किशोरों ने टिकटों का संग्रह करना शुरू कर दिया था। दूसरी ओर अनेक वयस्क लोगों में भी यह शौक पनपने लगा और उन्होंने टिकटों को जमा करना शुरू किया, संरक्षित किया, उनके रेकार्ड रखे और उन पर शोध आलेख प्रकाशित किए। जल्दी ही इन संरक्षित टिकटों का मूल्य बढ़ गया क्योंकि इनमें से कुछ तो ऎतिहासिक विरासत बन गए थे और बहुमूल्य बन गए थे। ग्रेट ब्रिटेन के बाद अन्य कई देशों द्वारा डाक-टिकट जारी किये गए।

1920 तक यह टिकट संग्रह का शौक आम जनता तक पहुंचने लगा। उनको अनुपलब्ध तथा बहुमूल्य टिकटों की जानकारी होने लगी और लोग टिकट संभालकर रखने लगे। नया टिकट जारी होता तो उसे खरीदने के लिए डाकघर पर भीड़ लगनी शुरू हो जाती थी। लगभग 50 वर्षो तक इस शौक का नशा जारी रहा। इसी समय टिकट संग्रह के शौक पर आधारित टिकट भी जारी किए गए। जर्मनी के टिकट में टिकटों के शौकीन एक व्यक्ति को टिकट पर अंकित बारीक अक्षर आवर्धक लेंस (मैग्नीफाइंग ग्लास) की सहायता से पढ़ते हुए दिखाया गया है। आवर्धक लेंस टिकट-संग्रहकर्ताओं का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। एक रूपये मूल्य का भारतीय टिकट, यू.एस. का टिकट तथा बांग्लादेश के लाल रंग के तिकोने टिकटों का एक जोड़ा टिकट संग्रह के शौक पर आधारित महत्वपूर्ण टिकटों में से हैं।

1940-50 तक डाक-टिकटों के शौक ने देश-विदेश के लोगों को मिलाना शुरू कर दिया था। टिकट इकटा करने के लिए लोग पत्र-मित्र बनाते थे। अपने देश के डाक-टिकटों को दूसरे देश के मित्रों को भेजते थे और दूसरे देश के डाकटिकट मंगवाते थे। पत्र-मित्रता के इस शौक से डाक-टिकटों का आदान प्रदान तो होता ही था लोग विभिन्न देशों के विषय में अनेक ऎसी बातें भी जानते थे, जो किताबों में नहीं लिखी होती हैं। उस समय टीवी और आवागमन के साधन आम न होने के कारण देश विदेश की जानकारी का ये बहुत ही रोचक साधन बने। पत्र-पत्रिकाओं में टिकट से संबंधित स्तंभ होते और इनके विषय में बहुत सी जानकारियों को जन सामान्य तक पहुंचाया जाता। पत्र-मित्रों के पतों की लंबी सूचियां भी उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित की जाती थीं।

धीरे धीरे डाक टिकटों के संग्रह की विभिन्न शैलियों का भी जन्म हुआ। लोग इसे अपनी जीवन शैली, परिस्थितियों और रूचि के अनुसार अनुकूलित करने लगे। इस परंपरा के अनुसार कुछ लोग एक देश या महाद्वीप के डाक-टिकट संग्रह करने लगे तो कुछ एक विषय से संबंधित डाक-टिकट। आज अनेक लोग इस प्रकार की शैलियों का अनुकरण करते हुए और अपनी-अपनी पसंद के किसी विशेष विषय के डाक टिकटों का संग्रह करके आनंद उठाते है। विषयों से संबंधित डाक टिकटों के संग्रह में अधिकांश लोग पशु, पक्षी, फल, फूल, तितलियां, खेलकूद, महात्मा गांधी, महानुभावों, पुल, इमारतें आदि विषयों और दुनिया भर की घटनाओं के रंगीन और सुंदर चित्रों से सजे डाक टिकटों को एकत्रित करना पसंद करते है।

प्रत्येक देश हर साल भिन्न भिन्न विषयों पर डाक-टिकट जारी करते हैं और जानकारी का बड़ा खजाना विश्व को सौप देते हैं। इस प्रकार किसी विषय में गहरी जानकारी प्राप्त करने के लिए उस विषय के डाक टिकटों का संग्रह करना एक रोचक अनुभव हो सकता है। डाक-टिकट संग्रह का शौक हर उम्र के लोगों को मनोरंजन प्रदान करता है। बचपन में ज्ञान एवं मनोरंजन, वयस्कों में आनंद और तनावमुक्ति तथा बड़ी उम्र में दिमाग को सक्रियता प्रदान करने वाला इससे रोचक कोई शौक नहीं। इस तरह सभी पीढियों के लिए डाक टिकटों का संग्रह एक प्रेरक और लाभप्रद अभिरूचि है।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ